19 मार्च 2015

नीयत ही नहीं, आप के वजूद पर भी है अब सवाल


‘औरों को नसीहत, खुद मियां फजीहत’ का जुमला आम आदमी पार्टी पर आज एक बार फिर सौ फीसदी फिट बैठता दिखा। मसला लोकसभा चुनाव खर्च का ब्योरा न दिए जाने के चलते चुनाव आयोग द्वारा पार्टी की मान्यता खत्म किए जाने को लेकर जारी नोटिस का है। यानी नीतय के साथ-साथ पार्टी के वजूद का भी सवाल है इस बार। वैसे तो आयोग की ओर से आप के साथ-साथ छह और पार्टियों को भी यह नोटिस भेजा गया है। इनमें पीपुल्स पार्टी ऑफ अरूणाचल, झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम), केरल कांग्रेस (एम), नेशनल पीपुल पार्टी ऑफ मणिपुर और हरियाणा जनहित कांग्रेस (बीएल) शामिल हैं। नोटिस को लेकर सबसे ज्यादा चर्चा आम आदमी पार्टी के नाम पर हो रही है और यह चर्चा वाजिब व ला‌जमी भी है। वजह है आप का खुद को पूरी तरह पाक-साफ बता कर हमेशा दूसरों पर कीचड़ उछालना।
पार्टी और उसके मुखिया अरविंद केजरीवाल हमेशा बुलंद आवाज में दावा करते रहे हैं कि वह सत्ता का सुख भोगने नहीं, देश की राजनीति को स्वच्छ करने आए हैं। स्वच्छता के इतने बड़े ठेकेदार हैं केजरीवाल तो रुपये-पैसे का हिसाब मांगते ही हमेशा बोलती क्यों बंद हो जाती है उनकी। बात चाहे उनके एनजीओ और आप को मिलने वाले चंदे की हो या चुनाव में खर्च किए गए पैसों की किसी का भी हिसाब देना उन्हें गवारा नहीं। पार्टी की फंडिंग को लेकर पहले भी कई बार सवाल उठ चुके हैं और स्टिंग तक सामने आ चुका है। हर बार कोई सॉलिड फैक्ट शीट या बैलेंस शीट सामने रखने के बजाय केजरीवाल और उनके बड़बोले सिपहसालार एक सवाल के जवाब में दूसरों पर दस सवाल दाग कर मामले को रफादफा करने की कवायद करते नजर आते हैं। यही इनकी सियासत है और चरित्र भी। पर मामला इस बार चुनाव आयोग का है किसी व्यक्ति, संगठन या प्रतिद्वांद्वी पार्टी का नहीं। जवाब तो देना ही पड़गा जनाब को इस बार क्योंकि बात अब बन आई है पार्टी के चुनाव चिन्ह और मान्यता पर। 
चुनाव आयोग के पास वह जो हिसाब-किताब भेजें सो अपनी जगह, पर इस बात की सफाई तो उन्हें सार्वजनिक तौर पर देनी चाहिए कि अगर उनकी पार्टी ने पैसे के दम पर चुनाव नहीं लड़ा और नियमों-कानूनों के पालन में दुनिया में इकलौते वही सच्चे हैं, तो लोकसभा चुनाव के करीब नौ माह बीत जाने पर भी पार्टी चुनाव खर्च का ब्योरा क्यों नहीं दे सकी। ऐसा भी नहीं कि चुनाव आयोग का यह पहला नोटिस हो। इससे पहले आयोग की ओर से इस बारे में 22 अक्टूबर और 28 नवंबर को रिमाइंडर भेजे जा चुके हैं। इसके बावजूद पर कान पर जूं तक नहीं रेंगी जनाब के, जिसके बाद आयोग को अब अंतिम कारण बताओ नोटिस जारी करना पड़ा है। नोटिस में आयोग ने चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) नियम की धारा 16 (ए) का हवाला देते हुए 20 दिनों के भीतर जवाब न मिलने पर चुनाव चिह्न और मान्यता रद्द करने की बात कही है। 
आप से जुड़ी एक खबर और आई है, हालांकि इसमें उसे अदातल की ओर से राहत मिल गई है, पर यह मामला भी पार्टी और उसके ‌मुखिया के चाल-चरित्र और नीयत पर सवाल जरूर खड़े करता है। दिल्ली हाई कोर्ट ने आप का रजिस्ट्रेशन रद्द करने के लिए चुनाव आयोग को निर्देश देने की मांग करने वाली याचिका को आज खारिज कर दिया। याचिका पार्टी पर पंजीकरण के लिए कथित तौर पर जाली दस्तावेजों का इस्तेमाल करने का आरोप लगाते हुए हंसराज जैन की ओर से दाखिल की गई थी। उन्होंने आरोप लगाया था कि निर्वाचन आयोग ने जल्दबाजी में बिना पर्याप्त जांच के, झूठे और जाली दस्तावेजों के आधार पर किया था। जैन ने दावा था कि आप के कुछ सदस्यों ने अपने शपथ पत्रों में घर के जो पते दिए थे, मतदाता पहचान पत्र या आयकर रिटर्न से मिलान करने पर उनमें अंतर था। इसके अलावा रजिस्ट्रेशन के लिए दिए गए आवेदन पत्र में आप द्वारा भारत के राष्ट्रीय चिह्न अशोक चक्र का इस्तेमाल करने का मामला भी याचिका में उठाया है। याचिका में कहा गया है कि आप ने 3 दिसंबर 2012 को पार्टी के ‌रजिस्ट्रेशन के लिए आवेदन करते वक्त अपने लेटर पैड पर अशोक स्तंभ का इस्तेमाल किया था, जोकि संविधान का उल्लंघन है क्योंकि कोई भी राष्ट्रीय चिह्न का निजी इस्तेमाल नहीं कर सकता। चुनाव आयोग ने कोर्ट को बताया था कि जरूरी दस्तावेज मिलने पर ही पार्टी के रजिस्ट्रेशन को मंजूरी दी गई है और इसमें किसी भी तरह के नियमों का उल्लंघन नहीं किया गया है। ऐसे में कोर्ट की ओर से चाचिका खारिज कर दी गई। हालांकि इसके बावजूद यह सवाल तो उठता ही है कि अगर केजरीवाल पार्टी वीआईपी कल्चर और सत्ता की सुविधाओं के खिलाफ है तो लेटर हेड में अशोक चक्र का इस्तेमाल क्यों किया गया और अगर ऐसा हुआ तो देशभर की सफाई का ठेका लेने वाले केजरीवाल ने अपने स्तर पर इसमें क्या कार्रवाई की।

18 मार्च 2015

काले धन पर काली नीयत ?


राज्यसभा में वित्त मंत्री एक बार फिर से अपने चिर-परिचित अंदाज में मोदी सरकार द्वारा काले धन पर लगाम कसने के लिए सख्त कदम उठाए जाने का दम भरते दिख। वह संसद में सरकार द्वारा इस संबंध में पेश किए जा रहे विधेयक के समर्थन में दलीलें दे रहे थे। जेटली काले धन पर नए कानून के लिए प्रस्तावित इस विधेयक को अभूतपूर्व और पूरी तरह कारगर बता रहे थे। वित्तमंत्री का कहना था कि सरकार इसमें बहुत सख्त उपाय कर रही है, जिससे काले धन की समस्या से काफी हद तक निजात पाई जा सकेगी। उनके दावे अपनी जगह हैं, पर बिल के कुछ प्रमुख प्रावधानों पर गौर करें तो, यह समस्या को हल करने वाले कम और करदाताओं के लिए नई दिक्कतें खड़ी करने वाले ज्यादा लग रहे हैं। बिल में आयकर रिटर्न न भरने और रिटर्न में आय कम दिखाने पर 10 साल तक की सजा का प्रावधान है। आयकर जुटाने के लिए अपने देश में खड़े किए गए सरकारी तंत्र के चाल-चरित्र पर गौर करें, तो इस प्रावधान के दुरुपयोग की भारी आशंका नजर आती है। एक तरह से यह इंस्पेक्टर राज को बढ़ावा देने में भी सहायक साबित हो सकता है। 
यह आशंका बेवजह नहीं कही जा सकती, क्योंकि देश में आयकर विभाग की कार्यप्रणाली और कर संग्रह का जो तरीका है उसमें आयकर के दायरे में सबसे पहले और सबसे ज्यादा वेतनभोगी कर्मचारियों और पेशेवर (प्रोफेशनल) लोगों का वर्ग आता है। गौरतलब है कि इस वर्ग के लोगों को उनका वेतन या भुगतान देय आयकर की कटौती करने के बाद ही किया जाता है। कर्मचारियों को अपने नियोक्ताओं के पास सालाना आय और उसमें छूट पाने के लिए किए गए निवेश व अन्य उपायों का डिक्लेयरेशन वित्त वर्ष के शुरू में ही दाखिल कर देना होता है। इसके आधार पर उनकी करयोग्य आय और देय कर की गणना करके नियोक्ता की ओर से वेतन में से आयकर की कटौती की जाती है। इसी तरह प्रोफेशनल लोगों को भी भुगतान आय के स्रोत से ही कर कटौती (टीडीएस) के बाद ही किया जाता है। ऐसे में इस वर्ग के लिए कर से बच पाने के रास्ते बहुत सीमित होते हैं। आयकर छूट की 2.5 लाख रुपये की सीमा और विभिन्न धाराओं के तहत निवेश और अन्य छूटों के चलते सालाना 4.22 लाख रुपये तक की आय वाले व्यक्ति की कर देयता शून्‍य रह सकती है। ऐसे में इस वर्ग में अच्छी खासी तादाद में ऐसे लोग भी होते हैं जिनपर कोई कर देयता बनती ही नहीं। इसके साथ ही ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं, जिनपर कर देयता इतनी ही बनती है, जितना कर वह सरकार को खुशी-खुशी देने को तैयार होते हैं और इसका रिफंड पाने के लिए उनके पास कोई आधार नहीं होता। साथ ही कई बार रिफंड की रकम ऐसी होती है कि रिटर्न दाखिल करने का खर्च उससे ज्यादा बैठता है। ऐसे में इन लोगों के लिए रिटर्न भरना वाकई एक बड़ी सिरदर्दी है, पर आयकर कानून रिटर्न भरने को जरूरी बताता है। सरकार ने रिटर्न भरने के फार्म का नाम भले ‘सरल’ रख दिया है, पर लोग जानते हैं कि यह कतई सरल नहीं है। फार्म को किसी सीए, वकील या कंसल्टेंट की सलाह के बिना बिरले ही भर पाते हैं। ऑनलाइन रिटर्न में भी यही फार्म भरा जाता है। ऐसे में झंझट और पेचीदेपन के चलते कई लोग रिटर्न दाखिल नहीं कर पाते।  ऐसे में नए बिल में रिटर्न न भ्‍ारने पर जेल के प्रावधान की गाज इस वर्ग के लोगों पर पड़ने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। देखा जाए तो इस तरह के प्रावधान विधि शास्‍त्र के उस मूल सिद्धांत के भी खिलाफ हैं, जिसके मुताबिक जब तक आप पर दोष्‍ा साबित न हो, आप बेकसूर हैं। 
काले धन के मसले से जुड़े सियासी पहलू पर भी गौर करें, तो मोदी सरकार का यह कानून चुनाव प्रचार में उनकी ओर से किए गए बड़े-बड़े दावों को सच करने की दिशा में कुछ करता दिखाई नहीं देता। रैलियों में 56 इंच का सीना ठोंक कर मोदी बार-बार दावे कर रहे थे कि विदेशों में जमा काला धन वापस लाया जाएगा। कालाधन वापस आया तो हर देशवासी के खाते में 15 लाख रुपये का पॉप्युलिस्ट जुमला भी उछाला गया था। इधर सुब्रमण्यम स्वामी और अरुण जेटली भी काला धन वापस लाने की राह में अंतरराष्ट्रीय समझौतों की बाध्यताओं की यूपीए की बात को कोरी बहानेबाजी बता रहे थे। सुब्रमण्यम स्वामी तो महज 100 दिनों के भीतर कानूनी ढंग से यह अड़चने दूर कर देने का दावा कर रहे थे। उधर योग गुरु रामदेव भी काले धन के खिलाफ यात्रा पर निकल पड़े थे। उनका कहना था कि सत्ता में आने के बाद अगर मोदी काला धन लाने का वादा पूरा नहीं करते तो वह उनके खिलाफ भी आंदोलन करेंगे। नई सरकार बने महीनों बीत गए। हर खाते में 15 लाख तो क्या, विदेश में जमा काले धन की रकम का एक धेला भी देश नहीं आया। बड़े-बड़े दावे करने वाले इस पर चुप हैं। सख्त कानून बनाने की बात कह कर पुराने दावों और वायदों से मुंह फेरा जा रहा है। सीधी सी बात है कि नया कानून बहुत कारगर भी हुआ, तो आगे चलकर काले धन पर रोक लगाने के काम आएगा। विदेश में जमा लाखों करोड़ की रकम वापस लाने के मोदी, जेटली, स्वामी और रामदेव के बड़े-बड़े वादों का क्या हुआ। काले धन और कर संबंधी सख्ती पर सरकार की नीयत की एक बानगी आम बजट में गार (जनरल एंटी-एवाइडेंस रूल) पर अमल को दो साल के लिए टाले से भी देखने को मिलती है।

17 मार्च 2015

चौधरी जी लड़ेंगे ओबीसी के ‘तमगे’ के लिए

सुप्रीम कोर्ट ने जाटों को ओबीसी  की लिस्ट से बाहर करने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। कोर्ट के ‌आदेश में फैसले से ज्यादा महत्वपूर्ण और काबिलेगौर उसकी टिप्पणियां (आब्जर्वेशन) मुझे लग रही हैं। देश की शीर्ष अदालत ने न केवल महज वोट की खातिर यूपीए सरकार द्वारा आनन-फानन में लिए गए इस फैसले को रद्द किया है, बल्कि इस तरह की सियासी कवायदों पर भी गंभीर सवाल उठाए हैं। यहां ध्यान रखने वाली बात यह भी है कि वोटों के लिए किसी समुदाय विशेष के तुष्टीकरण के ऐसे कदम उठाने का ठीकरा केवल यूपीए या कांग्रेस पर फोड़ना ठीक नहीं होगा। मनमोहन सरकार को पानी पी-पी कर कोसने के बाद सत्ता में आई भाजपा नीत एनडीए सरकार ने भी जाटों को ओबीसी श्रेणी में शामिल करने का समर्थन करते हुए इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया था। इस लिए यह तमाचा दोनों ही के गालों पर है।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि आरक्षण केवल जातिगत आधार पर नहीं होना चाहिए। इसके लिए पिछड़ेपन जैसे सामाजिक-आर्थिक (सोशियो-इकनॉमिक) कारणों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। सौ फीसदी सही बात लगती है यह। जाट-गुज्जरों के सामाजिक परिवेश पर जरा नजर डालिए तो आए दिन देश के कानून व संविधान को चुनौती देने वाले फैसले तमाम फैसले इनकी खाप-पंचायतों की ओर से आते रहते हैं। नाम के आगे चौधरी लगाने और उसी के मुताबिक चौधरी गिरी दिखाने की प्रवृत्ति साफ नजर आती है इन फैसलों में। इसके बावजूद जब आरक्षण के सहारे सरकारी नौकरी और अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ लेने की बारी आती है तो चौधरी जी बड़े बेचारे बन जाते हैं, खुद को पिछाडों की कतार में खड़े होकर मलाई खाना चाहते हैं। अजब देश है हमारा। दुनिया में लोग पिछड़ेपन से उबरने के लिए जी-जान एक करते हैं, तो हमारे यहां खुद को पिछड़ी जमात में शामिल करने की जद्दोजहद होती है। न्यूज चैनल पर जाटों के एक नेता कोर्ट के फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कह रहे थे कि जाट ओबीसी कैटेगरी ‘डिजर्व’ करते हैं और हम इसके लिए ‘कंटेस्ट’ करेंगे। जरा शब्दों पर गौर कीजिए नेता जी के और शब्दों के जरिए पढ़िए इनकी मानसिकता। ओबीसी कैटेगरी मानो कोई बहुत बड़ा अचीवमेंट है, जिसे जाट ‘डिजर्व’ करते हैं और इसमें शामिल होना कोई रुतबा या तमगा है जिसके लिए ‘कंटेस्ट’ करेंगे। नेता जी समाज में शिक्षा-जागरूकता और उद्यमशीलता लाने की बात नहीं करते, क्योंकि इसमें खतरा है। खतरा ‌यह कि कम्यूनिटी अगर पढ़-लिख कर जागरूक हो जाएगी, तो  खाप-पंचायतों में बैठ कर तुगलकी फरमान कैसे सुनाएंगे चौधरी साहब। फिर किस पर और रौब झाड़ेंगे भला। इसलिए पढ़ाई-लिखाई और काम-काज की बात नहीं करेंगे। जाटों के माथे पर ओबीसी का लेबल चिपकाने के लिए लड़ेंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में एक और बहुत अहम बात कही है। कोर्ट ने कहा है कि आजादी के बाद से ओबीसी कैटेगरी में शामिल जातियों और इस वर्ग के तहत आने वाली आबादी में इजाफा ही हुआ है। इस कैटेगरी में एक के बाद एक नई-नई जातियां जोड़ी गई हैं। आज तक कोई जाति इस कैटेगरी से बाहर नहीं की गई है। बहुत गहरा सवाल है यह हमारी सत्ता और सियासत के चरित्र पर। आजादी के बाद अगर पिछड़ों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है, तो यह बताता है कि हमारी खुद की सरकार अंग्रेजों की उपनिवेशवादी सरकार से भी गई-गुजरी है। यानी हमारा खुद का शासन फिरंगियों की हुकूमत से भी सड़ा-गला है, जो समाज में पिछड़ेपन को घटाने व खत्म करने के बजाय आगे बढ़ा रहा है। वास्तव में जातीय आधार पर आरक्षण की इस व्यवस्था पर गरहाई से गौर करें तो इस विरोधाभास की कलई खुलती नजर आती है। दरअसल आजादी के बाद सामाजिक-आर्थिक और जातीय आधार पिछड़ापन तो वाकई कम हुआ है, पर कोई भी वर्ग खुद इस कैटेगरी से बाहर आकर ओबीसी या एससी-एसटी कैटेगरी से बाहर आकर इससे मिलने वाले लाभों को गंवाना नहीं चाहता। उल्टे एक के बाद एक जातियां खुद को इस कैटेगरी में डालने की मांग उठाती रहती हैं। यह स्थिति दुर्भाग्पूर्ण है। गौरतलब है कि संविधान के मुख्य शिल्पी माने जाने वाले डा. अंबेडकर खुद एससी-एसटी और ओबीसी को जातिगत आधार पर आरक्षण दिए जाने के विरोध में थे। कई तरह के दबावों और लंबी चर्चा के बाद आखिरकार उन्होंने महज दस साल के लिए आरक्षण की बात स्वीकार की थी, पर देश का दुर्भाग्य देखिए आजादी के सातवें दशक में भी यह ‘दस साल’ अब तक पूरे नहीं हुए, बल्कि आरक्षण के युग को अनंत काल तक जारी रखने और एक के बाद एक जातियों और समुदायों को इसमें शामिल करने की हुंकार भरी जा रही है।

15 मार्च 2015

कितने मुखौटे केजरीवाल के !

देश की सियासत के तौर-तरीके और दिशा बदल देने के इरादे जताने वाली आम आदमी पार्टी (आप) को दिल्ली में सत्ता नशीं हुए बमुश्किल अभी महीने भर ही बीते हैं कि दलीय राजनीति की सारी खामियां उसके डीएनए में समाती नजर आ रही हैं। एक के बाद एक हो रहे खुलासे, विवाद और खुद आप की कारगुजारियां पार्टी प्रमुख अरविंद केजरी वाल के चेहरे से मुखौटे उतारती जा रही हैं। योगेन्द्र यादव व प्रशांत भूषण को पार्टी की कार्यकारिणी से बाहर निकालने, अरविंद केजरीवाल का स्टिंग ऑपरेशन सामने आने और उसके बाद महाराष्ट्र में पार्टी की कमान संभालने वाली अंजली दामनिया के इस्तीफे के बाद आप एक बार फिर से गलत वजहों से खबरों में है। खबर है कि दिल्ली में आप की सरकार ने अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया है। इसे लेकर आम आदमी पार्टी की खासी आलोचना हो रही है क्योंकि दिल्ली में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में थोक के भाव में संसदीय सचिव बनाए गए हैं। पद के लिए काम करने और सरकारी रुतबे की चकम-दमक से दूर रहने का उपदेश अपने विधायकों देने वाली आप पर हमला बोलने का मौका अन्य पार्टियों को मिल गया है। भाजपा इसे आप में चल रही अंदरूनी लड़ाई का नतीजा बताते हुए कह रही है कि विधायकों को अपने साथ रखने के लिए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उन्होंने संसदीय सचिव बना दिया है। सवाल यह भी उठता है कि तुष्टीकरण की राजनीति की जमकर आलोचना करने वाली आप का यह कदम क्या अपने विधायकों का तुष्टीकरण नहीं है? पार्टी के इस विशुद्ध सियासी कदम पर इससे भी बड़ा सवाल यह है कि इससे सरकारी खजाने पर बोझ तो बढ़ेगा क्योंकि सरकार के इस फैसले से इन विधायकों को अब राज्य मंत्री का दर्जा मिल जाएगा और उन्हें उससे जुड़ी सुविधाएं भी दी जाएंगी। जनता के पैसे से चलने वाली सरकार पर आर्थिक बोझ बढ़ाने वाला यह कदम दिल्ली में निश्चित रूप से एक गलत परंपरा की शुरुआत भी करेगा। जाहिर है कि पाक-साफ राजनीति करने का दम भरने वाली आम आदमी पार्टी ने यह फैसला करके अपने दोहरे मापदंडों का एक और प्रमाण दिया है।
 इससे पहले योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को कार्यकारिणी से चलता करने के कदम ने इतना तो जगजाहिर कर ही चुकी है कि चुनावी सभाओं में बड़ी गरज के साथ राजनीतिक दलों में सुप्रीमोवाद की आलोचना करने वाले अरविंद केजरीवाल खुद आप के सुप्रीमो बने बैठे हैं। पद और पैसे के मोह के बिना लोगों की सेवा करने की वह बात करते हैं, तो संयोजक पद छोड़ने में जान क्यों जा रही है। सीएम और पार्टी संयोजक दोनों पदों पर क्यों विराजमान रहना चाहते हैं। केजरी गुट तर्क देता है कि बतौर सीएम उन्होंने अपने पास कोई पोर्टफोलियो नहीं रखा है। इसलिए संयोजक की जिम्मेदारी निभाने में उन्हें कोई बाधा नहीं आएगी। इस तर्क में दो खामियां हैं। पहली बात यह कि सवाल काम में बाधा आने का नहीं एक व्यक्ति के पास दो-दो पद होने का है, जिसे भाजपा, कांग्रेस सहित ज्यादातर ऐसी पार्टियां भी स्वीकार करती हैं, जिनके तौर-तरीकों की आम आदमी पार्टी हमेशा से आलोचना करती आई है। तो ऐसे में दोनों पदों पर कब्जा जमा कर केजरीवाल उनके सिपहसालार किस मुंह से बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। दूसरी बात यह है कि केजरी हमेशा कहते रहे हैं कि उन्हें पद और सरकारी रुतबे से कोई लेना-देना नहीं। केजरीवाल इतने बड़े संत हैं तो फिर उन्हें सीएम का पद लेने की जरूरत नहीं। वह केवल संयोजक रह कर भी अपनी सरकार को पटरी पर रखते हुए काम करवा सकते हैं, जिस तरह की बात सोनिया गांधी के लिए कही जाती है कि पीए बने बिना उनकी मर्जी से ही सरकार चलती थी।
इस तरह देखा जाए तो पार्टी और सरकार दोनों ही में सबसे अहम पद को अपने पास रखने का कोई औचित्य किसी तरह नहीं बैठता। यह निश्चित रूप से केजरीवाल की कथनी-करनी के भेद को उजागर करता है। साथ ही सबसे बड़ा सवाल उनकी ‌नीयत पर भी खड़ा करता है। खुद अन्ना हजारे केजरीवाल का स्टिंग सामने आने पर उनकी नीयत पर अब शक उठाने लगे हैं। अन्ना का साफ कहना है कि केजरीवाल ने सिर्फ उनका नहीं, पूरे देश का भरोसा तोड़ा है।

12 मार्च 2015

करेंगे ‘मन की बात’ बताओ प्रॉब्लम

देश की कुंडली में किस्मत का विरोधाभास देखिए। पिछले प्रधानमंत्री के मुख से बोल ही नहीं फूटते थे, तो नए पीएम बतोलेबाजी में निकले वर्ल्ड चैंपियन। चुनावी सभाओं में इनके बड़बोलेपन, बड़े-बड़े वादों और दस साल से राज कर रही मनमोहन सरकार (ये अलग बात है कि उनकी चलती कुछ न थी) के प्रति जनता की खीझ ने कुछ ऐसी कैमेस्ट्री बनाई कि भाजपा स्पष्ट और अपूर्व बहुमत के साथ सत्ता में आ गई। महंगाई को 100 दिन में जमीन पर लाने और विदेशों में जमा कालेधन को भारत लाकर हर खाते में 15 लाख के जनता को दिखाए गए सपने तो न पूरे होने थे न हुए, इसके बावजूद जनाब जारी हैं ‘मन की बात’ के जरिए देश को मीठी घुट्टी पिलाने में।
गजब का कार्यक्रम है ‘मन की बात’ पिछले वायदों का कोई हिसाब-किताब नहीं, नए सपने हाजिर। कभी बच्चों से, कभी युवाओं से बात करने के बाद पीएम साहब कि नजरे इनायत करने जा रहे हैं देश के किसानों पर। ‘मन की बात’  की अगली कड़ी के लिए किसानों से उनकी समस्याएं पूछी हैं ‘सरकार’ ने। किस दुनिया में जी रहे हैं देश के प्रधानमंत्री, जो बेमौसम हुई बारिश से बर्बाद हुई किसानों की फसलें इन्हें दिखाई नहीं दे रहीं। कर्ज न चुका पाने के डर से किसानों की आत्म हत्या की खबरें इनके कानों तक नहीं पहुंचीं। कपास किसानों की आत्महत्याओं का न थमता दौर भी इनके नोटिस में नहीं आ सका। इन्हें ‘मन की बात’ करने के लिए अभी किसानों से समस्या पूछने की जरूरत है। लग रहा है कि सरकार ने किसानों सारे दुख हर लिए, सारे कष्ट दूर हो गए और अब कोई समस्या नजर ही नहीं आ रही है। सो पूछा जा रहा है कि भइया कोई प्राब्लम हो तो बताओ, वो भी दूर कर देंगे चुटकी बजा कर।
 रेल बजट में खाद की ढुलाई बढ़ा दी। देश भर में किसानों को खेती के लिए बिजली-पानी की समस्या से अब भी जूझना पड़ रहा है, पर मोदी जी को यह घिसी-‌पिटी ‘आउट डेटेड’ समस्याएं नहीं चाहिए। कोई नई प्रॉब्लम बताइये, तो उस पर करेंगे बात। ‌बेचारा किसान मोदी जी के लिए नई प्रॉब्लम कहां से लाए? क्या बताए सरकार को कि वाईफाई कनेक्टिविटी ठीक से नहीं मिल रही या लैपटॉप की हार्ड डिस्क क्रैश कर गई है, ग्राफिक कार्ड ठीक से परफार्म नहीं कर रहा, हम फुल स्पीड में जीटीए-4 नहीं खेल पा रहे। बेटे का पीएस-4 ठीक से नहीं चल रहा। मर्सिडीज का रियर एसी ठीक से कूलिंग नहीं कर रहा और म्यूजिक सिस्टम का बेस ट्यूब भी ठीक से बूम नहीं कर रहा। इस किस्म की कुछ समस्या बताइये, तो बात करेंगे मोदी जी। भूमि अधिग्रहण बिल को किसान विरोधी बताकर धरना देते और पद यात्रा निकालते अन्ना हजारे की चिट्ठियों का कोई जवाब पीएमओ आज तक नहीं दे सका, पर ‘मन की बात’ के लिए इन्हें नई समस्याओं का फीडबैक चाहिए। जिए रहो राजा खाम ख्याली में।



3 मार्च 2015

सब्सिडाइज्ड खाना डकार कर देश पर एहसान कर रहे हैं हुजूर

हुजूर की महिमा निराली है और मीडिया में बैठे इनके पालतू संपादक भी हैं पूरे वफादार। रेल बजट में यात्री किराया न बढ़ाकर सीना चौड़ा किया और यूरिया से लेकर अनाज तक का भाड़ा बिना बताए ही बढ़ा दिया। आम बजट के दिन भी यह खेल उसी शातिराना अंदाज में दोहराया गया। फ्यूचरिस्टक और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने वाले बजट का नगाड़ा पीट कर पेट्रोल 3.18 रुपये और डीजल 3.09 रुपये प्रति लीटर महंगा कर दिया। उधर चैनलों पर इनके चेले संपादक जनता को इस बहस में उलझाए रहे कि बजट कॉरपोरेट था या प्रो-पब्लिक। अगले दिन पार्टी के दशकों पुराने धारा 370 और एक विधान-एक प्रधान-एक निशान के सिंहनाद को ठंडे बस्ते में डालकर न केवल जम्मू-कश्मीर में सत्ता के भागीदार बन बैठे। उनकी गरिमामय उपस्थिति में हुए शपथ ग्रहण समारोह के महज घंटे भर बाद ही सूबे के नए दरियादिल मुखिया ‌मुफ्ती साहब ने चुनाव की सफलता का श्रेय पाकिस्तान, अलगाववादियों और आतंकवादियों को देकर इन्हें कायदे से आईना और ठेंगा एक साथ दिखा दिया। मानना पड़ेगा 56 इंच वाले यह जनाब हैं बड़े जिगरे वाले। माथे पर कोई शिकन नहीं। अगले दिन देश पर एक और अहसान करने के लिए संसद की कैंटीन में भारी सब्सिडाइज्ड रेट पर मिलने वाला खाना खाने पहुंच गए। पालतू संपादक फिर जुट गए क्या खाया, गेस्ट बुक में क्या लिखा और थाली के पैसे खुद ही दिए जैसे चमत्कारी फैक्ट चमका-चमका कर पैकेज रन कराने में। क्या मजाल कि कोई सवाल उठा दे कि तनख्वाह से लेकर माचिस खरीदने तक हर कदम पर टैक्‍स अदा करने वाले वेतन जीवी मध्य वर्गीय को सब्सिडी का सिलेंडर देने में सरकार की नानी मर रही है, तो लागत के चौथाई से भी कीमत पर ‌संसद की कैंटीन में मिलने वाला शाही खाना क्यों गटक रहे हैं जनाब? न ही यह सवाल उठा कि ट्रेनों में पूरा पैसा देकर भी यात्री कॉकरोच और फंगस वाला बेस्वाद खाना खाने को मजबूर हैं, पर माननीयों को कैंटीन में शुद्ध घी में पका हलवा और फुल क्रीम दूध में बनी फ्रूट क्रीम कैसे मिल रही है। क्वालिटी का यह प्रबंधन अगर संसद की कैंटीन में किया जा सकता है, तो रेलवे में क्यों नही?