27 सितंबर 2009
तो ऐसे होती है दिल्ली में क्रांति, कमाल है!
25 सितंबर 2009
दरोगा जी में जाग उठी ’ देवी ’
20 सितंबर 2009
दाती गुरु का मंतर काम कर रहा है
मदारी की बाजीगरी दिल बहलाती है। लोग सिक्के फेकते हैं। मीडिया की बाजीगरी इससे कहीं गहरी है। व्यापकतर असर रखती है। चैनलों का चलाया दाती गरु का मंतर आजकल दिल्ली में खूब कमाल दिखा रहा है। दाती गुरु वही रजत शर्मा मार्का। इंडिया टीवी वाले। बाद में शायद अच्छा आफर मिला तो न्यूज-24 चले गए। आजकल वहीं से भक्तों को दीक्षा दे रहे हैं। भविष्य बांच रहे हैं। पहले शनि के प्रकोप से बचाते थे। दाती गुरू के मुख से चैनलों ने शनिदेव की महिमा ऐसी बखानी कि उनका अपना टीआरपी तो बढा ही, शनिदेव के भी दिन फिर गए। जरा दिल्ली की सैर कीजिए इनके मंतर का असर दिल्ली के दिल कनाट प्लेस तक पर नजर आएगा। मेटरो गेट, बस स्टाप, पालिका, फुटपाथ हर जगह शनि महाराज विराजे दिखाई देंगे। लोग खामखां डरते हैं इनसे इतना। जाने क्यों एक गुस्सैल सी विलेन टाइप इमेज बना रखी है बेचारे शनिदेव की। जरा गौर से देखिए चश्मा उतार कर। इनसे सीधा और लाचार कोई नजर नहीं आएगा आपको दिल्ली में। लाचार इसलिए की बिना कुछ चूं-चपड़ किए घंटों धूप में झुलस रहे हैं। सीधा इसलिए कि इनको साधना किसी भी दूसरे देवता को साधने से आसान हो गया है आजकल। न मूर्ति का खर्चा, न फोटो का, चैकी सजाने जैसी लग्जरी की तो बात ही छोड़िए। बस एक गत्ते पर फटा-पुराना-मैला-कुचैला जैसा भी मिल जाए एक काला कपड़ा ओढ़ा कर एक फूल माला चढ़ा दीजिए। सामने एक छोटे से बर्तन में तेल रख दीजिए। हो गया काम। अब देखिए शनि देव का कमाल। कुछ चमत्कार नहीं दिखा क्या! कैसे दिखेगा यार, दो-चार चिल्लर-विल्लर नहीं डालोगे जबतक अपनी तरफ से। भई अब इतना इंवेसमेंट तो करना ही पड़ेगा कोई भी नया धंधा जमाने में। तो एक, दो पांच के दो चार सिक्के डाल के परे हट लो। अब देखो शनिदेव कैसे फटाफट कमाई कर भरते हैं तुम्हारी जेब। दो-दो घंटे पर आकर रिटर्न कलेक्ट करते जाओ बस। हाथ-पांव डोलाने की कोई जरूरत नहीं, मगजमारी भी कुछ नहीं। एक दिन में एक का पंद्रह बटोरो। वो कहते हैं न, कि अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम; दास मलूका कह गए सबके दाता राम। मलुक दास ससुर बुडबक थे, जो शनि देव के एकाउंट का श्रेय राम के खाते डाल गए। शायद उनकी इसी गलती को सुधारने के लिए कलयुग में दाती गुरु का अवतार हुआ और रजत शर्मा उनके प्रमोटर बने। वर्ना इतना मंदी के इस दौर में इतने कम इंवेसमेंट में ऐसा चोखा धंधा कौन माई का लाल क्या खा के जमा लेता। शनिदेव भी शनीचर बने कहीं कोने में बैठे होते ललिता पवार जैसा मुंह बनाए। तो ’ हल्दी लगे न फिटकरी रंग भी चोखा आए ’ के इस कमाल को देखो। श्रद्धा उमड़े तो रुपया-दो रुपया चढ़ा दो, अपनी औकात देख कर। और जोर से बालो शनि देव की जय ! दाती गुरु की जय !! चैनल वालों की !!!
19 सितंबर 2009
दाती गुरु का मंतर काम कर रहा है
14 सितंबर 2009
समाचार वालों पीछे से निकल लो
दिल्ली की बसों नगर बसों में सफर करना यूं तो अपने आप में एक यातना है, पर इस यातना में एक मजा भी कहीं छिपा हुआ है। यह मजा है कंडेक्टरों की बोली और चुहलबाजी का। कभी-कभी सोचता हूं कि जाने कब नजर पडे़गी ललित कला अकादमी वालों की, इन कलाकारों की कलाकारी पर। हर स्टाॅप पर खिड़की से सिर निकाल कर सवारियों को रिझा कर अपनी बस में चढ़ाने के लिए तरह-तरह के खटकर्म करते हैं बेचारे। पूरी सुर-लय-ताल में स्टेशनों के नाम एक सांस में ले जाते हैं बेचारे। इसमें भी मिनट-मिनट पर जुगलबंदी हो जाती है। एक सांस में जो जितने ज्यादा स्टाॅपेजों के नाम लेता है वही चैंपियन। जगहों के इन आड़े-तिरछे नामों को एक लय में लपेट कर झट से उगल देना वाकई आसान नहीं। यकीन न आए तो कभी आजमा कर देख लीजिए अकेले में। कलापक्ष के बाद बात करें इनकी चुहलबाजी की तो वह भी लाजवाब है जनाब। स्टाॅपेज के पास धीमी होती बस की तरफ कोई महिला बढ़ती दिख जाए तो कंडक्टर माहाशय चिल्लाएंगे- लेडीज सवारी है आगे से ले लो। इसके विपरीत आदमी आता दिखे तो उसका डाॅयलाॅग होगा- जेंड सवारी है पीछे से लो। आगे से लो और पीछे से लो का औपचारिक मतलब तो बस के अगले गेट और पिछले गेट से होता है पर अनौपचारिक और असली मतलब क्या होता है, समझने वाले खूब समझते हैं।नोएडा के गोल चक्कर स्टाॅप पर लंबा-चैडा भीमकाय सा आदमी सडक किनारे खडा दिखा। कंडक्टर उसे देखकर चिल्लाने लगा चिड़ियाघर-चिड़ियाघर-चिड़ियाघर, जबकि इससे पहले उसने किसी स्टाॅप पर चिडियाघर का नाम नहीं लिया। चंद कदम बाद एक मोटा आदमी दिख गया तो चिल्ला पड़ा अप्पूघर-अप्पूघर-अप्पूघर। सब जानते थे कि ये बस अप्पूघर नहीं जाती, लिहाजा बस में ठहाका गूंज उठा। इसी तरह सड़क पर कुछ इठला-बलखा कर कुछ अजीब अंदाज में चलती लड़की को देख दिलफेक कंडक्टर बोला पागलखाने-पागलखाने-पागलखाने। जी हां कोई पागलखाना बस के रूट पर न होने पर भी। कंडक्टर की ये बदमाशियां यात्रियों को भी भरपूर मजा दे रही थीं। थोड़ी देर बाद एक स्टाॅपेज पर उसने कुछ ऐसी बात कही जिसमें आज के दौर की एक बहुत बड़ी सच्चाई और गहरा व्यंग्य छुपा हुआ था। इस व्यंग्य का भान उसे कत्तई नहीं, था पर एक पत्रकार होने के नाते मुझे इसका अहसास हुआ। दरअसल नोएडा से दिल्ली के रास्ते में एक रिहायशी बिल्डिंग पड़ती है समाचार अपार्टमेंट। इसके नजदीक आते ही वह चिल्ला पड़ समाचार वालों दरवाजा पकड़ लो-समाचार वालों दरवाजा पकड़ लो। उसका मतजब उस स्टाॅपेज पर उतरने वालों के उठ कर दरवाजे की ओर बढ़ने से था। बिल्डिंग और नजदीक आई तो उसका डाॅयलाॅग थोड़ा बदल गया- समाचार वालों पिछले गेट से निकल लो-पिछले गेट से निकल लो। उसकी बात ने जब मेरे दिमाग में क्लिक किया तो मैंने सोचा कि वाकई जाने-अनजाने ये अनपढ़ सा आदमी मीडिया जगत की कितनी बड़ी सच्चाई बयां कर रहा है। आज अखबारों और खासकर टीवी चैनलों को देखिए तो जरा। अखबार के नाम पर चल रहे इस ’ कारोबार ’ में समाचार वाकई दरवाजा पकड़ता जा रहा है। समाचार की जगह न्यूज बुलेटिन में ’आइटम’ परोसे जा रहे हैं। और तथ्य ही सर्वोच्च है, सर्वप्रथम है का एथिक्स पढ़कर पत्रकारिता में आने वाले लोग वाकई पिछले दरवाजे से बाहर किए जा रहे हैं। बिना किसी हो-हल्ले और शोर-शराबे के। उनकी जगह बिठाए जा रहे हैं अनुप्रास में डूबी हेडिंग लगाने वाले और फिल्मी डाॅयलाॅग की अंदाज में स्टोरी की काॅपियां लिखने वाले पत्रकारिता के नए कर्णधार। स्क्रीन पर भी अब दांत पीस-पीस कर और ओंठ चबा-चबा कर वीर और वीभत्स रस में, पूरे नाटकीय अंदाज में डाॅयलाग डिलिवरी करने वालों को ही जगह मिल रही है। गंभीर चेहरे और अंदाज वाले पत्रकार लगता है मीडिया की बस के पिछले दरवाजे से पड़ाव-दर-पड़ाव उतरते जा रहे हैं। एक-एक कर खत्म होता जा रहा है उनका सफर।