24 जून 2009

मायने बदल गए

परिवर्तन ही ‘स्थायी’ है
समझता है आदमी
तभी तो बदल लेता है,
खुद को समय के साथ
अपना पूरा किरदार
और बदल डालता है साथ में
सोच, फितरत, स्वभाव सबकुछ।
बदलावों के इस बवंडर में,
फंस कर बदल जाते हैं
लफ्जों के मायने भी
शब्द वही रहते हैं
शब्दकोश वही रहते हैं
बदल जाते हैं तो बस
लफ्जों के मायने

लड़ना बुराई से
देना सच का साथ
कहलाता था साहस कभी
पर बदल गए हैं पूरी तरह
साहस के मायने आज
चोर को चोर कहना
दलाल को दलाल कहना
और कहना दोगले को दोगला
‘साहस’ से भी बढ़कर
आज हो चला है ‘पराक्रम’
और यह भी सच है समाज का
कि हर आदमी हो नहीं सकता पराक्रमी
इस लिए उसने खोज निकाला है रास्ता
रास्ता ‘शालीनता’ की चादर ओढ़
बन जाने का ‘सुसभ्य’ और ‘लोकतांत्रिक’
- - -तो अब सभ्य, शालीन और लोकतांत्रिक
आदमी के मुंह से लिकलेंगे भला कैसे
दोगला, चोर, दलाल जैसे सस्ते शब्द
इस लिए गढ़ लिया गया है
एक ‘सुसभ्य’ सा नया संबोधन
चोर-दलाल-दोगले सबको
समेट लिया है बस एक लफ्ज में
क्या है बोलो वह शब्द !
ठीक कहा, ‘माननीय’ ।

21 जून 2009

तो इस लिए है सुअर घिनौना ।

स्वाइन फ्लू की खबर पढ़ते हुए मन ख्याल आया कि - - -तो इस लिए सुअर का मांस खाने को बुरा माना जाता है । पर अगले ही पल दूसरा सवाल उठा कि स्वाइन फ्लू की बीमारी तो हाल के वर्षों में ही सामने आई है, पर सुअर के मीट को लेकर कई देशों और संस्कृतियों में घृणा सदियों पहले से है । इस्लाम में तो शुरू से ही न केवल सुअर का मांस खाना मना है, बल्कि इसे कुफ्र या पाप माना जाता है । बात इस्लाम तक पहुंची तो सहसा ही आइडिया आया कि क्यों न इसकी वजह भी इस्लाम की ही किसी किताब में ढूंढी जाए ! याद आया कि पुस्तक मेले में लगे स्टाल से एक बार जाकिर नाइक की कुछ किताबें ली थीं । ली क्या थी, मुफ्त बंट रही थीं सो उठा लाया था । एकाध अध्याय पढ़ने के बाद रोजमर्रा की जद्दोजहद में किताब किनारे लगी तो फिर सेल्फ में ही रखी रह गई । आज स्वाइन फ्लू ने बरबस ही उसकी याद दिला दी । देखा तो संयोग से उसमें इस सवाल का जवाब मिल गया । सुअर के मांस के निषेध के किताब में दो मुख्य कारण बताये गए हैं । एक कारण तो आमतौर पर लोगों को पता ही होगा कि हमारे इर्द-गिर्द पाए जाने वाले जानवरों में सुअर ही एक ऐसा प्राणी है जो अपना मल भी खा जाता है । उसके इस गंदे खान-पान और रहन-सहन के चलते उसके पेट में तमाम तरह के कीड़े या कृमि और कीटाणु-जीवाणु आदि पाए जाते हैं । पश्चिमी जगत में मान्यता है कि मांस को अगर अच्छी तरह से पका दिया जाए तो यह सभी कीटाणु, जीवाणु और कृमि मर जाते हैं, पर हाल के वैज्ञानिक शोधों में पता चला है कि बहुत से कीटाणु-जीवाणु ऐसे भी होते हैं जो खौलते पानी तक में जिंदा रह सकते हैं । इसके विपरीत शून्य से दस डिग्री नीचे तक के तापमान में यानि पानी को जमा कर बर्फ बना देने के बाद भी कई जीवाणु-कीटाणु जीवित रहते हैं । सुअर का मीट खाने पर यही जीवाणु तमाम बीमारियों का वाहक बन कर हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और हमें बीमार कर देते हैं । इस वैज्ञानिक तथ्य के सामने आने के बाद सार्सेज के शौकीनों ने इसके जवाब में एक नया तर्क पेश कर दिया कि बीमारी फैलाने वाले जीवाणु तो गंदी तरह रहने-खाने के चलते सुअर के शरीर में पनपते हैं, अगर उन्हें सफाई से रखा जाए और हाईजेनिक ढंग से पाला जाए तो सार्सेज खाने में कोई हर्ज नहीं है । यह बात उपरी तौर पर सही लग सकती है पर पूरी तरह ठीक नहीं क्योंकि लाख सफाई रखने और अच्छा खाना देने पर भी इनपर पूरी तरह नियंत्रण नहीं रखा जा पाता । अपने नैसर्गिक स्वभाव के चलते बाड़े में मौका लगते ही यह एक-दूसरे का या अपना मल खा ही जाते हैं । इस तरह बडे़-बड़े फार्म हाउसों में पूरी सफाई से पाने जाने वालू सुअरों का मांस भी आप बेफिक्र होकर नहीं खा सकते ।
यह तो हुई समस्या की वैज्ञानिक व्याख्या । इसके अलावा सुअर का मीट खाना मना होने का एक नैतिक कारण भी किताब में बताया गया है । वह कारण यह है कि सुअर ही एक ऐसा प्राणी है जो अपने साथियों को अपनी संगिनी के साथ संभोग करने के लिए स्वयं आमंत्रित करता है, बाकी कोई भी जीव ऐसा काम नहीं करता । यह दूसरा कारण मेरे लिए एक नई जानकारी थी । अगर यह हकीकत है तो इसके कारणों आदि पर व्यापक वैज्ञानिक की शोध की जरूरत है । शायद इसी कारण से सुअर को घिनौनेपन की मिसाल माना जाता है ।

19 जून 2009

दिमाग की खिड़कियां खोलो अविनाश !

मोहल्ला से फिर एक ब्लागर को निकाल दिया गया । सलीम खान नाम के इस शख्स पर आरोप था अपने धर्म, इस्लाम का प्रचार करने का । यानि मोहल्ले में धर्म या मजहब की बात करना कुफ्र है, गुनाह है । इस एकतरफा कार्रवाई के औचित्य पर चर्चा बाद में करेंगे । पहले यह कहना चाहूंगा कि यदि ब्लाग में किसी को शामिल करने या बेदखल करने के ब्लागर के विशेषाधिकार को मान भी लिया जाए तो सलीम को मोहल्ले से बेदखल करने के लिए अविनाश ने जिस भाषा, जिस शब्दावली का इस्तेमाल किया वह अस्वस्थ और आपत्तिजनक है ।
अविनाश की पोस्ट में कहा गया कि हमें मोहल्ले में सलीम साहब की सोहबत नहीं चाहिए - - - क्योंकि उनका उद्देश्य इस्लाम का प्रचार करना है - - - । यहां दो बातों पर मैं खास ध्यान दिलाना चाहूंगा । पहला है ‘सोहबत’ शब्द । बहुत महत्वपूर्ण शब्द है सोहबत, जिसे हिन्दी में सानिध्य या संगत कहते हैं । इसी संगत को लेकर कहावत है कि ‘संगत से गुण आत है, संगत से गुण जाए’ ।
‘सलीम साहब की सोहबत नहीं चाहिए’ का मतलब है उनकी सोहबत खराब है या बिगाड़ने वाली है । क्यों बिगाड़ने वाली है, क्यों कि वह इस्लाम की बात करते हैं । ब्लाग के मेजबान ‘परम विद्वान’ अविनाश जी की सोहबत बड़ी भली है क्योंकि वह इसी ब्लाग पर कविता छाप रहे हैं कि ‘हमारे देवताओं को जननेन्द्री नहीं होती’ । लोगों के ज्ञान के साथ-साथ बड़ी सामाजिक समरसता बढ़ा रहे हैं अविनाश और सलीम इस्लाम के बारे में कुछ बता रहे हैं तो गुनाह कर रहे हैं । इस लिए मोहल्ले को उनकी सोहबत नहीं चाहिए, उन्हें बेदखल किया जाता है । उनके सभी लेखों को हटा दिया गया, उनका आईडी तक ब्लाक कर दिया गया जिसे बहाल करने की सलीम बार-बार गुजारिश कर रहे हैं । खुद मोहल्ला के कुछ टिप्पणीकार भी इस एक तरफा फैसले पर ऐतराज जता चुके हैं , पर अविनाश के कान पर जूं नहीं रेंग रही, क्योंकि वो इस मोहल्ले के ‘दादा’ हैं, दादागिरी चलती है उनकी यहां । जिसे चाहें रखें, जिसे चाहें तड़ीपार कर दें । अरे यार ! जरा दिमाग का दरवाजा खोलो, खिड़कियां खोलो । क्या समझते हो खुद को । क्या दिखाना चाहते हो यह सब करके कि कार्ल माक्र्स के बाद इस धरती पर तुम ही बचे हो महान । माक्र्स ने धर्म अफीम है, कह कर खुद को धर्म-कर्म के बंधन से उपर साबित किया था और माक्र्स के बाद अब तुम खुद को साबित कर रहे हो देवताओं को जननेन्द्री नहीं होती कह कर, मजहब की बात करने वाले सलीम को बेदखल करके । क्या समझते हो खुद को, किस ख्वामख्याली में जी रहे हो भाई ।
गौरतलब है कि सलीम को बेदखल करते वक्त कारण महज यह बताया गया कि उनका उद्देश्य इस्लाम का प्रचार करना है । यह नहीं कहा गया कि वह कोई आपत्तिजनक बातें कह रहे हैं या उनकी फलां-फलां बातें आपत्तिजनक हैं । अरे यार ! जननेन्द्री वाली कविताओं को छोड़ कर कभी-कभी कुछ और भी पढ़ लिया करो । सदियों पहलने रहीम कह गए थे कि -
कह रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग
चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ।
जरा इस दोहे से भी तो कुछ सीख लो सीख लो । जो धर्म की मजहब की बात कर रहा है, करने दो । तुम अपनी बात करो । जिसे उसकी पढ़नी होगी, उसकी पढ़ेगा । जिसे तुम्हारी पढ़नी है, तुम्हारी पढ़ेगा । क्या दिक्कत है इसमें । कुछ आपत्तिजनक बात करता है कोई, तो बेशक हटा दो उसका उल्लेख करते हुए, पूरा अधिकार है ब्लाग के मेजबान को, पर बेअदबी और मनमानी तो ठीक नहीं । सलीम कोई ओसामा बिन लादेन का यशोगान तो नहीं कर रहे थे, न ही इस्लाम के नाम पर अमेरिका पर एक और हमला करने का आह्वान कर रहे थे । चीजों की अपने धर्म के अनुसार व्याख्या कर रहे थे । अपने धर्म को युक्तिसंगत और महान बता रहे थे । वह तो हर कोई करता है । हिन्दू भी करता है, ईसाई भी करता है । तो महज इस्लाम के प्रचार का आरोप लगाकर किसी को निकालना उचित है क्या !
जरा अपने ब्लाग के नाम पर भी गौर करो भइया ! मोहल्ला । भई जहां तक हमने देखा है मोहल्ले में हर किस्म के, हर मजहब को मानने वाले लोग अपने-अपने तरीके से रहते हैं। मोहल्ले में मंदिर भी होता है, मस्जिद भी होती है । मंदिर में आरती-भजन, तो मस्जिद में अजान और नमाज होती है । तो अविनाश का यह कैसा मोहल्ला है जहां अजान की इजाजत नहीं । और क्यों नहीं ! जरा इसपर भी ठंडे दिमाग से गौर करो । अब बातें तो बहुत सी हैं, पर बात निकलेगी तो बहुत दूर तलक जाएगी। इसलिए फिलहाल इतना ही । इस गुजारिश के साथ कि यह सबकुछ किसी को नीचा दिखाने या कोरी आलोचना के लिए नहीं लिख रहा । महज चीजों को एक होलिस्टिक एप्रोच में, खुले दिमाग से देखने के लिए कह रहा हूं । इसके अलावा मेरी इस पोस्ट का कोई और मकसद न है, न समझा जाए ।

18 जून 2009

इस ‘सिरफुटव्वल’ का भी अपना ही मजा है

कल की मेरी पोस्ट ‘मुझे ‘चोर’ कहने का शुक्रिया ’ पर एक टिप्पणी आई है । टिप्पणी उन्हीं मित्र ‘समय’ की थी जिनकी टिप्पणी का जिक्र मैंने नाम लिए बिना किया । भले मानुष हैं, सो पुनः टिप्पणी भेजकर उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि ठेस पहुंचाना उनका उद्देश्य नहीं था । समय जी को संबोधित मौजूदा पोस्ट भी मैं महज इसीलिए लिख रहा हूं कि टिप्पणी का अनुकूल-प्रतिकूल होना मुद्दा नहीं है । हमने तो केवल दो तरफा संवाद के जरिए मुद्दे पर बहस को आगे बढ़ाने के लिए लिखा था और फिर उसी कवायद के तहत लिख रहे हैं ।
भाई समय जी ! आपने सीधे-सीधे शब्दों में क्षमा याचना कर जहां अपने बड़प्पन का परिचय दिया है, वहीं कहीं न कहीं मुझ में भी एक शर्मिंदगी के अहसास को उभारा है क्योंकि मैंने इस उद्देश्य से यह पोस्ट कत्तई नहीं लिखा था कि कोई मुझसे खेद प्रकट करे। न ही कोई व्यक्तिगत पीड़ा की बात थी । इसीलिए चोर शब्द का इस्तेमाल भी मैंने इनवर्टेड क्वामाज़ में विशेष अर्थों में ही किया था । मैंने तो दोनों ही टिप्पणीकारों को न कोई दोष दिया, उनके नाम का जिक्र तक नहीं किया था किया । महज इसलिए कि न तो मैं बात को व्यक्तिगत स्तर पर ले रहा था, न अपनी ओर से ले जाना चाहता था । उल्टे मैंने शुक्रिया अदा किया कि आपकी टिप्पणी के बहाने मेरी शुरू की बहस कहीं न कहीं आगे बढ़ी है । आपका कहना है कि आप का भी यही उद्देश्य था टिप्पणी के पीछे तो फिर ऐसे में हममे-आपमें कहां कोई विभेद या विरोध रह जाता है । अंतर केवल दृष्टिकोणों और समझ का है और मेरी समझ में नजरियों में यह फर्क होना अच्छी बात है । यह तो होना ही चाहिए । वर्ना हर आदमी एक ही लाइन पर सोचने लगे, एक ही राग गाने लगेगा तो विविधता और विचारों की नवीनता भला कहां रह जाएगी ।
मुझे व्यक्तिगत ठेस की ग्लानि आप अपने मन से निकाल दें क्योंकि मैं भी जानता हूं ऐसा उद्देश्य आपका नहीं रहा होगा । मैंने केवल इस बात पर आपत्ति जताई थी कि ‘पुरस्कार होंगे तो तिकड़में तो होंगी ही’ क्योंकि इस वाक्य से कहीं न कहीं इन तिकड़मों को स्वीकृति मिलती सी लग रही थी कि यह होगा तो वह तो होगा ही । हालांकि आपने इसकी व्याख्या मनुष्य की महत्वाकांक्षा और स्वाभाविक प्रवृत्तियों से जोड़ते हुए कुछ अलग ढंग से की है । भाई इस प्रवृत्ति पर ही तो मैं चोट करना चाहता था, यही तो मेरा आशय था कि हिन्दी की दुनिया में पुरस्कारों की तिकड़में बहुत ज्यादा हैं इसलिए नोबेल और बुकर जैसा पुरस्कार बनाया जाए जिसकी चयन प्रक्रिया में इन सबकी इतनी गुंजाइश ही न रह जाए । हालांकि यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि इन दोनों पुरस्कारों की चयन प्रक्रिया भी विवादों से पूरी तरह बरी नहीं है, पर वहां जोड़-तोड़ वैचारिक आग्रह-दुराग्रहों को लेकर ही ज्यादा होती है व्यक्तिगत आधार पर नहीं । जबकि इधर हिन्दी के पुरस्कारों में व्यक्तिगत लाबींग का काफी बोलबाला दिखता है । इसलिए मैंने यह बात कही थी ।
लेखन के उद्देश्यों की आपने जो बात की है मैंने उसका जिक्र जानबूझ कर इसलिए नहीं किया था कि यह अपने आपमें एक व्यापक बहस का विषय है । आपने लेखन का उद्देश्य स्वांतःसुखाय और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की अभिलाषा से परे होने की बात कही है, इससे मैं भी सौ फीसदी सहमत हूं कि आदर्श स्थिति तो यही है, बस थोड़ा अलग मैं यह कहता हूं कि यदि आदमी सम्मान की अभिलाषा में भी कुछ अच्छा लिख रहा है तो वह कोई अपराध नहीं कर रहा क्योंकि सम्मान की प्यास और लोगों के ध्यानाकर्षण की प्रवृत्ति मनुष्य के मूल स्वभाव में है । खैर ! जैसाकि मैंने कहाकि यह अपने आप में एक अलहदा और लंबी बहस है, फिर कभी । अंत में बस इतना ही कि आपको माफी मांगने या आत्मग्लानि की कोई आवश्यकता नहीं, उल्टे बहस को आगे बढ़ाने के लिए साधुवाद । जारी रखें ऐसा ही सार्थक संवाद क्योंकि ऐसे सवालों पर हम-आप जैसे लोग सिर टकराएंगे तभी तो यह मुद्दे उठेंगे, आकार लेंगे । इसलिए आओ प्यारे सिर टकराएं !

इस ‘सिरफुटव्वल’ का भी अपना ही मजा है

कल की मेरी पोस्ट ‘मुझे ‘चोर’ कहने का शुक्रिया ’ पर एक टिप्पणी आई है । टिप्पणी उन्हीं मित्र ‘समय’ की थी जिनकी टिप्पणी का जिक्र मैंने नाम लिए बिना किया । भले मानुष हैं, सो पुनः टिप्पणी भेजकर उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि ठेस पहुंचाना उनका उद्देश्य नहीं था । समय जी को संबोधित मौजूदा पोस्ट भी मैं महज इसीलिए लिख रहा हूं कि टिप्पणी का अनुकूल-प्रतिकूल होना मुद्दा नहीं है । हमने तो केवल दो तरफा संवाद के जरिए मुद्दे पर बहस को आगे बढ़ाने के लिए लिखा था और फिर उसी कवायद के तहत लिख रहे हैं ।
भाई समय जी ! आपने सीधे-सीधे शब्दों में क्षमा याचना कर जहां अपने बड़प्पन का परिचय दिया है, वहीं कहीं न कहीं मुझ में भी एक शर्मिंदगी के अहसास को उभारा है क्योंकि मैंने इस उद्देश्य से यह पोस्ट कत्तई नहीं लिखा था कि कोई मुझसे खेद प्रकट करे। न ही कोई व्यक्तिगत पीड़ा की बात थी । इसीलिए चोर शब्द का इस्तेमाल भी मैंने इनवर्टेड क्वामाज़ में विशेष अर्थों में ही किया था । मैंने तो दोनों ही टिप्पणीकारों को न कोई दोष दिया, उनके नाम का जिक्र तक नहीं किया था किया । महज इसलिए कि न तो मैं बात को व्यक्तिगत स्तर पर ले रहा था, न अपनी ओर से ले जाना चाहता था । उल्टे मैंने शुक्रिया अदा किया कि आपकी टिप्पणी के बहाने मेरी शुरू की बहस कहीं न कहीं आगे बढ़ी है । आपका कहना है कि आप का भी यही उद्देश्य था टिप्पणी के पीछे तो फिर ऐसे में हममे-आपमें कहां कोई विभेद या विरोध रह जाता है । अंतर केवल दृष्टिकोणों और समझ का है और मेरी समझ में नजरियों में यह फर्क होना अच्छी बात है । यह तो होना ही चाहिए । वर्ना हर आदमी एक ही लाइन पर सोचने लगे, एक ही राग गाने लगेगा तो विविधता और विचारों की नवीनता भला कहां रह जाएगी ।
मुझे व्यक्तिगत ठेस की ग्लानि आप अपने मन से निकाल दें क्योंकि मैं भी जानता हूं ऐसा उद्देश्य आपका नहीं रहा होगा । मैंने केवल इस बात पर आपत्ति जताई थी कि ‘पुरस्कार होंगे तो तिकड़में तो होंगी ही’ क्योंकि इस वाक्य से कहीं न कहीं इन तिकड़मों को स्वीकृति मिलती सी लग रही थी कि यह होगा तो वह तो होगा ही । हालांकि आपने इसकी व्याख्या मनुष्य की महत्वाकांक्षा और स्वाभाविक प्रवृत्तियों से जोड़ते हुए कुछ अलग ढंग से की है । भाई इस प्रवृत्ति पर ही तो मैं चोट करना चाहता था, यही तो मेरा आशय था कि हिन्दी की दुनिया में पुरस्कारों की तिकड़में बहुत ज्यादा हैं इसलिए नोबेल और बुकर जैसा पुरस्कार बनाया जाए जिसकी चयन प्रक्रिया में इन सबकी इतनी गुंजाइश ही न रह जाए । हालांकि यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि इन दोनों पुरस्कारों की चयन प्रक्रिया भी विवादों से पूरी तरह बरी नहीं है, पर वहां जोड़-तोड़ वैचारिक आग्रह-दुराग्रहों को लेकर ही ज्यादा होती है व्यक्तिगत आधार पर नहीं । जबकि इधर हिन्दी के पुरस्कारों में व्यक्तिगत लाबींग का काफी बोलबाला दिखता है । इसलिए मैंने यह बात कही थी ।
लेखन के उद्देश्यों की आपने जो बात की है मैंने उसका जिक्र जानबूझ कर इसलिए नहीं किया था कि यह अपने आपमें एक व्यापक बहस का विषय है । आपने लेखन का उद्देश्य स्वांतःसुखाय और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की अभिलाषा से परे होने की बात कही है, इससे मैं भी सौ फीसदी सहमत हूं कि आदर्श स्थिति तो यही है, बस थोड़ा अलग मैं यह कहता हूं कि यदि आदमी सम्मान की अभिलाषा में भी कुछ अच्छा लिख रहा है तो वह कोई अपराध नहीं कर रहा क्योंकि सम्मान की प्यास और लोगों के ध्यानाकर्षण की प्रवृत्ति मनुष्य के मूल स्वभाव में है । खैर ! जैसाकि मैंने कहाकि यह अपने आप में एक अलहदा और लंबी बहस है, फिर कभी । अंत में बस इतना ही कि आपको माफी मांगने या आत्मग्लानि की कोई आवश्यकता नहीं, उल्टे बहस को आगे बढ़ाने के लिए साधुवाद । जारी रखें ऐसा ही सार्थक संवाद क्योंकि ऐसे सवालों पर हम-आप जैसे लोग सिर टकराएंगे तभी तो यह मुद्दे उठेंगे, आकार लेंगे । इसलिए आओ प्यारे सिर टकराएं !

17 जून 2009

मुझे ‘चोर’ कहने का शुक्रिया

दो-चार दिन पहले की ही बात है । अपने ब्लाग पर आयी टिप्पणियां देख रहा था । चिरकुटों के चंगुल में हिन्दी शीर्षक से लिखी गई लेखमाला की तीसरी और अंतिम कड़ी पर आई दो टिप्पणियां कुछ ‘अलग’ सी दिखीं । अलग सी इसलिए कह रहा हूं कि अच्छा-बुरा, सही-गलत कहना मेरे लिए ठीक नहीं होगा । ब्लाग में मैने अपने विचार रखे तो कमेंट करने वालों ने अपनी बात कहीं । अब इसपर सहमति-असहमति तो हो सकती है, पर अपनी बात को सही और दूसरे की बात को गलत कहना अनुचित ही नहीं अलोकतांत्रिक भी होगा और फिर ब्लाग खोल रखा है तो अनुकूल-प्रतिकूल सभी कुछ देखने-बर्दाश्त करने का माद्दा रखना चाहिए । इसी के मद्देनजर मैं चार-पांच दिन इन दोनों टिप्पणियों पर कुछ कहने से बचता रहा कि तात्कालिक प्रक्रिया या आवेग में कुछ बेजा न लिख बैठूं । मैंने खुद को हफ्ते भर का समय भी दे दिया कि सप्ताह भर बाद फिर इन टिप्पणियों को देखूंगा और फिर इस पर कुछ लिखने की जरूरत महसूस हुई तो ठंडे और सुलझे दिमाग से लिखा जाएगा ।
शायद अपने खड़े किए इस संयम के बांध का ही यह नतीजा है कि दो महाशयों द्वारा खुद मुझे ही कठघरे में खड़ा किये जाने पर भी मैं उनसे झगड़ने के बजाय उनका शुक्रिया अदा करना चाह रहा हूं । शुक्रिया, दबे-छिपे मुझे ‘चोर’ कहने का । जो हुआ, एक तरह से ठीक ही हुआ कि दोनों साथियों के मन का गुबार भी निकल गया और मेरी बात भी आगे बढ़ गई । दरअसल अपनी इस लेखमाला में मैंने हिन्दी की दुर्दशा के व्यावहारिक कारणों की पड़ताल और चर्चा करने का प्रयास किया था । हिन्दी अखबारों, पत्रिकाओं में होने वाले ओछेपन, बड़े लेखकों की तंगदिली, से होती हुई चर्चा पहंुची थी हिन्दी में नोबेल और बुकर जैसा बड़ी इनाम राशि वाला कोई पुरस्कार न होने पर पहुंची थी। इसके अलावा मौजूदा पुरस्कारों के लिए होने वाली तिकड़मों का जिक्र भी मैने किया था ।
मेरा कहना था कि हम हिन्दी वालों को भी मिलकर एक ऐसा पुरस्कार शुरू करना चाहिए । क्योंकि पुरस्कार से जुड़ा सम्मान अपनी जगह होता है, पर उसकी धनराशि का भी अपना महत्व होता है । मैंने उदाहरण दिया था कि अपना पहला और एकमात्र उपन्यास गाड आफ स्माल थिक्स लिखकर ही अरुंधती राय को बुकर पुरस्कार में इतने पैसे मिल गए कि उन्हें कम से कम आजीविका के लिए संघर्ष करने की जरूरत नहीं और वह चाहें तो रोटी की जद्दोजहद से बेफिक्र होकर पूरी तल्लीनता से रचना कर्म में खुद को डुबो सकती हैं । अब मेरा यह सुझाव एक महाशय को न जाने क्यों इतना नागवार गुजर गया मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं । अपनी टिप्पणी में उन्होंने लिखा है कि ‘ पुरस्कार होंगे तो तिकड़म तो होगी ही । पुरस्कारों की चर्चा करते-करते आप भी आखिरकार पुरस्कार के चक्कर में पड़ गए’ ।
अरे भइया ! कौन सा पुरस्कार मांग लिया मैंने आपसे या किसी से यह बात कह कर, जरा बताइये तो सही ! और अगर आप यह कहना चाह रहे हैं कि मैं यह सब कोई पुरस्कार पाने के लिए लिख रहा हूं तो भई जरा बताइये कि लेख की किस पंक्ति, किस शब्द से आप इस निष्कर्ष पर पहुंचे, कहां से मिला आपको यह ‘महाज्ञान’ । चलिए इसपर अपनी आपत्ति को दरकिनार करते हुए यह भी मान लिया जाए कि मैं पुरस्कार के लिए लिख रहा हूं तो इसमें कौन सा गुनाह है बड़े भाई ! आदमी अगर समाज में सम्मान चाहता है, अपने कृतित्व के जरिए तो उसे भी आप कुफ्र साबित करने पर क्यों तुले हैं । स्वाभिमान और सम्मान की यह प्यास ही तो आदमी को आदमी बनाती है । वर्ना दोपाये-चैपाये में फर्क ही क्या है हुजूर !
अब आते हैं दूसरे सज्जन की टिप्पणी पर । नाम इनका भी नहीं लूंगा क्योंकि इनसे भी कोई विरोध या वैमनस्य नहीं है मेरा, मात्र वैचारिक असहमति जताना चाहता हूं । डाक्टरेटधारी इन भाई साहब ने लिखा कि ‘बोल बाबा की जय, ये तिकड़म-तिकड़म क्या है ! जिसने पाया, उसने जाना’ । इनका कमेंट था पुरस्कारों के लिए की जाने वाली तिकड़मों पर कही गई मेरी बात पर ! पढ़कर गुस्सा बाद में आया, हंसी पहले, वह भी भरपूर । बोल बाबा की जय - - - क्या मदारीपना है यह ! जिसने पाया उसने जाना तो भई ठीक है कल को रिश्वत लेने वाला भी कह देगा कि बोल बाबा की जय जिसने पाया, उसने जाना, यह भ्रष्टाचार-वष्टाचार क्या है !
आखिरकार एकबार फिर वही बात कहना चाहूंगा कि यह पोस्ट मैं इन टिप्पणियों पर आपत्ति जताने के लिए नहीं लिख रहा हूं । यह सब तो ब्लागिंग का हिस्सा है, चलता रहता है । मेरा ऐतराज इस बात को मान्यता देने से है कि पुरस्कार होंगे तो तिकड़म तो होगी ही । अरे भाई पुरस्कारों को प्रतिभा से जोड़िये, सृजनात्मकता से जोड़िये, विचारों की नवीनता से जोड़िये । तिकड़म से क्यों उसका ‘नैसर्गिक संबंध’ स्थापित कर रहे हैं । इसके अलावा पुरस्कारों के लिए होने वाली तिकड़म को यह कह कर दरकिनार कर देना कि यह तिकड़म-विकड़म क्या है, जिसने पाया, उसने जाना, मेरी समझ से हास्यास्पद ही नहीं समस्या से मुंह चुराने जैसा । ठीक उसी तरह जैसे खतरा दिखने पर शुतुमुर्ग रेत में अपना सिर गाड़ लेता है, खुदको बचाने का उपाय करने के बजाए । तो ऐसा शुतुमुर्गी खेल मत खेलिए भाई लोग ।

16 जून 2009

अविनाश का यह पाखंड !

परसों मोहल्ला से भेजा गया अविनाश का एक पोस्ट ब्लागवाणी पर देखा । ‘बेढंगे कपड़े पहनना, मुसीबत को बुलावा’ या ऐसे ही किसी शीर्षक से मोहल्ला पर पूर्व में प्रदर्शित एक पोस्ट के बारे में थी यह पोस्ट । अविनाश ने इस पोस्ट को फालतू करार देते हुए इसे मोहल्ला से बेदखल करने का निर्णय सुनाया था । कुछ इस अंदाज में कि मैं यहां का राजा हूं, तुम्हारी बातें मुझे पसंद नहीं आई, लो देश निकाला । उक्त पोस्ट को पूरा पढ़ा तो मैंने भी नहीं था, क्योंकि हेडिंग से ही इसमें एक वैचारिक सस्तापन नजर आया था । पर मेरे पढ़ने न पढ़ने की बात अलग है क्योंकि यह न तो मेरे ब्लाग पर आया था न ही मैने इसे हटाने की घोषणा की थी ।
बहरहाल! यहां मुद्दा है पोस्ट को ‘फालतू’ करार देकर किसी ब्लागर को अपमानजनक ढंग से बाहर कर देने की । हेडिंग से ही आभास होता हैे कि पोस्ट में लड़कियों को चुस्त और छोटे कपड़े न पहनने की नसीहत देते हुए लड़कियों के ‘बेढंगे’ पहनावे को ही छेड़खानी आदि की वजह बताया गया होगा । ठीक है कि वैचारिक स्तर पर यह बात सस्ती लगती है और इसे सामाजिक रूप से मान्यता नहीं दी जा सकती । पर यहां इसे मान्यता देने का तो कोई सवाल ही नहीं था । सीधी सी बात थी अविनाश ने मोहल्ला पर लोगों को खुद ही अपने विचार व्यक्त करने की दावत दे रखी है । इसी के तहत एक आदमी ने अपने विचार व्यक्त किए । अब जरूरी तो नहीं कि यह आपकी सोच के अनुरूप हो और अगर यही आपका एटीट्यूट है तो फिर काहे को लोगों को बुलाते हो भई विचार व्यक्त करने को । खुद लिखते रहो अगड़म-बगड़म और अपने को मानते रहो ‘बड़का बुद्धिजीवी’ । रही बात पोस्ट को बेहूदा करार देने की तो अविनाश खुद जो लिखते-पेश करते रहते हैं वह भी अकसर कम बेहूदा नहीं होता । कुछ दिन पहले अविनाश ने ज्ञानोदय में छपी एक कविता पेश की कि ‘हमारे देवताओं को जननेद्री नहीं होती’ । ज्ञानोदय में यह कविता मैने भी पढ़ी थी और मुझे भी पसंद आई थी । पर हमारे देश का जो मानस है उसमें बहुत से लोगों को यह आपत्तिजनक ही नहीं, भड़काउ भी लग सकती है, इसके बावजूद अविनाश ने इसे ब्लाग पर पेश किया । दूसरी ओर बेढंगे कपड़ों की बात को उन्होंने बेहूदा करार दे दिया, जबकि सामाजिकता और व्यावहारिकता के लिहाज से देखें तो इस बात को सिरे से दरकिनार नहीं किया जा सकता । हमारे देश में शिक्षा को जो स्तर है, लोगों की संकुचित सोच और संकीर्ण संस्कार है, इससे भी बढ़कर दोहरा चरित्र है, उसके मद्देनजर तो यह एक व्यावहारिक ठहरती हैं । कहीं न कहीं एक सामाजिक हकीकत तो है ही इसमें । लड़कियों के रात में घर से बाहर निकलने को लेकर भी ऐसी ही सोच है हमारे समाज में कि रात में बाहर मत निकलो, अकेले तो कतई नहीं । अब इस बात को ठीक भले न माना जा सकता हो पर इससे जुड़े खतरों को अनदेखा तो नहीं किया जा सकता । एक ओर दिल्ली, मुंबई, बंगलोर, चंडीगढ़ जैसे महानगरों में बड़ी सख्या में लड़कियां काॅल सेंटर जैसी लाइन में नाइट शिफ्ट में काम करती हैं । इससे इतर भी देश की एक अपनी हकीकत है और यह हकीकत इस खुशनुमा तस्वीर से कहीं बड़ी है कि देश में आमतौर पर पढ़े-लिखे लोगों के घरों में भी लोग आम तौर पर लड़कियों को रात में बाहर जाने देने से हिचकिचाते हैं । तो इसे आप एक ‘बेहूदा विचार’ कह कर लिखने वाले को अपमानित करो, यह तो निरी तानाशाही है, कोरा पाखंड है। भई पहले जरा अपने गिरेबान में झांको कि तुम क्या लिखते रहते हो उल्टा-सीधा, खुद को नारीवादी, उत्तर-आधुनिक साबित करने के लिए । खुद को राजेन्द्र यादव के टक्कर का साबित करने के लिए लोगों की धार्मिक आस्थाओं को आहत करने से भी नहीं चूकते और दूसरों की व्यावहारिक बात को भी इस बदतमीजी के साथ बेहूदा और फालतू करार देते हो । क्या फालतू है, क्या अच्छा, पढ़ने को खुद ही फैसला करने दो । आयोजक की भूमिका में रहो, न्यायाधीश क्यों बन रहे हो भई ! और यदि सोच का दायरा इतना ही संकरा है तो फिर ऐसा इंतजाम करो कि पोस्ट को देखने के बाद ही उसे ब्लाग पर प्रकाशित करो । प्रकाशित करने के बाद उसे बेहूदा करार देने की बात शोभा नहीं देती, खासकर उस आदमी पर जो आए दिन खुद ही बेहद फालतू की चीजे लिखता रहता है, उस आदमी पर जिसे माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय और दैनिक भास्कर से - - - । खैर ! जाने दीजिए व्यक्तिगत मामलों पर मैं उतरना नहीं चाहता । कहना बस इतना ही है कि दूसरों को आईना दिखाने से पहले अविनाश आईने में अपना चेहरा देखें ।

13 जून 2009

ठीक कहा था डार्विन तुमने

ठीक कहा था डार्विन तुमने,
सदियों पहले, ठीक कहा था ।
विज्ञान की आड़ में छुप कर,
समाज का गहरा-नंगा सच ।

दुरुस्त थीं सौ फीसदी,
अनुकूलन-प्राकृतिक चयन की
तुम्हारी दोनों ही अवधारणाएं
और सटीक था एकदम
योग्यतम की उत्तरजीविता का
वह विश्वव्यापी सिद्धांत ।

फलसफा कि जीने के लिए
चुना जाता है उन्हीं को बस
जो होते हैं समाज में ‘योग्यतम’ ।
कि ‘योग्यता’ ही तो बन गया है आज
मेमने की खाल ओढ़कर बैठ जाना,
आदमी होकर भी भेड़ सरीखा मिमियाना ।

हंसते-खेलते सीख ले जो
मिमियाने की यह कला ।
वही है सबसे क़ाबिल
वही है सबसे ‘अनुकूल’।
उसी को चुनेगी ‘व्यवस्था’
उसी को देगी फूल ।

उसी को चुनेगी ‘व्यवस्था’
कि खालिस आदमी चुनने में
छिपे पड़े हैं खतरे बेशुमार ।
खतरा आवाज उठाने जाने का,
खतरा अपना दिमाग चलाने का
और इस सबसे कहीं बढ़कर
खतरा खुद काबिज हो जाने का ।
इसीलिए आदमी से मेमना ही भला है।
वाकई ‘अनुकूलन’ ही आज
आदमी की सबसे बड़ी कला है ।

पूजा भी बनी प्रमोशनल इवेंट !

अखबार में छपी कुछ तस्वीरों ने बरबस ही आकर्षित किया । तस्वीरें थीं हालीवुड की सुपर माॅडल क्लाउडिया की । अरे गलत मत सोचिए भाई ! बिकिनी-स्वीमिंग कास्ट्यूम में देह उधाड़ू फोटो सेशन की नहीं थीं यह तस्वीरें । इस सबके उलट क्लाउडिया साड़ी में ढकी-मुंदी सी नजर आ रही थीं । यही नहीं हाथ में पूजा का थाल भी था । दिल्ली में अपनी फिल्म कर्मा की शूटिंग के लिए आई क्लाउडिया पहुंचीं थीं गणेश जी के मंदिर में । एक फोटो आरती उतारते हुए । एक घंटी बजाते हुए और एक बच्चों को प्रसाद बांटते हुए । पूरी तरह भारतीय संस्कृति के रंग में रंगी नजर आ रही थी यह सुपर माॅडल । क्या कहेंगे आप इस पर ! यही न, कि हमारी संस्कृति का प्रभाव है ही ऐसा कि जो भी जो भी आता है इसके रंग में रंग जाता है । बस यहीं मात खा गए जनाब ! कोई संस्कृति और अध्यात्म का रंग-वंग नहीं है यहां । मामला पूरी तरह प्रोफेशनल है । दरअसल यह फिल्म निर्माताओं द्वारा आयोजित एक प्रमोशनल इवेंट था । तो भई ! नाच-गाने, फैशन शो, फोटो सेशन और प्रेस कांफें्रस के बाद अब पूजा-अर्चना भी प्रमोशनल इवेंट बन गई ।
ये विज्ञापन और पीआर वाले जो करें सो कम जानिए । इन्हें अच्छी तरह पता है कि आदमी की भावनाओं को छुओ तो बात दिल तक असर करेगी । उन्हें पता है कि धर्म-अध्यात्म, मंदिर, पूजा, प्रसाद, घंटी, आरती यह सब चीजें हमारे देश की बहुसंख्यक आबादी के दिमाग ही नहीं दिल और आत्मा से जुड़ी चीजें हैं । सो, इसी निशाने पर ‘मार’ करने के लिए किया गया ‘प्रमोशनल पूजा’ का आयोजन । पुरानी कहावत है कि जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो दूसरे को क्या दोष दें । वही बात यहां भी लागू होती है । यह कम से कम बेचारी क्लाडिया का आइडिया तो नहीं रहा होगा । फिल्म के प्रचार प्रसार से जुड़े हमारे किसी भारतीय पब्लिसिटी गुरू के दिमाग में ही उपजा होगा यह ‘नेक ख्याल’ । इस पर तुर्रा यह कि आलोचना कीजिए तो कहेंगे कि हमतो भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं । विदेशियों तक को इसके रंग में सराबोर कर रहे हैं । इससे हालीवुड तक बिखर जाएगी हमारी संस्कृति की सुगंध । ज्यादा कहिएगा तो पूजा के बाद पांच हजार भूखे-नंगों को प्रसाद बंटवा देंगे, लंगर खिलवा देंगे । हो गया न आपका मुंह बंद ! बोलिए अब क्या बोलियेगा ! तो इस तरह काम करता है इनका तंत्र । पैसा, संस्कृति, रुतबा, सेटिंग सबकुछ है इनके पिटारे में । जहां जैसी जरूरत पड़ी मुंह पर फेक कर करा देंगे बोलती बंद । आजकल भगवान से भी बढ़कर है इनकी महिमा ।

12 जून 2009

ठीक कहा था डार्विन

ठीक कहा था डार्विन तुमने,
सदियों पहले, ठीक कहा था ।
विज्ञान की आड़ में छुप कर,
समाज का गहरा-नंगा सच ।

दुरुस्त थीं सौ फीसदी,
अनुकूलन-प्राकृतिक चयन की
तुम्हारी दोनों ही अवधारणाएं
और सटीक था एकदम
योग्यतम की उत्तरजीविता का
वह विश्वव्यापी सिद्धांत ।

फलसफा कि जीने के लिए
चुना जाता है उन्हीं को बस
जो होते हैं समाज में ‘योग्यतम’ ।
कि ‘योग्यता’ ही तो बन गया है आज
मेमने की खाल ओढ़कर बैठ जाना,
आदमी होकर भी भेड़ सरीखा मिमियाना ।

हंसते-खेलते सीख ले जो
मिमियाने की यह कला ।
वही है सबसे क़ाबिल
वही है सबसे ‘अनुकूल’ ।
उसी को चुनेगी ‘व्यवस्था’
उसी को देगी फूल ।

उसी को चुनेगी ‘व्यवस्था’
कि खालिस आदमी चुनने में
छिपे पड़े हैं खतरे बेशुमार ।
खतरा आवाज उठाने जाने का,
खतरा अपना दिमाग चलाने का
और इस सबसे कहीं बढ़कर
खतरा खुद काबिज हो जाने का ।
इसीलिए आदमी से मेमना ही भला है।
वाकई ‘अनुकूलन’ ही आज
आदमी की सबसे बड़ी कला है ।

11 जून 2009

बहस को गलत दिशा में मत मोड़िये हुजूर

भई मसिजीवी जी ! बातों को गलत आलोक में न लें । न तो महिलाओं के लिए विधायिका में आरक्षण का मैं विरोध कर रहा हूं न ही यह कह रहा हूं कि विनय कटियार जो कह रहे हैं वही शब्दशः सही है और वही होना चाहिए । मैंने महज यह सवाल उठाया है कि इसका असल लाभ महिलाओं के किस वर्ग को मिलेगा । बात को होलिस्टिक एप्रोच से देखा जाए तो कहने का तात्पर्य महज इतना है कि महिला सशक्तीकरण की सारी कवायदें इस तरह होनी चाहिए कि इसका लाभ महज ऐसे वर्ग तक सीमित न रह जाए जो पहले से ही सक्षम और संपन्न है, बल्कि ऐसी जरूरतमंद महिलाओं तक पहुंचे जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा दरकार है । बात को और सरलीकृत करू तो मान लीजिए कि मिठाई बंटनी है तो वितरण की प्रक्रिया शुरू करने से पहले ही ऐसे उपाय कर दिए जाएं कि पहले लड्डू उनको मिलें जिन्हें अबतक नहीं मिले हैं नकि उनको जो पहले से ही दर्जन भर हजम कर चुके हैं और फिर लाइन में खड़े हो गए है । व्यावहारिक रूप में ऐसा होने की संभावना ही ज्यादा रहती है क्योंकि पहले लड्डू पाने वाले उसे पाने की कला से परिचित और सिद्धहस्त होते हैं । ऐसे में वितरण के लाभ में उनके भी शुमार हो जाने से कहीं न कहीं जरूरतमंदों का हक मारा जाएगा । बस इतना ही आशय है हमारा भाई, वर्ना कौन सा हम चुनाव लड़ने जा रहे हैं कि महिलाओं के लिए कोई सीट आरक्षित हो जाएगी तो हमारा टिकट कट जाएगा । रही बात आपके सवाल की कि कब कौन सी सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हुई तो कहना महज इतना है कि हम कोई लिस्ट लेकर नहीं बैठै हैं भई । एससी-एसटी के लिए कुछ सीटें आरक्षित हैं वही भी बदलती रहती हैं, जहां तक हमें याद पड़ता है कि इसी आरक्षण के भीतर कुछ सीटें संभवतः महिलाओं के लिए भी थीं । या चलिए मेरी याददाश्त में खामी भी हो सकती है तो विधानसभा, लोकसभा की बात छोड़ दें, नगर निगम और पंचायत में तो महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित थीं । इससे समाज में क्या बदलाव आया । मेरे अपने वार्ड में सीट आरक्षित थी तो हुआ यह कि सभी पुराने उम्मीदवारों ने अपनी पत्नियों से पर्चे भरवा दिए । प्रचार से लेकर चुनावी संग्राम तक पतिदेव ही हावी रहे । चुनाव के पोस्टरों तक पर उम्मीरवार पत्नी का नाम बहुत छोटे अक्षरों में था फोटो में पतिदेव ही हाथ जोड़े-मुस्कराते नजर आ रहे थे । नाम भी उनका ही चमक रहा था । पुराने पार्षद की पत्नी के चुनाव जीतने के बाद भी यही जारी रहा । पत्नी महज कागजों पर पार्षद थी, कागजों पर दस्तखत करने भर को उसमें भी इंकार का विकल्प उस बेचारी के पास नहीं था । क्या यह किसी लोकतांत्रिक सुधार प्रक्रिया के साथ मजाक नहीं हुआ ! लालू-राबड़ी का उदाहरण भी इसी की इन्तेहा को दर्शाने के लिए मैने दिया, नकि इसके जरिए यह कहा कि महिलाओं को आरक्षण देना एक फालतू बात है, इससे कोई लाभ नहीं होगा । लाभ क्यों नहीं होगा भाई, जरूर होगा, जरूर मिलना चाहिए महिलाओं को आरक्षण और 33 प्रतिशत क्यों आधी आबादी को 50 फीसदी आरक्षण दीजिए । बस इतना सुनिश्चित कर लीजिए कि इसका फायदा समाज के निचले तबके तक पहुंच जाए क्योंकि तभी समानता आधारित समाज का हम निर्माण कर पाएंगे । इसलिए हे मसिजीवी ! तथ्यों और विवेचनाओं को लेकर बहस को गलत दिशा में मत मोड़ें क्योंकि सामाजिक सच्चाइयों को इस तरह नकारा नहीं जा सकता
‘किस वर्ग की महिलाएं आएंगी’ यह तर्क फूहड़ है और ‘जो पुरुष आ रहे हैं किस वर्ग से आ रहे हैं’ के जरिये क्या कहना चाह रहे हैं आप ! कि व्यवस्था में जो खामी वर्तमान में बनी हुई है वह आगे किए जाने वाले प्रावधानों और सुधारों में भी बनी रहे । जिस वर्ग के पुरुष आ रहे हैं ज्यादातर ठीक नहंी आ रहे हैं, यह बात तो सभी मानते हैं और इसमें सुधार की जरूरत भी शिद्दत से महसूस करते हैं । आश्चर्य है ! आप नए प्रावधानों में भी इसे जारी रखने की हिमायत कर रहे हैं यह कह कर कि अभी जो हो रहा है वह कौन सा सही है! तो आगे भी गलत होने दीजिए ! दूसरी बात तो अपने आप में विरोधाभासी है कि सांसद-विधायक अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने आएंगे लैंगिकता का नहीं । अरे भाई लैंगिकता के आधार पर आधारित सीट से अगर जीतकर आएंगे तो क्या यह लैंगिकता का प्रतिनिधित्व नहीं होगा तीसरी बात पासवान और यादव त्रयी की । इनको आप रोल माडल के रूप में पेश कर रहे हैं! कि खाने-अघाने के बाद भी यह दलितों के प्रतिनिधित्व का दावा कर रहे हैं तो आप
भी यही बेशर्मी करें । युक्तिसंगत तो यही है कि अबतक की व्यवस्थाओं में जो कमियां रह गई हैं वह आगे के सुधारों में जड़ न जमाने पाएं हमारा तो यही मानना है भाई । बाकी आपकी बौद्किता और आपकी व्याख्या आप ही जाने ।

महिला बिल पर बेवजह नहीं है तकरार

महिला आरक्षण बिल पर रार और तकरार दोनों ही बढ़ती जा रही हैं । महिलाओं को समाज में, सियासत में, सत्ता में आगे लाने की बात हर दृष्टि, हर लिहाज से सही है । इसका विरोध न किया जाना चाहिए न हो रहा है । पर बिल के स्वरूप और उसके प्रभाव-कुप्रभाव को लेकर गर्मागर्मी जारी है । भाजपा के फायरब्रांड महासचिव विनय कटियार ने भी बिल के विरोध में ताल ठोक दी है । आमतौर पर भड़काउू और बेमतलब की बात करने वाले कटियार की बात पहली बार मुझे दमदार लग रही है । कटियार ने दो बातें कही हैं । पहली यह कि महिला बिल पर पार्टियां व्हिप जारी न करें । दूसरी बात कि इस बिल से फायदा केवल सत्ता के गलियारों में दखल रखने वाली महिलाओं को ही फायदा मिलेगा । दिनभर पसीना बहाकर मछलियां पकड़ने वाली, चूल्हा जलाने को दुर्गम पहाड़ों पर लकड़िया चुनने वाली, रेगिस्तान में मीलों चल कर पानी भरने वाली महिलाओं को भला इससे क्या फायदा होगा !
पहले पहली बात । बिल पर वोटिंग के लिए व्हिप न जारी करने की बात इस लिहाज से दुरुस्त लगती है कि महज व्यवस्थागत और वैधानिक मुद्दे से बढ़कर यह एक सामाजिक मुद्दा है इसलिए इस पर पार्टी व्हिप के बंधन के बजाए हरेक की अपनी वैचारिक सहमति और अंतरात्मा की आवाज पर ही वोटिंग होनी चाहिए । वीमेन लिबरेशन के पैरोकार बेशक मुझे बेवकूफ करार देकर, इसपर मुझे लानतें भेज सकते हैं कि जिस सदन में पुरुषों का बहुमत है, वहां अंतरात्मा की आवाज पर महिला बिल भला कैसे पास हो सकेगा । पर मेरा कहना है कि जब आखिर महिला आरक्षण का विचार, बिल की रूपरेखा और उसे पेश करने की सारी कवायद तो इसी व्यवस्था के तहत हुई है तो फिर बिल पास क्यों नहीं हो सकता । इससे पहले भी स्थानीय निकायों से लेकर लोकसभा तक के चुनावों में चुनिंदा सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होती रही हैं । जिस व्यवस्था में इतना सबकुछ हो सकता है उसमें महिला बिल भी पास हो जाने में कोई दिक्कत नहीं नजर आती ।
दूसरी बात है कि इससे लाभ किसे मिलेगा । वास्तव में मुद्दे की बात यही है । विनय कटियार ने जिंदगी की जंग में रोज ब रोज जूझ रही सुदूर अंचलों की महिलाओं का उदाहरण दिया है । इसे छोड़ दें और हमारे अपने बीच की बात करें तो पाएंगे कि आरक्षण जब भी जिसे भी दिया गया उसका दुरोपयोग ही हुआ है और नकारात्मक नतीजे ही सामने आए हैं । जातिगत आरक्षण का फायदा आज भी महज उस वर्ग के पढ़े-लिखे और संपन्न लोग ही उठा रहे हैंे । एससी-एसटी आइएएस, पीसीएस, डाक्टर, इंजीनियर और कोटे के चलते नौकरी पाने वाले अन्य नौकरी पेशा लोगों की संताने ही इसके कारण शिक्षा और कैरियर दोनों क्षेत्रों में लाभान्वित हुई हैं । जूता गांठ रहे मोची, मछुआरे, मेहतर, सब्जीवाले, महरिन, कुम्हार जैसे काम करने वाले आज भी वहीं के वहीं बैठे जिंदगी की जद्दोजहद उसी तरह झेल रहे हैं जैसे वर्षों पहले झेल रहे हैं । सियासत में आरक्षण का भी यही हश्र हुआ । नगर निकायों और पंचायत के चुनावों में जो सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गईं उनका क्या हुआ । पिछली बार जो लोग मैदान में थे उन्होंने अपनी पत्नियों को खड़ कर दिया मुखौटा बनाकर । चुनाव पत्नी ने जीता पर असली प्रधान और सभासद पतिदेव ही हैं । पत्नी केवल कागजों पर दस्तखत करती है । लालू यादव के चारा घोटाले में आरोपित होने पर राबड़ी देवी के मुख्यमंत्री बनने सरीखा ही है यह सब । इसलिए महिला बिल पास हो जाने से समाज में जो बदलाव होने चाहिए ठीक वैसे ही परिवर्तन हो जाएंगे ऐसा मान लेना कहीं न कहीं हमारी नादानी होगी । मेरी समझ में आरक्षण से लाभ कम और नुकसान ज्यादा होते हैं इस मायने में कि सही लोगों तक इसका फायदा बिरले ही पहुंचता है और अवांक्षित लोगों के लाभान्वित होने से समाज में विषमता और दरार घटने के बजाय बढ़ती ही है ।

10 जून 2009

यह चीन की बदमाशी तो नहीं !

सुबह अखबार के पहले पन्ने पर खबर पढ़ी कि ‘वायुसेना के दो विमान अरुणाचल के जंगलों में गायब’ । वायुसेना के अधिकारियों के हवाले से समाचार में किसी तकनीकी खामी के चलते विमान के दुर्घटनाग्रस्त होकर जंगल में गिर जाने की आशंका जताई गई है । साथ ही अधिकारियों का यह भी कहना था कि मौसम खराब होने के चलते विमान की तलाश का अभियान नहीं चलाया जा सका । खबर के जरिए कुल मिलाकर जो मामला सामने आता है वह कहीं न कहीं संदेहजनक लगता है । मन में पहली शंका यही उठती है कि कहीं यह चीन का काम तो नहीं !
शंका की वजह यह है कि चीन अकसर ऐसी हरकतें करता रहता है और हमारी सरकार जाने क्यों ऐसे मामलों केा दबाने में ही भलाई समझती है । चीन के खतरनाक इरादे केवल आए दिन होने वाली ऐसी घटनाओं तक ही सीमित नहीं हैं । सीमांत क्षेत्र में वह कई ऐसी योजनाएं भी चला रहा है जो आगे चल कर निश्चित रूप से कहीं न कहीं हमारे देश की संप्रभुता के लिए खतरा बन सकती हैं ।
पिछले साल ओलंपिक के आयोजन की आड़ में चीन ने हिमालय की सीमावर्ती चोटियों तक एक राजमार्ग तैयार कर लिया और ओलंपिक की मशाल को यहां से गुजारा । इसके अलावा वह ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाने की महत्वाकांक्षी परियोजना भी बना रहा है जिससे निश्चित तौर पर भारत के हित प्रभावित होंगे । फिरभी इन मामलों पर भारत सरकार कभी मुखर होने या मामला अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाने की जहमत नहीं उठाई । दूसरी ओर भारतीय सीमा सड़क संगठन जब कभी भी सीमावर्ती इलाके में अपनी वर्षों पुरानी सड़कों की मरम्मत करने पहुंचता है, चीनी फौज न सिर्फ गोलीबारी शुरू कर देती है, बल्कि चीन सरकार सारी दुनिया में हाय-तौबा मचाना शुरू कर देती है ।
चीन के इस प्रोपोगंडे की इंतेहा का आलम तो यह रहा कि एक-दो महीने पहले राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर गईं तो उसने बाकायदा पत्र लिखकर इसपर भारत सरकार से स्पष्टीकरण मांग लिया । यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं, बहुत बड़ी बात थी, पर हमारी सरकार ने इसका जो जवाब दिया वह न केलव ‘ठंडा’ बल्कि बचकाना सा भी लगा । भारत सरकार ने महज इतना कहा कि चीन की यह चिंता ‘गैर-जरूरी’ है । मेरी समझ में कहा यह जाना चाहिए था कि हमारे देश का राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या कोई भी नागरिक देश में कहीं भी आ-जा सकता है, आप पूछने वाले कौन होते है ! ऐसे ‘फरमान’ चीन आए दिन जारी कर भारत से स्पष्टीकरण मांगता रहता है और हर बार हमारी सरकार मामले को जैसे-तैसे के अंदाज में निपटा देती है । सरकार के इस ढुलमुल रवैये के चलते ही हवाई जहाज गायब होने के मामले में चीन का हाथ होने की आशंका हो रही है और यह अगर सच भी निकल जाए तो बहुत आश्चर्यजनक नहीं होगीा । भारत को इन मामलों को अभी से ही बहुत गंभीरता से लेना चाहिए, वर्ना आगे चलकर चीन एकबार फिर 1962 की तरह अचानक पीठ में छुरा घोंप सकता है और एक बार फिर हम अपनी जमीन और सम्मान गंवा कर हाथ मलने को मजबूर हो सकते हैं ।
उस समय भी युद्ध कोई यकायक नहीं हो गया था । 1959 से ही चीन सीमा पर गोलाबारी कर रहा था पर नेहरू जी की सरकार ने इसे नजरअंदाज करते हुए और चीन के खतरनाक इरादों से अनजान बने रहकर पंचशील समझौता कर लिया । इसका खमियाजा हमें लाखों वर्गमील की अपनी जमीन और कहीं न कहीं राष्ट्रीय स्वाभिमान गंवाकर भुगतना पड़ा था । सन 59 में ही पहली बार गोलाबारी करने पर भारत ने माकूल जवाब दिया होता तो शायद आज यह नौबत न आती । उस समय भी सरकार को चेताया गया था, पर वह नहीं चेती । ख्यातिलब्ध कवि और गीतकार गोपाल सिंह नेपाली ने इसपर तत्कालीन सरकार को धिक्कारते हुए ‘हिमालय की हुंकार’ का यह गीत भी लिखा था -

है भूल हमारी, वह छुरी क्यों न निकाले
तिब्बत को अगर चीन के करते न हवाले
पड़ते न हिमालय के शिखर चोर के पाले
समझा न सितारों ने घटनाओं का इशारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा !

इस गीत की अगली पंक्तियां मौजूदा हालात में भी बहुत माकूल और प्रासंगिक लगती हैं कि -

इतिहास पढ़ो-समझो तो यह मिलती है शिक्षा
होती न अहिंसा से कभी देश की रक्षा
क्या लाज रही जबकि मिली प्राण की भिक्षा
यह हिन्द शहीदों का अमर देश् है प्यारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा !

चैराहे नहीं रहे अब वैसे

चैराहे नहीं रहे अब वैसे
पहले से अल्हड, ठहरे-ठहरे से
हर ओर मची है भागमभाग
आदमी भाग रहा है,
सडकें भाग रही हैं
पीछे-पीछे भाग रहा है चैराहा ।

नेता जी को जरूरत नहीं पड़ती,
आने की अब चैराहे पर
कि जनता से जुड़ने की
जरूरत ही नहीं रही
सियासत के रंग-ढंग
दोनों ही बदल चुकें हैं अब
नहीं करते वोट की राजनीति वह अब
बन गए हैं सत्ता के ‘फें्रचाइजी’
लड़ते नहीं चुनाव अब
करते हैं महज दलाली
लोकसभा-विधानसभा में,
विश्वास-अविश्वास मत पर
वोटिंग कराने, न कराने
सरकार बचाने की
सरकार गिराने की
करके जनता के विश्वास की हत्या
बन गए विश्वास-अविश्वास के दलाल
गलियां, सडकें, राजपथ
सब इनसे थर्राते है
पीछे-पीछे अब इनके भाग रहा है चैराहा
चैराहे नहीं रहे अब वैसे
पहले से अल्हड, ठहरे-ठहरे से ।

कहीं यह चीन तो नहीं !

सुबह अखबार के पहले पन्ने पर खबर पढ़ी कि ‘वायुसेना के दो विमान अरुणाचल के जंगलों में गायब’ । वायुसेना के अधिकारियों के हवाले से समाचार में किसी तकनीकी खामी के चलते विमान के दुर्घटनाग्रस्त होकर जंगल में गिर जाने की आशंका जताई गई है । साथ ही अधिकारियों का यह भी कहना था कि मौसम खराब होने के चलते विमान की तलाश का अभियान नहीं चलाया जा सका । खबर के जरिए कुल मिलाकर जो मामला सामने आता है वह कहीं न कहीं संदेहजनक लगता है । मन में पहली शंका यही उठती है कि कहीं यह चीन का काम तो नहीं !
शंका की वजह यह है कि चीन अकसर ऐसी हरकतें करता रहता है और हमारी सरकार जाने क्यों ऐसे मामलों केा दबाने में ही भलाई समझती है । चीन के खतरनाक इरादे केवल आए दिन होने वाली ऐसी घटनाओं तक ही सीमित नहीं हैं । सीमांत क्षेत्र में वह कई ऐसी योजनाएं भी चला रहा है जो आगे चल कर निश्चित रूप से कहीं न कहीं हमारे देश की संप्रभुता के लिए खतरा बन सकती हैं ।
पिछले साल ओलंपिक के आयोजन की आड़ में चीन ने हिमालय की सीमावर्ती चोटियों तक एक राजमार्ग तैयार कर लिया और ओलंपिक की मशाल को यहां से गुजारा । इसके अलावा वह ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाने की महत्वाकांक्षी परियोजना भी बना रहा है जिससे निश्चित तौर पर भारत के हित प्रभावित होंगे । फिरभी इन मामलों पर भारत सरकार कभी मुखर होने या मामला अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाने की जहमत नहीं उठाई । दूसरी ओर भारतीय सीमा सड़क संगठन जब कभी भी सीमावर्ती इलाके में अपनी वर्षों पुरानी सड़कों की मरम्मत करने पहुंचता है, चीनी फौज न सिर्फ गोलीबारी शुरू कर देती है, बल्कि चीन सरकार सारी दुनिया में हाय-तौबा मचाना शुरू कर देती है ।
चीन के इस प्रोपोगंडे की इंतेहा का आलम तो यह रहा कि एक-दो महीने पहले राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर गईं तो उसने बाकायदा पत्र लिखकर इसपर भारत सरकार से स्पष्टीकरण मांग लिया । यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं, बहुत बड़ी बात थी, पर हमारी सरकार ने इसका जो जवाब दिया वह न केलव ‘ठंडा’ बल्कि बचकाना सा भी लगा । भारत सरकार ने महज इतना कहा कि चीन की यह चिंता ‘गैर-जरूरी’ है । मेरी समझ में कहा यह जाना चाहिए था कि हमारे देश का राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या कोई भी नागरिक देश में कहीं भी आ-जा सकता है, आप पूछने वाले कौन होते है ! ऐसे ‘फरमान’ चीन आए दिन जारी कर भारत से स्पष्टीकरण मांगता रहता है और हर बार हमारी सरकार मामले को जैसे-तैसे के अंदाज में निपटा देती है । सरकार के इस ढुलमुल रवैये के चलते ही हवाई जहाज गायब होने के मामले में चीन का हाथ होने की आशंका हो रही है और यह अगर सच भी निकल जाए तो बहुत आश्चर्यजनक नहीं होगीा । भारत को इन मामलों को अभी से ही बहुत गंभीरता से लेना चाहिए, वर्ना आगे चलकर चीन एकबार फिर 1962 की तरह अचानक पीठ में छुरा घोंप सकता है और एक बार फिर हम अपनी जमीन और सम्मान गंवा कर हाथ मलने को मजबूर हो सकते हैं ।
उस समय भी युद्ध कोई यकायक नहीं हो गया था । 1959 से ही चीन सीमा पर गोलाबारी कर रहा था पर नेहरू जी की सरकार ने इसे नजरअंदाज करते हुए और चीन के खतरनाक इरादों से अनजान बने रहकर पंचशील समझौता कर लिया । इसका खमियाजा हमें लाखों वर्गमील की अपनी जमीन और कहीं न कहीं राष्ट्रीय स्वाभिमान गंवाकर भुगतना पड़ा था । सन 59 में ही पहली बार गोलाबारी करने पर भारत ने माकूल जवाब दिया होता तो शायद आज यह नौबत न आती । उस समय भी सरकार को चेताया गया था, पर वह नहीं चेती । ख्यातिलब्ध कवि और गीतकार गोपाल सिंह नेपाली ने इसपर तत्कालीन सरकार को धिक्कारते हुए ‘हिमालय की हुंकार’ का यह गीत भी लिखा था -

है भूल हमारी, वह छुरी क्यों न निकाले
तिब्बत को अगर चीन के करते न हवाले
पड़ते न हिमालय के शिखर चोर के पाले
समझा न सितारों ने घटनाओं का इशारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा !

इस गीत की अगली पंक्तियां मौजूदा हालात में भी बहुत माकूल और प्रासंगिक लगती हैं कि -

इतिहास पढ़ो-समझो तो यह मिलती है शिक्षा
होती न अहिंसा से कभी देश की रक्षा
क्या लाज रही जबकि मिली प्राण की भिक्षा
यह हिन्द शहीदों का अमर देश् है प्यारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा !

9 जून 2009

क़ाफिले दोस्तों के

क़ाफिले दोस्तों के क्या देंगे,
घाव पर घाव इक नया देंगे ।
इस भरोसे पे चोट खाए चलो,
ज़ख्म अपने ही हौसला देंगे ।
क़ाफिले दोस्तों के क्या देंगे- - -

वो मसाहत का दम जो भरते हैं
जान हम पल लुटाए फिरते हैं
खुद ही तोड़ेंगे क़यामत इक दिन
हंस के सूली हमे चढ़ा देंगे ।
फिर करीने से मुस्करा देंगे
क़ाफिले दोस्तों के क्या देंगे- - -

अब तो हर ओर,
वही इक फरेब का मंजर ।
मीठी मुस्कानों में,
लिपटे हुए खूनी खंजर ।
चलो ! किसी को जहां में,
मेरी तलाश सही ।
अजीज मैं न सही,
फिर कि लाश सही,
उनकी इस तिश्नगी पर,
हम अपना लहू बहा देंगे ।
क़ाफिले दोस्तों के क्या देंगे

चिरकुटों के चंगुल में हिन्दी - 3 ‘अंतिम ’

पत्र-पत्रिकाओं, संपादकों, लेखकों की करनी-धरनी के बाद बात करते हैं पुरस्कारों की । इस मामले में तो हिन्दी में चिरकुटई चरम पर नजर आती है । पुरस्कारों के लिए दिल्ली में कैसी-कैसी जोड़-तोड़, खींचतान, दांव-पेच और लाबींग की जाती है वह साहित्य की गलियों में भटकने वाले अच्छी तरह जानते हैं । पूरा का पूरा एक तंत्र काम करता है इसके पीछे । इन गिरोह के ‘सक्रिय सदस्य ’ लिखने-पढ,ने से ज्यादा इन्ही तिकड़मों में व्यस्त रहते हैं । अभी आजकल में ही मैत्रेयी पुष्पा का साक्षात्कार पढ़ रहा था । एक नारी को के बेहतर लेखन को पचा पाने में साहित्य जगत के मठाधीशों को होने वाली दिक्कत का जिक्र था । वाकया था मैत्रेयी की किताब अल्मा कबूतरी को पुरस्कार देने का इस पर कमलेश्वर का कहना था कि उसे ! उसके लिए तो राजेन्द्र यादव लिखते हैं । इसपर वहां मौजूद एक लेखिका ने बड़ी खरी टिप्पणी की कि राजेन्द्र एक अल्मा कबूतरी लिखकर दिखा दें तो जानूं ! उनके कहने का आशय महज यह था कि किताब में नारी की जो पीड़ा उभरी है वह एक नारी ही बयान कर सकती है । तो यह हाल है साहित्य के आसमां में चमकते चांद सितारों का । अब इससे नीचे के लेबिल पर किस-किस किस्म की चिरकुटई होती होगी सहज ही अंदाजा लगा लें । नया लेखक लाख क्रांतिकारी और उत्कृष्ट लिख कर मर जाए उसे सम्मान और पुरस्कार मिलने ही नहीं देते हैं उपर जमें बैठे मठाधीश । खैर यह तो हुई पुरस्कार को लेकर राजनीति की बात, अब पुरस्कारों पर भी जरा गौर करें । हिन्दी बोलने, जानने-समझने वालों की दुनिया इतनी बड़ी है । फिल्म, टीवी, मीडिया, पुस्तकें, संगीत से लेकर विज्ञापन तक अरबों-अरब का कारोबार चल रहा है हिन्दी के सहारे । पर हिन्दी के क्षेत्र में क्या है कोई ऐसा बड़ा ईनाम जो नोबेल और बुकर पुरस्कारों से टक्कर ले सके । यह बात अपनी जगह ठीक है कि पुरस्कार से जुड़ा सम्मान बड़ा होता है, पैसा नहीं, पर यह एक मेरी समझ में यह एक सैद्धांतिक बात है । व्यावहारिक नहीं । अंगरेजी में मात्र एक उपन्यास लिखने पर अरुंधती राय को बुकर के जरिए विश्वव्यापी सम्मान के साथ-साथ इतनी बड़ी राशि मिल जाती है कि जिंदगी भर कम से कम उन्हें आजीविका के बारे में सोचने की जरूरत नहीं । इन तनावों और संघर्ष से बेफिक्र होकर वह लिख-पढ़ सकती हैं । दूसरी ओर पहला गिरमिटिया जैसी उत्कृष्ट और शोधपरक किताब लिखने के लिए गिरिराज किशोर जैसे स्थापित साहित्यकार को पैसों के जुगाड़ में जगह-जगह भटकना पड़ जाता है और इसके चलते अर्सा लग जाता है उपन्यास पूरा करने में । तो यह है पुरस्कारों के अर्थ शास्त्र का व्यावहारिक पक्ष । मेरी समझ में हिन्दी के नाम पर करोड़ों कमाने वाले अगर मिल कर एक ऐसा पुरस्कार निर्धारित करें जो इन मायनों में बुकर और नोबेल को टक्कर दे सकेे तो बहुत बड़ी संख्या में नए लेखक हिन्दी के क्षे़त्र में उभर कर सामने आ सकते हैं, पुरानों को भी इससे लाभ ही होगा क्योंकि पुरस्कार तो किसी को भी मिल सकता है। एक व्यापक और सामूहिक पहल से मेरी समझ में ऐसा किया जा सकता है ।

चिरकुटों के चंगुल में हिन्दी - 3

पत्र-पत्रिकाओं, संपादकों, लेखकों की करनी-धरनी के बाद बात करते हैं पुरस्कारों की । इस मामले में तो हिन्दी में चिरकुटई चरम पर नजर आती है । पुरस्कारों के लिए दिल्ली में कैसी-कैसी जोड़-तोड़, खींचतान, दांव-पेच और लाबींग की जाती है वह साहित्य की गलियों में भटकने वाले अच्छी तरह जानते हैं । पूरा का पूरा एक तंत्र काम करता है इसके पीछे । इगिरोह के ‘सक्रिय सदस्य ’ लिखने-पढने से ज्यादा इन्ही तिकड़मों में व्यस्त रहते हैं । अभी आजकल में ही मैत्रेयी पुष्पा का साक्षात्कार पढ़ रहा था । एक नारी को के बेहतर लेखन को पचा पाने में साहित्य जगत के मठाधीशों को होने वाली दिक्कत का जिक्र था । वाकया था मैत्रेयी की किताब अल्मा कबूतरी को पुरस्कार देने का इस पर कमलेश्वर का कहना था कि उसे ! उसके लिए तो राजेन्द्र यादव लिखते हैं । इसपर वहां मौजूद एक लेखिका ने बड़ी खरी टिप्पणी की कि राजेन्द्र एक अल्मा कबूतरी लिखकर दिखा दें तो जानूं ! उनके कहने का आशय महज यह था कि किताब में नारी की जो पीड़ा उभरी है वह एक नारी ही बयान कर सकती है । तो यह हाल है साहित्य के आसमां में चमकते चांद सितारों का । अब इससे नीचे के लेबिल पर किस-किस किस्म की चिरकुटई होती होगी सहज ही अंदाजा लगा लें । नया लेखक लाख क्रांतिकारी और उत्कृष्ट लिख कर मर जाए उसे सम्मान और पुरस्कार मिलने ही नहीं देते हैं उपर जमें बैठे मठाधीश । खैर यह तो हुई पुरस्कार को लेकर राजनीति की बात, अब पुरस्कारों पर भी जरा गौर करें । हिन्दी बोलने, जानने-समझने वालों की दुनिया इतनी बड़ी है । फिल्म, टीवी, मीडिया, पुस्तकें, संगीत से लेकर विज्ञापन तक अरबों-अरब का कारोबार चल रहा है हिन्दी के सहारे । पर हिन्दी के क्षेत्र में क्या है कोई ऐसा बड़ा ईनाम जो नोबेल और बुकर पुरस्कारों से टक्कर ले सके । यह बात अपनी जगह ठीक है कि पुरस्कार से जुड़ा सम्मान बड़ा होता है, पैसा नहीं, पर यह एक मेरी समझ में यह एक सैद्धांतिक बात है । व्यावहारिक नहीं । अंगरेजी में मात्र एक उपन्यास लिखने पर अरुंधती राय को बुकर के जरिए विश्वव्यापी सम्मान के साथ-साथ इतनी बड़ी राशि मिल जाती है कि जिंदगी भर कम से कम उन्हें आजीविका के बारे में सोचने की जरूरत नहीं । इन तनावों और संघर्ष से बेफिक्र होकर वह लिख-पढ़ सकती हैं । दूसरी ओर पहला गिरमिटिया जैसी उत्कृष्ट और शोधपरक किताब लिखने के लिए गिरिराज किशोर जैसे स्थापित साहित्यकार को पैसों के जुगाड़ में जगह-जगह भटकना पड़ जाता है और इसके चलते अर्सा लग जाता है उपन्यास पूरा करने में । तो यह है पुरस्कारों के अर्थ शास्त्र का व्यावहारिक पक्ष । मेरी समझ में हिन्दी के नाम पर करोड़ों कमाने वाले अगर मिल कर एक ऐसा पुरस्कार निर्धारित करें जो इन मायनों में बुकर और नोबेल को टक्कर दे सके तो बहुत बड़ी संख्या में नए लेखक हिन्दी के क्षेत्र में उभर कर सामने आ सकते हैं, पुरानों को भी इससे लाभ ही होगा क्योंकि पुरस्कार तो किसी को भी मिल सकता है। एक व्यापक और सामूहिक पहल से मेरी समझ में ऐसा किया जा सकता है । शेष फिर- - -

8 जून 2009

लोचा किधर है भाई !

भाई ब्लागवाणी में हमारा फोटो दिखाई नहीं दे रहा है क्या करें कोई रास्ता बताओ ! वैसे तो चेहरा चमकाने का बहुत शौक नहीं हमें । पर्दे के पीछे रह कर ही सुकून में रहते हैं पर जानना यह है कि आखिर इसके पीछे तकनीकी खामी क्या रह गई है - - - और फिर जब औरों के थोबड़े चमक रहे हैं तो फिर - - - अपनी भी सूरत बुरी तो नहीं है । है कोई माई का लाल जो इस दिले नादान को समझा सके कि आखिर अपुन के साथ हो रहे इस गेम में लोचा किधर है !

टायलेट के कुछ नये प्रयोग

रवीश ने टायलेट में पेपर फ्रेम के जरिए प्रचार के एक नए नुस्खे की बात उठाई थी । कुछ इसी तरह की, कुछ दिन पुरानी एक और बात याद आ गई । कुछ महीनों पहले एक कंपनी ने जेंट्स यूरीनल के लिए ऐसा कमोड बनाया जिसकी आकृति महिला के खुले हुए मुंह की तरह थी । किसी सिनेमा के टायलेट में लगे इस कमोड के उपयोग का एक फोटो भी देखा था किसी साइट पर । आदमी कर रहा था मुंह के आकार वाले उस कमोड में पेशाब । देखकर अजीब सा लगा । चटख लाल लिप्टिक से सजे ओठ, चांदी से चमकते दांत वाला मुंह खुला हुआ और लघुशंका करता आदमी । कैसी सोच है यह । क्या मानसिकता है । आदमी के अंदर के रावण को जगा रहे हो, सैटिस्फाई कर रहे हो, महज छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए । सामान बेचने, कारोबार बढ़ाने और पैसा कमाने के लिए किस हद तक जाएंगे हम । क्या इसकी कोई हद नहीं । कहीं न कहीं तो हमें एक दायरा तय करना होगा कि बस यहीं तक, इसके आगे नहीं । पर इस आत्मनिर्धारण को कोई तैयार नहीं दिख रहा है आज । धारा तो इसके विपरीत ही बहती नजर आ रही है । टायलेट में पेपर पर कल हमने लिखा कि ‘कहीं तो बख्श दो यार’ । कमेंट आया कमआन कौस्तुभ यह तो महज एक तरीका है प्रचार का । किसी पर बाध्यता नहीं है पेपर पढ़ने की । जिसकी मर्जी हो पढ़े, मर्जी न हो न पढ़े । दोनों विकल्प खुले हैं । हमारा कहना है कि दोनों विकल्प खोल कर आप कौन सा अहसान कर रहे हो, कौन सी दरियादिली दिखा रहे हो भाई । विज्ञापन में देखने न देखने के विकल्प तो यूं भी खुले ही रहते हैं । मर्जी है तो देखा नहीं तो पन्ना पलट दिया, चैनल बदल दिया । तो यह ‘विकल्प’ कोई आप दान में नहीं दे रहे हैं दानवीर कर्ण की तरह । यह तो हर आदमी के पास पहले से ही है । असल बात फिर वही है कि प्रचार के लिए कहां-कहां घुसते फिरेंगे आप, शौचालय तक ! भई हमें तो नहीं जमता यह सब ।

7 जून 2009

झूठे थे लेमार्क तुम

और तुम्हारी ही तरह झूठा था
‘ अंगोें की उपियोगिता ’ का वह सिद्धांत
कि विलुप्त हो जाते हैं अनुपयोगी अंग
और उपियोगियों का होता है भरपूर विकास
ऐसा होता हकीकत में अगर
क्यों विलुप्त हो जाती सदियों पहले,
आदमी के शरीर से दुम
दुम जिसकी पड़ती है जरूरत
जिंदगी में हर कदम
दफ्तर-घर-समाज हर जगह
‘ मालिक ’ बदल जाता है
आदमी रहता है वही हर जगह
दुम हिलाता सा उसी तरह ।

लेमार्क तुम गलत थे- - -
कि विकसित हो गई आदमी के जिस्म में,
बेवजह एक अदद रीढ़
रीढ़, जिसकी कहीं भी कोई जरूरत नहीं
दफ्तर में, घर में, समाज में कहीं नहीं
कि बेदम रेंगता रहता है इंसान
पैरोें तले मसलने वाले बदल जाते हैं
पर रहता वही है पिसता-कराहता आदमी
हर वक्त, हर जगह, हर तरह
- - - लेमार्क तुम गलत थे ।

कहीं तो बख्श दो यार ।

ठीक बात कही आपने रवीश भाई ! वैसे गहराई में जाकर देखें तो ऐसी सारी बेतुकी कवायदों की जड़ में आदमी का लालच ही नजर आता है । वह कहीं कोई मौका छोड़ना ही नहीं चाहता । अपना हित साधने का । ‘ थिंक पाजिटिव ’ वाहे हमारे कुछ बिरादर हमें छिद्रान्वेशी करार देते हुए इसका सकारात्मक पक्ष देखने की सलाह दे सकते हैं । वह कह सकते हैं कि यह तो फालतू समय का सदोपयोग हो रहा है । इससे तो लोगों में जागरूकता ही बढ़ेगी आदमी हर पल हर खबर से बाखबर रहेगा । शायद यह सकारात्मक हो भी सकता था, गोया कि हवाई अड्डों के मुत्तीखाने के बजाए अखबार वाले भाई लोग किसी दूरदराज के गांव में जाकर मुफ्त अखबार बांट देते । उन लोगों को जिनमें दुनिया को देखने जानने की जिज्ञासा और तमन्ना तो है, पर जेब में इतने पैसे नहीं कि तीन-चार रुपये का ‘महंगा’ जी अखबार खरीद सकें । महंगा शब्द का इस्तेमाल हमारे ‘ थिंक पाजिटिव ’ क्लब के साथियों को शायद यहां अटपटा लगे क्योंकि जीवन की सारी सुविधाओं और आसान सी जिंदगी में पाजिटिव थिंकिंग करने वाले इन जीवों को शायद अहसास न हो कि इस धरती पर और हमारे देश में ही बहुत बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं जो अखबार खरीदने की लग्जरी अफोर्ड नहीं कर सकते ।
अब जरा विचार करें समय के सदुपयोग के तर्क की । तो हमारा तो यही कहना है कि ऐसा भी समय का क्या सदुपयोग कि आदमी के पीछे-पीछे पाखाने में घुसे जा रहे हो अखबार लेकर । इन दो-चार मिनटों का सदुपयोग करके क्या टायलेट जाने वाले हर आदमी को बिल गेट्स या ओबामा बना दोगे ! भइया कहीं तो दो पल का सुकून ले लेने दो आदमी को । कल को नया आविष्कार कर दोगे कि सोते आदमी की नसों में ड्रिप खोंस के सोते में भी उसके तंत्रिका तंत्र के जरिए खबरें और विज्ञापन दिखाने लगोगे और कहोगे कि यह तो समय का सदुपयोग है । जो सोया, सो खोया, जो जागा सो पाया । समय का ‘सदुपयोग’ करने वालों कहीं तो बख्श दो आदमी को यार । नीत्ज़े ने सच ही कहा था कि नो न्यूज इज गुड न्यूज । वाकई खबर और खबरों के सहारे विज्ञापन का कारोबार करने वाले यह समाज के ‘पहरुए’ आदमी पर सूचनाओं की बेतहाशा बौछार कर उसकी जान लेने पर उतारू हैं ।
मीडिया विमर्श

कहीं तो बख्श दो यार

ठीक बात कही आपने रवीश भाई ! वैसे गहराई में जाकर देखें तो ऐसी सारी बेतुकी कवायदों की जड़ में आदमी का लालच ही नजर आता है । वह कहीं कोई मौका छोड़ना ही नहीं चाहता । अपना हित साधने का । ‘ थिंक पाजिटिव ’ वाहे हमारे कुछ बिरादर हमें छिद्रान्वेशी करार देते हुए इसका सकारात्मक पक्ष देखने की सलाह दे सकते हैं । वह कह सकते हैं कि यह तो फालतू समय का सदोपयोग हो रहा है । इससे तो लोगों में जागरूकता ही बढ़ेगी आदमी हर पल हर खबर से बाखबर रहेगा । शायद यह सकारात्मक हो भी सकता था, गोया कि हवाई अड्डों के मुत्तीखाने के बजाए अखबार वाले भाई लोग किसी दूरदराज के गांव में जाकर मुफ्त अखबार बांट देते । उन लोगों को जिनमें दुनिया को देखने जानने की जिज्ञासा और तमन्ना तो है, पर जेब में इतने पैसे नहीं कि तीन-चार रुपये का ‘महंगा’ जी अखबार खरीद सकें । महंगा शब्द का इस्तेमाल हमारे ‘ थिंक पाजिटिव ’ क्लब के साथियों को शायद यहां अटपटा लगे क्योंकि जीवन की सारी सुविधाओं और आसान सी जिंदगी में पाजिटिव थिंकिंग करने वाले इन जीवों को शायद अहसास न हो कि इस धरती पर और हमारे देश में ही बहुत बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं जो अखबार खरीदने की लग्जरी अफोर्ड नहीं कर सकते ।
अब जरा विचार करें समय के सदुपयोग के तर्क की । तो हमारा तो यही कहना है कि ऐसा भी समय का क्या सदुपयोग कि आदमी के पीछे-पीछे पाखाने में घुसे जा रहे हो अखबार लेकर । इन दो-चार मिनटों का सदुपयोग करके क्या टायलेट जाने वाले हर आदमी को बिल गेट्स या ओबामा बना दोगे ! भइया कहीं तो दो पल का सुकून ले लेने दो आदमी को । कल को नया आविष्कार कर दोगे कि सोते आदमी की नसों में ड्रिप खोंस के सोते में भी उसके तंत्रिका तंत्र के जरिए खबरें और विज्ञापन दिखाने लगोगे और कहोगे कि यह तो समय का सदुपयोग है । जो सोया, सो खोया, जो जागा सो पाया । समय का ‘सदुपयोग’ करने वालों कहीं तो बख्श दो आदमी को यार । नीत्ज़े ने सच ही कहा था कि नो न्यूज इज गुड न्यूज । वाकई खबर और खबरों के सहारे विज्ञापन का कारोबार करने वाले यह समाज के ‘पहरुए’ आदमी पर सूचनाओं की बेतहाशा बौछार कर उसकी जान लेने पर उतारू हैं ।

लेमार्क तुम गलत थे

लेमार्क तुम गलत थे
और तुम्हारी ही तरह झूठा था
‘ अंगों की उपियोगिता ’ का वह सिद्धांत
कि विलुप्त हो जाते हैं अनुपयोगी अंग
और उपियोगियों का होता है भरपूर विकास
ऐसा होता हकीकत में अगर
क्यों विलुप्त हो जाती सदियों पहले,
आदमी के शरीर से दुम
दुम जिसकी पड़ती है जरूरत
जिंदगी में हर कदम
दफ्तर-घर-समाज हर जगह
‘ मालिक ’ बदल जाता है
आदमी वही रहता है हर जगह
दुम हिलाता सा उसी तरह ।

लेमार्क तुम गलत थे- - -
कि विकसित हो गई आदमी के जिस्म में,
बेवजह एक अदद रीढ़
रीढ़, जिसकी कहीं भी कोई जरूरत नहीं
दफ्तर में, घर में, समाज में कहीं नहीं
कि बेदम रेंगता रहता है इंसान
पैरो तले मसलने वाले बदल जाते हैं
पर रहता वही है पिसता-कराहता आदमी
हर वक्त, हर जगह, हर तरह
- - - लेमार्क तुम गलत थे ।

6 जून 2009

चिरकुटों के चंगुल में हिन्दी- 2

पहली कड़ी में हमने हिन्दी अखबारों और पत्रिकाओं में होने वाली चिरकुटई की बात की थी । आज चर्चा करते हैं इलेक्ट्रानिक मीडिया और लेखकों की दुनिया की । इलेक्ट्रानिक मीडिया में अखबारों की तरह बेगारी की समस्या तो अमूमन नहीं होती, पर यहां की अपनी अलग पेचीदगियां हैं । पहली बात तो यह कि इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता आज के दौर में पत्रकारिता कम, टेक्निकल टे्रड कहीं ज्यादा बन गई है । काम-काज में लिखने-पढ़ने का यहां बहुत स्कोप नहीं होता । ज्यादातर समय कैमरे या कम्प्यूटर के सामने सिर फोड़ते रहिए । जल्दबाजी का दबाव ऐसा कि दस में आठ आदमी हर वक्त टेंशन में ही रहते हैं । इसी मशीनीकरण से उबियाने के चलते ही बड़ी संख्या में चैनलों के साथी ब्लागिंग की दुनिया में उतरते हैं, केवल अपनी बौद्धिक संतुष्टि के लिए । इलेक्ट्रानिक माध्यमों में इसके अलावा एक बहुत बड़ी समस्या यह है कि यहां दाखिल होने के लिए लंबा जैक चाहिए । अगर आपका कोई परिचित किसी चैनल में अच्छी पोजीशन पर है तो किसी भी एक्स, वाई, जेड इंस्टीट्यूट से कोर्स कर लीजिए चाचा-मामा चैनल में फिट करवा देंगे आपको । वर्ना देते रहिए दस्तक पर दस्तक, कोई दरवाजा खोलने नहीं आता । चैनलों के दफ्तरों में बायोडाटा डालने के लिए अमूमन बाहर ही एक बाक्स रखा मिल जाएगा । उसमें बायोडाटा डालिए और भूल जाइये । बक्सा खोलकर देखने की जहमत भी नहीं उठाई जाती । कई जगह तो बताया जाता है कि हफ्ते-हफ्ते नौकरी, मान्सटर जैसी जाब साइट वाले ये बायोडाटा ले जाते हैं, महज अपना डाटाबेस बढ़ाकर अपना कारोबार फैलाने के लिए । कुल मिलाकर साहित्यिक रुचियों वाला या पढ़ने लिखने का शौक रखने वाला कोई आदमी इस क्षेत्र में उतरना चाहे तो उसे दाखिला मिलना ही बहुत मुश्किल है । करीब नब्बे फीसदी सीटें भाई-भतीजों और दिल्ली के इंस्टीट्यूटों के कंडीडेट्स से ही भर जाती हैं ।
उधर साहित्य की दुनिया में अपनी अलग ही किस्म की चिरकुटई है । किसी नए साहित्यकार को अपना वजूद साबित करने के लिए क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं यह तो वही बेचारा जानता है, जो भुगतता है । सेमिनारों, सभाओं में बड़े भाई लोग आंसू बहाते हैं कि नई प्रतिभाएं नहीं आ रहीं हैं, और हकीकत में नये तो क्या अच्छे-अच्छे पुरनियों को भी लंगड़ी लगाने में बिरादरी वाले पीछे नहीं रहते । सीधा सा सवाल है मेरा कि नई प्रतिभाओं को बढ़वा देने के लिए आज तक किसी ख्यातिनामा साहित्यकार ने व्यक्तिगत स्तर पर किया ही क्या है! क्या कोई ऐसी सहृदयता नहीं दिखा सकता कि अपने उपन्यास या संग्रह में अपने साथ एक नए लेखक की कहानी, कविताएं आदि भी छापे । मेरा अपना मानना है कि हिन्दी की दुर्दशा पर आंसू बहाने के बजाय अगर बड़े लेखक ऐसी कोई पहल करें तो हिन्दी का कुछ तो भला हो ही सकता है । वर्ना किताब छपवाने में प्रकाशकों के चक्कर लगाते-लगाते नए लेखकों की चप्पलें घिस जाती हैं । जिसको बहुत तमन्ना हुई वह जहां तहां से पैसा जुगाड़ कर खुद अपने खर्चे पर किताब की कुछ प्रतियां छपवा लेता है । यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि किसी नवोदित प्रतिभावान लेखक को लाख प्रयासों के बाद भी प्रकाशक नहीं मिलता, दूसरी ओर मल्लिका शेरावत और राखी सावंत आत्मकथा लिखने की घोषणा कर दें तो आज के आज उनके आगे प्रकाशकों की लाइन लग जाएगी । मोटी रायल्टी का पोस्ट डेटेड चेक लिए हुए । चर्चा के कुछ पहलू और भी हैं, शेष आगे - - -

3 जून 2009

क़ाफिले
क़ाफिले दोस्तों के क्या देंगे,
घाव पर घाव इक नया देंगे/
इस भरोसे पे चोट खाए चलो,
ज़ख्म अपने ही हौसला देंगे/
क़ाफिले दोस्तों के क्या देंगे,

अब तो हर ओर,
वही इक फरेब का मंजर/
मीठी मुस्कानों पर,
लिपटे हुए खूनी खंजर/
चलो, किसी को जहां में,
मेरी तलाश सही/
अजीज मैं न सही,
फिर कि लाश सही,
उनकी इस तिश्नगी पर हम,
अपना लहू बहा देंगे/
क़ाफिले दोस्तों के क्या देंगे
- कौस्तुभ
चेहरों पर मुस्कान,
दिलों में कोलाहल है
भीतर-भीतर आग,
सुलगती पल-प्रतिपल है
नौटंकी के भांड सरीखे
हम भी, तुम भी
रचा रहे हैं स्वांग
कि सबकुछ कुशल-कुशल है
चेहरों पर मुस्कान....

खंजर है हर हाथ,
हर कोई हत्यारा है
कत्ल किये अरमान,
वेदना को मारा है
फिर भी दामन साफ,
भंगिमा शांत-शांत सी
रूह स्याह है,
काया कैसी शुभ्र-धवल है
चेहरों पर मुस्कान....
- कौस्तुभ
मीरा को पचा गए ओबामा-गान करने वाले
घर की मुर्गी दाल बराबर की कहावत एक बार पिफर हमारे देश की मीडिया पर सटीक बैठती दिखाई दे रही है/ ओबामा के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने पर जो चैनल एक के बाद एक विशेष कार्यक्रम पेश कर रहे थे, उनमें मीरा कुमार के लोकसभा अध्यक्ष बनने को लेकर कोई ‘उत्साह’ नजर नहीं आया/ मोटी-मोटी तनख्वाहें बटोरने वाले चैनलों के नीति नियंताओं को एक महिला, वह भी दलित वर्ग से आने वाली महिला के उंचे ओहदे पर पहुंचने में कुछ खास नजर नहीं आया/ अब जरा याद कीजिए चंद महीने पहले बराक ओबामा के राष्ट्रपति चुने जाने के दौर को/ सारे के सारे चैनल किस भक्ति भाव से जुट गए थे उनका यशोगान करने में/ खबरों की काॅपी लिखने वाले चन्द वरदाई तो समाचार वाचक आल्हा-उदल बन बैठै थे यकायक/ आ गए हैं ओबामा, बदल जाएगी दुनिया, नए युग की शुरुआत जैसी हेड लाइंस को हाई पिच में ऐसे चीख-चीख कर पढ़ा जा रहा था मानो ईसा मसीह ने दोबारा अवतार ले लिया हो और अब दुनिया के सारे दीन-दुखियों के दुर्दिन एक झटके में दूर हो जाएंगे/
ओबामा के रूप में एक ब्लैक को राष्ट्रपति चुनने पर ‘अमेरिका ने रचा इतिहास’ जैसी हेड लाइंस देकर वहां की जनता का भी कम महिमा मंडन नहीं किया गया/ भारतीय समाचार चैनलों की तकरीबन सारी की सारी स्टोरियां अमेरिकी अखबारों, चैनलों और वेबसाइटों से मैटेरियल जैसे का तैसा उठा कर बनाई जा रहीं थीं/ तेवर, कलेवर और एंगिल वही, अंतर था तो महज भाषा का/ इन खबरों को उठाने-परोसने में हमारे मीडिया मुग़लों ने यह भी ध्यान नहीं रखा कि अमेरिकी नेताओं, नागरिकों की तरह वहां का मीडिया भी बुरी तरह से आत्म मुग्धता का शिकार है/ उसके इस रवैये के चलते ही करीब डेढ़ दशक पहले ‘सूचना के साम्राज्यवाद’ का मुद्दा दुनिया भर में बड़ी जोर-शोर से उठा था/ सीएनएन, फाॅक्स टीवी, सीएनबीसी आदि अमेरिकी चैनलों और बीबीसी ने दुनिया के सामने खाड़ी युद्ध को एक धर्मयुद्ध के रूप में निरूपित किया/ कफी-कुछ उसी अंदाज में जैसे भारतीय परंपरा में राम-रावण युद्ध और कौरवों-पांडवों के बीच महाभारत को वर्णित किया गया है/ दशक भर बाद जूनियर बुश के समय हुई दूसरे दौर की लड़ाई और ‘नाइन-इलेवन’ के बाद अपफगानिस्तान में अमेरिका की अगुवाई में की गई सैनिक कार्रवाई के मामले में भी इन चैनलों का रवैया वही रहा/ नजारा कुछ ऐसा पेश किया गया कि सद्दाम और लादेन के खिलाफ जंग छेड़ कर बुशद्वय ने समूची मानवता को तबाही से बचा लिया/ इस बात को बड़ी आसानी के साथ भुला दिया गया कि इन दोनों ही आसुरी शक्तियों का उदय खुद अमेरिका की ही छत्र-छाया में हुआ/ डब्ल्यूटीसी और पेंटागन पर हमलों के मामले में वहां के मीडिया ने इस सबके पीछे सीआईए की कोरी नाकामी को पूरी तरह दरकिनार कर इस्लामी आतंकवाद और जेहाद के मुद्दों पर दुनिया के उलझाए रखा/ कुल मिलाकर दोनों ही बार अमेरिका ने दुनिया को यह दिखा दिया कि अपनी ताकत के दम पर वह कुछ भी कर सकता है और उसका पिट्ठू मीडिया दुनिया के सामने वही तस्वीर पेश करता है, जैसा कि उनकी सरकार चाहती है/ ओबामा की ताजपोशी की खबरों में भी उसके इसी चरिऋ का विस्तार दिखाई दिया/ इसके लिए ‘इतिहास’ और ‘नया युग’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए वहां का मीडिया यह भूल गया कि खुद को लोकतंऋ का सबसे बड़ा पैरोकार बाने वाले अमेरिका को एक ब्लैक को राष्ट्रपति बनाने में डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा लग गए/ इन खबरों को जैसे के तैसे अंदाज में पेश करने वाले हमारे देश के चैनलों ने भी यह देखने की जहमत नहीं उठाई कि जिस काम के लिए वह अमेरिका की भूरि-भूरि प्रशंसा करता फिर रहा है, वह काम तो भारत वर्षों पहले दलित वर्ग से आए के आर नारायणन को देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठा कर कर चुका है/ यही नहीं प्रतिभा पाटिल के रूप में एक महिला को राष्ट्रपति बनाकर भी भारत ने इस दिशा में अमेरिका को पिछाड़ दिया है क्योंकि भारत से कहीं पुराने अमेरिका के लोकतंत्र में अबतक कोई महिला वहां के सर्वोच्च पद पर नहीं पहुंच पाई है/ पी ए संगमा जैसे आदिवासी समाज से आए व्यक्ति का भी लोकसभा का स्पीकर बनना इस लिहाज से कम महत्वपूर्ण नहीं था/ क्या अमेरिका में आज तक वहां का कोई मूलवासी इतने उूंचे पद पर पहंुच सका है! मीरा कुमार का लोकसभा अध्यक्ष्ज्ञ बनना भी क्या इसी श्रृंखला की एक कड़ी नहीं है! पर किसी न्यूज चैनल ने खबर को इस नजरिए बहुत महत्व नहीं दिया/ चैनलों पर इस बारे में महज सूचनात्मक खबरें ही प्रसारित हुईं/ एकाध चैनल ने इससे हटकर कुछ दिखाया तो ‘एक तीर से दो शिकार’ के एंगिल से/ इन खबरों का लब्बो लुआब यह था कि मीरा को स्पीकर बना कांगे्रस ने दलित और महिला दोनों ही वोट बैंको को साधने की कवायाद की है/ यह सियासी समीकरण अपनी जगह सही हो सकता है, पर ओबामा के मामले में ऐसी बातें नहीं थी क्या!