27 सितंबर 2009

तो ऐसे होती है दिल्ली में क्रांति, कमाल है!

एक खास विज्ञापन की तलाश में पिछले दो-चार दिन के हिन्दुस्तान टाइम्स के पन्ने पलट रहा था। एक पेज की लीड स्टोरी पर गया। चार-पांच काॅलम में छपी स्टोरी थी, रंगीन फोटो के साथ। फोटो में एक खूबसूरत सी लड़की अपनी छोटी सी कार पर चढ़ रही थी, बड़े अंदाज-ओ-अदा के ध्यानसाथ। ध्यान खिंचना लाजमी था भई। सोचा लाइफ स्टाइल वगैरह से जुड़ी कोई खबर होगी। पढ़ना शुरू किया तो मामला कुछ और ही निकला। स्टोरी बिजली से चलने वाली कार पर केन्द्रित थी। स्टोरी की शुरुआत अंगरेजी अखबारों की घिसे-पिटे नाटकीय अंदाज में थी कि ...वह जब अपनी नई-नवेली ई-कार में बैठती है तो...फलां-फलां-फलां...। खामखां किसी कंपनी में काम करने वाली एक कंप्यूटर इंजीनियर बाला को हाइलाइट करते हुए स्टोरी का बेहूदा सा ताना-बाना बुना गया था। लड़की शायद रिपोर्टर की परिचित रही हो, या शायद संपादक जी की ’ करीबी ’ रही हो या फिर कोई और बात रही हो, बात पता नहीं । यूं भी आउटपुट के बढ़ते दबाव के चलते अकसर रिपोर्टरों को कई बेमतलब की स्टोरीज लिखनी पड़ जाती हैं खबरों की गिनती बढ़ाने के लिए। मीडिया में यह एक कामन प्रैक्टिस हो गई है आजकल। हद वहां पार हो गई जब आगे की लाइनों में लड़की एक ’ साइलेंट रिवल्यूशन ’ का संवाहक बता कर महिमा मंडित कर दिया गया। संवाददाता का मानना था कि लड़की के बिजली की कार में चलने से पर्यावरण सुरक्षा की ओर एक मौन क्रांति आकार ले रही है। गोया कि एक दिन देश में सभी कारें बिजली से चलने लगेंगी और उस दिन गाड़ियों से होने वाला प्रदूषण थम जाएगा... आदि-आदि।रिपोर्टर महोदय के दिमाग की बलिहारी माननी पड़ेगी यहां दो बातों के लिए। एक तो क्रांति शब्द की उन्होंने जिस खूबसूरती से दईया-मईया की। दूसरे बिजली की कार से क्रांति आ जाने की उनकी समझ के लिए। जनाब ने दो मिनट को यह सोचने की जहमत नहीं उठाई कि देश में सारी कारें जब बिजली से चलने लगेंगी तो कोई क्रांति-वांति नहीं, सीधी-सीधी मुसीबत ही आ जाएगी। यार, आज की तारीख में जब हाल यह है कि जहां दस मेगावाट की जरूरत है, वहां चार-पांच मेगावाट बिजली का भी नहीं मिल पा रही है। यानि सप्लाई डिमांड के आधे के बराबर भी नहीं है। जब सारी कारें बिजली से चलने लगेंगी तो उनके लिए बिजली कहां से मिलेगी? मान लीजिए कि उत्पादन बढ़ा कर अगर बिजली मिलती भी है तो यह आएगी कहां से। हमारे देश के थर्मल पाॅवर स्टेशनों से ही, जो टनों-टन कोयला जलाकर, ढेरों धुआं हवा में छोड़ कर बिजली बनाते हैं। तो ऐसे में जितनी ज्यादा बिजली बनेगी कोयले की उतनी ही खपत होगी और हवा में उतना ही धुआं घुलेगा। प्रदूषण थमेगा कतई नहीं। हां कारें अगर सौर उूर्जा, या हाइड्रोजन से चलें और धुआं उगलने के बजाए साइलेंसर से पानी टपकाएं तो पर्यावरण की रक्षा हो सकती है। इसलिए हे रिपोर्टर महाशय क्रांति को अपने बिस्तरे पर आराम से सोने दो। बेचारी को खामखां में क्यों जगा कर छेड़ते हो। अपने मनोज कुमार को बुरा लगता होगा भई। रही बात लड़की को हाईलाइट करने की तो उसके और भी दर्जनों फालतू तरीके हो हो सकते हैं। दिमाग लगाओ, पर फार गाॅड शेक क्रांति के नाम पर कामेडी न करो प्लीज!!!

25 सितंबर 2009

दरोगा जी में जाग उठी ’ देवी ’

माथे पर रोली का लंबा सा टीका लगाए आज उनके मुख की शोभा कुछ अलग सी है। रोजाना के रौब के साथ-साथ एक अनूठा तेज टपक रहा है चेहरे से। जिप्सी की अगली सीट पर बैठे एसओ साहब पूरे एक्शन में हैं। अरे, एक्शन मतलब वसूली नहीं यार ! आप लोग तो खामखां एक ही जगह अटक जाते हो। अरे नौराते शुरू हो चुके हैं। कुछ तो धार्मिक हो जाओ। कुछ तो शुभ-शुभ बोलो। ---हां तो साहब एक्शन में हैं। पूरे धार्मिक मूड में। हर साल की तरह नवरात्रि में फिर से देवी जाग उठी है उनके भीतर मुंशी से लेकर सिपाही तक जानते हैं उनका यह रूप। गाड़ी चैराहे पर पहुंचते ही सारे के सारे वर्दी वाले टाइट हो जाते हैं। बूचड़खाने के सामने तैनात सिपाही को बुला कर फट पड़ते हैं। साले तेरी भैन की--- क्या कर रहा है यहां खडे़-खड़े सुबह से। कैसे लगा हुआ है गाड़ियों का मेला। खदेड़ सालों को दीवार के भीतर। सड़क पर भेड़-बकरियां फैला रखी हैं। सिपाही साहब का आदेश बजाने में तत्परता से जुट जाता है गाड़ी वालों की मां-बहन तोलते हुए। गाड़ियों पर डंडे फटकारता है। देखते ही देखते सड़क खाली। सारी गाड़ियां बूचड़खाने की चहरदीवारी के भीतर हो लेती हैं। कटने के लिए गए लाए गए मवेशी भी धड़ाधड़ अंदर धकेल दिये जाते हैं। सिपाही राहत की सांस लेकर पसीना पोछता है। गालियां एक बार फिर उसके होठों पर तैर आती हैं। इस बार गाड़ी वालों के लिए नहीं, थानेदार के लिए- ’ साला पहली तारीख से पहले ही महीने की पांच पेटियां खा जाता है कसाई के बाप से और हमसे पूछता है गाड़ियों का मेला क्यों लगा रखा है। बड़ा देवी का भक्त बना फिर रहा है, देवी जाग उठी है साले के भीतर नौरातों में। --- में बूता है तो पैसे खाना बंद कर दे गाड़िया तो यहां से ऐसी गायब कर दूंगा जैसे गधे के सिर से सींग।’ सिपाही का गुस्सा उबल रहा है। नादान नहीं जानता दरोगा के भीतर जागी ’देवी’ लाचार है महिषासुरों के आगे, कि महिषासुर ’ मैनेजमेंट गुरु ’ बन चुका है आज । सत्ता की गलियारों में उसके ही एजेंट भरे पड़े हैं। अकेली देवी किस-किस से पंगा लेगी।

20 सितंबर 2009

दाती गुरु का मंतर काम कर रहा है

मदारी की बाजीगरी दिल बहलाती है। लोग सिक्के फेकते हैं। मीडिया की बाजीगरी इससे कहीं गहरी है। व्यापकतर असर रखती है। चैनलों का चलाया दाती गरु का मंतर आजकल दिल्ली में खूब कमाल दिखा रहा है। दाती गुरु वही रजत शर्मा मार्का। इंडिया टीवी वाले। बाद में शायद अच्छा आफर मिला तो न्यूज-24 चले गए। आजकल वहीं से भक्तों को दीक्षा दे रहे हैं। भविष्य बांच रहे हैं। पहले शनि के प्रकोप से बचाते थे। दाती गुरू के मुख से चैनलों ने शनिदेव की महिमा ऐसी बखानी कि उनका अपना टीआरपी तो बढा ही, शनिदेव के भी दिन फिर गए। जरा दिल्ली की सैर कीजिए इनके मंतर का असर दिल्ली के दिल कनाट प्लेस तक पर नजर आएगा। मेटरो गेट, बस स्टाप, पालिका, फुटपाथ हर जगह शनि महाराज विराजे दिखाई देंगे। लोग खामखां डरते हैं इनसे इतना। जाने क्यों एक गुस्सैल सी विलेन टाइप इमेज बना रखी है बेचारे शनिदेव की। जरा गौर से देखिए चश्मा उतार कर। इनसे सीधा और लाचार कोई नजर नहीं आएगा आपको दिल्ली में। लाचार इसलिए की बिना कुछ चूं-चपड़ किए घंटों धूप में झुलस रहे हैं। सीधा इसलिए कि इनको साधना किसी भी दूसरे देवता को साधने से आसान हो गया है आजकल। न मूर्ति का खर्चा, न फोटो का, चैकी सजाने जैसी लग्जरी की तो बात ही छोड़िए। बस एक गत्ते पर फटा-पुराना-मैला-कुचैला जैसा भी मिल जाए एक काला कपड़ा ओढ़ा कर एक फूल माला चढ़ा दीजिए। सामने एक छोटे से बर्तन में तेल रख दीजिए। हो गया काम। अब देखिए शनि देव का कमाल। कुछ चमत्कार नहीं दिखा क्या! कैसे दिखेगा यार, दो-चार चिल्लर-विल्लर नहीं डालोगे जबतक अपनी तरफ से। भई अब इतना इंवेसमेंट तो करना ही पड़ेगा कोई भी नया धंधा जमाने में। तो एक, दो पांच के दो चार सिक्के डाल के परे हट लो। अब देखो शनिदेव कैसे फटाफट कमाई कर भरते हैं तुम्हारी जेब। दो-दो घंटे पर आकर रिटर्न कलेक्ट करते जाओ बस। हाथ-पांव डोलाने की कोई जरूरत नहीं, मगजमारी भी कुछ नहीं। एक दिन में एक का पंद्रह बटोरो। वो कहते हैं न, कि अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम; दास मलूका कह गए सबके दाता राम। मलुक दास ससुर बुडबक थे, जो शनि देव के एकाउंट का श्रेय राम के खाते डाल गए। शायद उनकी इसी गलती को सुधारने के लिए कलयुग में दाती गुरु का अवतार हुआ और रजत शर्मा उनके प्रमोटर बने। वर्ना इतना मंदी के इस दौर में इतने कम इंवेसमेंट में ऐसा चोखा धंधा कौन माई का लाल क्या खा के जमा लेता। शनिदेव भी शनीचर बने कहीं कोने में बैठे होते ललिता पवार जैसा मुंह बनाए। तो ’ हल्दी लगे न फिटकरी रंग भी चोखा आए ’ के इस कमाल को देखो। श्रद्धा उमड़े तो रुपया-दो रुपया चढ़ा दो, अपनी औकात देख कर। और जोर से बालो शनि देव की जय ! दाती गुरु की जय !! चैनल वालों की !!!

19 सितंबर 2009

दाती गुरु का मंतर काम कर रहा है

मदारी की बाजीगरी दिल बहलाती है। लोग सिक्के फेकते हैंै। मीडिया की बाजीगरी इससे कहीं गहरी है। व्यापकतर असर रखती है। चैनलों का चलाया दाती गरु का मंतर आजकल दिल्ली में खूब कमाल दिखा रहा है। दाती गुरु वही रजत शर्मा मार्का। इंडिया टीवी वाले। बाद में शायद अच्छा आफर मिला तो न्यूज-24 चले गए। आजकल वहीं से भक्तों को दीक्षा दे रहे हैं। भविष्य बांच रहे हैं। पहले शनि के प्रकोप से बचाते थे। दाती गुरू के मुख से चैनलों ने शनिदेव की महिमा ऐसी बखानी कि उनका अपना टीआरपी तो बढा ही, शनिदेव के भी दिन फिर गए। जरा दिल्ली की सैर कीजिए इनके मंतर का असर दिल्ली के दिल कनाट प्लेस तक पर नजर आएगा। मेटरो गेट, बस स्टाप, पालिका, फुटपाथ हर जगह शनि महाराज विराजे दिखाई देंगे। लोग खामखां डरते हैं इनसे इतना। जाने क्यों एक गुस्सैल सी विलेन टाइप इमेज बना रखी है बेचारे शनिदेव की। जरा गौर से देखिए चश्मा उतार कर। इनसे सीधा और लाचार कोई नजर नहीं आएगा आपको दिल्ली में। लाचार इसलिए की बिना कुछ चूं-चपड़ किए घंटों धूप में झुलस रहे हैं। सीधा इसलिए कि इनको साधना किसी भी दूसरे देवता को साधने से आसान हो गया है आजकल। न मूर्ति का खर्चा, न फोटो का, चैकी सजाने जैसी लग्जरी की तो बात ही छोड़िए। बस एक गत्ते पर फटा-पुराना-मैला-कुचैला जैसा भी मिल जाए एक काला कपड़ा ओढ़ा कर एक फूल माला चढ़ा दीजिए। सामने एक छोटे से बर्तन में तेल रख दीजिए। हो गया काम। अब देखिए शनि देव का कमाल। कुछ चमत्कार नहीं दिखा क्या! कैसे दिखेगा यार, दो-चार चिल्लर-विल्लर नहीं डालोगे जबतक अपनी तरफ से। भई अब इतना इंवेसमेंट तो करना ही पड़ेगा कोई भी नया धंधा जमाने में। तो एक, दो पांच के दो चार सिक्के डाल के परे हट लो। अब देखो शनिदेव कैसे फटाफट कमाई कर भरते हैं तुम्हारी जेब। दो-दो घंटे पर आकर रिटर्न कलेक्ट करते जाओ बस। हाथ-पांव डोलाने की कोई जरूरत नहीं, मगजमारी भी कुछ नहीं। एक दिन में एक का पंद्रह बटोरो। वो कहते हैं न, कि अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम; दास मलूका कह गए सबके दाता राम। मलुक दास ससुर बुडबक थे, जो शनि देव के एकाउंट का श्रेय राम के खाते डाल गए। शायद उनकी इसी गलती को सुधारने के लिए कलयुग में दाती गुरु का अवतार हुआ और रजत शर्मा उनके प्रमोटर बने। वर्ना इतना मंदी के इस दौर में इतने कम इंवेसमेंट में ऐसा चोखा धंधा कौन माई का लाल क्या खा के जमा लेता। शनिदेव भी शनीचर बने कहीं कोने में बैठे होते ललिता पवार जैसा मुंह बनाए। तो ’ हल्दी लगे न फिटकरी रंग भी चोखा आए ’ के इस कमाल को देखो। श्रद्धा उमड़े तो रुपया-दो रुपया चढ़ा दो, अपनी औकात देख कर। और जोर से बालो शनि देव की जय ! दाती गुरु की जय !! रजत दादा की !!!

14 सितंबर 2009

समाचार वालों पीछे से निकल लो

दिल्ली की बसों नगर बसों में सफर करना यूं तो अपने आप में एक यातना है, पर इस यातना में एक मजा भी कहीं छिपा हुआ है। यह मजा है कंडेक्टरों की बोली और चुहलबाजी का। कभी-कभी सोचता हूं कि जाने कब नजर पडे़गी ललित कला अकादमी वालों की, इन कलाकारों की कलाकारी पर। हर स्टाॅप पर खिड़की से सिर निकाल कर सवारियों को रिझा कर अपनी बस में चढ़ाने के लिए तरह-तरह के खटकर्म करते हैं बेचारे। पूरी सुर-लय-ताल में स्टेशनों के नाम एक सांस में ले जाते हैं बेचारे। इसमें भी मिनट-मिनट पर जुगलबंदी हो जाती है। एक सांस में जो जितने ज्यादा स्टाॅपेजों के नाम लेता है वही चैंपियन। जगहों के इन आड़े-तिरछे नामों को एक लय में लपेट कर झट से उगल देना वाकई आसान नहीं। यकीन न आए तो कभी आजमा कर देख लीजिए अकेले में। कलापक्ष के बाद बात करें इनकी चुहलबाजी की तो वह भी लाजवाब है जनाब। स्टाॅपेज के पास धीमी होती बस की तरफ कोई महिला बढ़ती दिख जाए तो कंडक्टर माहाशय चिल्लाएंगे- लेडीज सवारी है आगे से ले लो। इसके विपरीत आदमी आता दिखे तो उसका डाॅयलाॅग होगा- जेंड सवारी है पीछे से लो। आगे से लो और पीछे से लो का औपचारिक मतलब तो बस के अगले गेट और पिछले गेट से होता है पर अनौपचारिक और असली मतलब क्या होता है, समझने वाले खूब समझते हैं।नोएडा के गोल चक्कर स्टाॅप पर लंबा-चैडा भीमकाय सा आदमी सडक किनारे खडा दिखा। कंडक्टर उसे देखकर चिल्लाने लगा चिड़ियाघर-चिड़ियाघर-चिड़ियाघर, जबकि इससे पहले उसने किसी स्टाॅप पर चिडियाघर का नाम नहीं लिया। चंद कदम बाद एक मोटा आदमी दिख गया तो चिल्ला पड़ा अप्पूघर-अप्पूघर-अप्पूघर। सब जानते थे कि ये बस अप्पूघर नहीं जाती, लिहाजा बस में ठहाका गूंज उठा। इसी तरह सड़क पर कुछ इठला-बलखा कर कुछ अजीब अंदाज में चलती लड़की को देख दिलफेक कंडक्टर बोला पागलखाने-पागलखाने-पागलखाने। जी हां कोई पागलखाना बस के रूट पर न होने पर भी। कंडक्टर की ये बदमाशियां यात्रियों को भी भरपूर मजा दे रही थीं। थोड़ी देर बाद एक स्टाॅपेज पर उसने कुछ ऐसी बात कही जिसमें आज के दौर की एक बहुत बड़ी सच्चाई और गहरा व्यंग्य छुपा हुआ था। इस व्यंग्य का भान उसे कत्तई नहीं, था पर एक पत्रकार होने के नाते मुझे इसका अहसास हुआ। दरअसल नोएडा से दिल्ली के रास्ते में एक रिहायशी बिल्डिंग पड़ती है समाचार अपार्टमेंट। इसके नजदीक आते ही वह चिल्ला पड़ समाचार वालों दरवाजा पकड़ लो-समाचार वालों दरवाजा पकड़ लो। उसका मतजब उस स्टाॅपेज पर उतरने वालों के उठ कर दरवाजे की ओर बढ़ने से था। बिल्डिंग और नजदीक आई तो उसका डाॅयलाॅग थोड़ा बदल गया- समाचार वालों पिछले गेट से निकल लो-पिछले गेट से निकल लो। उसकी बात ने जब मेरे दिमाग में क्लिक किया तो मैंने सोचा कि वाकई जाने-अनजाने ये अनपढ़ सा आदमी मीडिया जगत की कितनी बड़ी सच्चाई बयां कर रहा है। आज अखबारों और खासकर टीवी चैनलों को देखिए तो जरा। अखबार के नाम पर चल रहे इस ’ कारोबार ’ में समाचार वाकई दरवाजा पकड़ता जा रहा है। समाचार की जगह न्यूज बुलेटिन में ’आइटम’ परोसे जा रहे हैं। और तथ्य ही सर्वोच्च है, सर्वप्रथम है का एथिक्स पढ़कर पत्रकारिता में आने वाले लोग वाकई पिछले दरवाजे से बाहर किए जा रहे हैं। बिना किसी हो-हल्ले और शोर-शराबे के। उनकी जगह बिठाए जा रहे हैं अनुप्रास में डूबी हेडिंग लगाने वाले और फिल्मी डाॅयलाॅग की अंदाज में स्टोरी की काॅपियां लिखने वाले पत्रकारिता के नए कर्णधार। स्क्रीन पर भी अब दांत पीस-पीस कर और ओंठ चबा-चबा कर वीर और वीभत्स रस में, पूरे नाटकीय अंदाज में डाॅयलाग डिलिवरी करने वालों को ही जगह मिल रही है। गंभीर चेहरे और अंदाज वाले पत्रकार लगता है मीडिया की बस के पिछले दरवाजे से पड़ाव-दर-पड़ाव उतरते जा रहे हैं। एक-एक कर खत्म होता जा रहा है उनका सफर।