'ज्ञानोदय' के मीडिया विशेषांक में पत्रकारिता की दुनिया के 'बड़े लोगोंÓ अनुभवों और संस्मरणों के रास्ते कहीं न कहीं मीडिया के चाल-चरित्र में हाल के वर्षों में आए बदलाव की झलक देखने को मिली। विनोद दुआ ने अपने आलेख में पत्रकारिता की चुनौतियों के एक व्यावहारिक पहलू को छूते हुए गंभीर सवाल उठाया है। सवाल पत्रकारिता में उभरती एक नई प्रवृत्ति, गहरे में जाएं तो उसके बदलते चरित्र को लेकर है। मुद्दा है पत्रकारिता में उभरते 'जी-फैक्टर' का। दुआ साहब का आब्जर्वेशन है कि भाजपा को कवर करने वाले बहुत से पत्रकार अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के नाम के आगे 'जी' लगाते लगाते हैं। वह सवाल उठाते हैं कि क्या पत्रकारों का बे्रनवॉश किया जा रहा है गांधीजी और नेताजी आदि महापुरुषों के समकक्ष 'अटल जी' और 'आडवाणी जी' को प्रतिष्ठïापित करने के लिए। इस अजीबोगरीब चलन केपीछे आदत या 'व्यावहारिकताÓ की संभावनाओं को दरकिनार करते हुए वह यह भी पूछते हैं कि ऐसा सोनिया गांधी, मनामोहन सिंह, जैसी कांगे्रस की कद्दावर हस्तियों के साथ देखने को क्यों नहीं मिलता। भाजपा के भी मुरली मनोहर जोशी, जसवंत सिंह (फिलहाल निष्काषित) सरीखे अन्य वरिष्ठï नेताओं के नाम के साथ भी कोई जी नहीं लगाता। तो आखिर इस अटल-आडवाणी से जुड़े इस 'जी-फैक्टर' की वजह क्या है?
गहराई से देखें तो इन सवालों का जवाब खुद सवालों में ही छिपा नजर आता है। गौर करने वाली बात यह है कि संवाददाताओं में यह प्रवृत्ति पिछले एक दशक के कुछ वर्षों से ही देखने को मिल रही है। यानि भाजपा के केंद्रीय सत्ता में आने के बाद से। इससे पहले वही अटल-आडवाणी थे, मीडिया वही था, पर खबरों में 'जी' शब्द सुनाई नहीं देता था। जाहिर है यह 'कमाल' कहीं न कहीं भाजपा के हाथ सत्ता आने के साथ जुड़ा हुआ है। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि भाजपा के सत्तासीन होने का यह दशक मीडिया के लिए भी तेजी से विस्तार का दशक था। साथ ही साथ चाल-चरित्र और दिशा के लिहाज से उसके लिए यह एक संक्रमण-काल भी था। 'चैनल क्रांति' के इन वर्षों में एक के बाद एक न्यूज चैनलों की झड़ी लग गई। जाहिर है, इन चैनलों को चलाने के लिए बड़ी संख्या में पत्रकारों की जरूरत पड़ी। इस बहती गंगा में नहाने का सबसे ज्यादा 'पुण्य' मिला दिल्ली के उन पत्रकारों को जो सियासी गलियारों में टहलते फिरते थे। वर्षों से उनके लिए आसानी से उपलब्ध रहे कई भाजपा नेताओं के सिरों पर अब लाल बत्ती की आभा चमक रही थी। नेताओं के इस 'अपग्रेडेशन' का लाभ उनसे 'जुड़े' पत्रकारों को मिला चैनलों में भारी-भरकम पैकेज वाली नौकरियों के रूप में। पत्रकारिता में 'जी-फैक्टर' का प्रवेश इसी रास्ते हुआ जान पड़ता है। अचानक से चार-चार गुनी तन्ख्वाह पाने वाले पत्रकारों की 'उपकृत और चमत्कृत' यह जमात नेताजी के एहसान का बोझ ढो रही थी। उन नेताओं के 'सिफारिशी-उपकार' का बोझ, जिनके लिए अटल 'अटल जी' और आडवाणी 'आडवाणी जी' थे। नए-नए 'अपग्रेडेशन' के चलते यह नेता और पत्रकार दोनों थोड़े कच्चे साबित हुए। न तो भाजपा को अभी कांगे्रस की तरह 'सोफेस्टिकेटेड' ढंग से मीडिया को मैनेज करना आया था, न यह पत्रकार पूरी तरह से 'हाईफाई और टैक्टफुलÓ हो सके थे। आपसी बातचीत में दोनों ही 'अटल जी-आडवाणी जी' संबोधनों का इस्तेमाल करते थे। उनका यह कच्चापन (पेशे के लिहाज 'फूहड़पनÓ कहना ज्यादा उपयुक्त होगा) ही खबरों के पीटीसी, वाइस ओवर, और फोनो आदि में 'अटल जी-आडवाणी जी' के रूप में फूट पड़ता था।
यह तो रही संवाददाताओं के स्तर पर चूक की बात, पर बात यहीं खत्म नहीं होती, क्योंकि संवाददाता तो बाइट की पहली कड़ी होता है, आखिरी नहीं। उसके किए को धोने-पछारने का काम डेस्क का होता है। 'जी' अगर अनुचित और आपत्तिजनक था तो डेस्क के स्तर पर इसे काटा-छांटा जा सकता था और संवाददाता को आगे से इसका इस्तेमाल न करने की नसीहत दी जा सकती थी, पर ऐसा नहीं हुआ। बाइटें जी-फैक्टर के साथ चलती रहीं। चैनलों के आउटपुट हेड और संपादक जैसे कर्ताधर्ता और नीति-नियंताओं को भी इस भटकाव से दोषमुक्त नहीं रखा जा सकता (दुआ साहब खुद भी इसी कैटेगरी में आते हैं)। 'अटल जी-आडवाणी जी' का जाप करने वाले संवाददाताओं की क्लास लेने का अधिकार इनके पास हमेशा की तरह सुरक्षित था। इसके बावजूद अगर इन्होंने कुछ नहीं किया जो इसमें इनकी भी मौन सहमति क्यों न मानी जाए? जाहिर है, 'मीडिया-उदय' के इस कालखंड में मीडिया-क्षितिज के तारों-सितारों रोशनी ही धूमिल नहीं हुई, बल्कि उसे 'प्रकाशित' करने वाले करने वाले 'सूरज-चंदा' भी ग्रहण की चपेट में अपना तेज खो रहे थे।
बहरहाल, अटल जी-आडवाणी जी का युग तो गुजर गया, पर इस मुद्दे की जड़ से जुड़ा सवाल अब भी अपनी जगह कायम है। सवाल है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में होने वाली जुगाड़ू भर्तियों का। आज भी मीडिया (खासकर चैनलों) में अधिसंख्य नियुक्तियां जुगाड़, सिफारिश और रसूख के सास्ते ही हो रही हैं। आज केदौर में सड़कों पर घूमने-टहलने और आसानी से किसी से भी मिल लेने वाले (एसपी सिंह सरीखे) संपादक चैनलों में लेंस, दूरबीन या माइक्रोस्कोप लेकर ढूंढने से नहीं मिलते। सूट-टाई में सजे-धजे संपादक की एसी गाड़ी से उतरते हैं और दायें-बायें देखे बिना सीधे केबिन में जाकर रिवॉल्विंग चेयर पर आसीन हो जाते हैं। उनसे मिलने की राह अब सड़कों नहीं, सत्ता के गलियारों से ही गुजरती है। स्वाभाविक है मीडिया में जब दाखिला जमीन के बजाए आकाश के रास्ते होगा तो चरित्र और संस्कारों में ऐसे ही बदलाव आते दिखेंगे ही। इसलिए शिखर पर बैठे लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इस तरह महज 'मासूम सवाल' उठाने और बौद्धिक चर्चा करने के बजाय इस विकृति के खिलाफ जमीनी तौर पर कुछ करें और जमीन से जुड़े लोगों को मीडिया से जोड़ें। बातें थोड़ी तल्ख और 'छोटा मुंह-बड़ी बात' सरीखी लग सकती हैं, पर सेमिनारों-संगोष्ठिïयों में पत्रकारिता की दशा-दिशा पर दिमागी जुगाली करने वाले मीडिया मु$गल खुद बताएं कि क्या यह सच नहीं और क्या इसके खिलाफ व्यक्तिगत रूप से और प्रभावी ढंग से उन्होंने कभी कुछ करने की कोशिश की है?
एक बड़ा व्यावहारिक सा सवाल है कि क्या आज की तारीख में ऐसा संभव है कि बिना किसी परिचय या रेफरेंस के कोई पत्रकार किसी चैनल में नौकरी के लिए जाए और प्रणव राय, विनोद दुआ, प्रभु चावला, आषुतोश, अलका सक्सेना या अनुराधा प्रसाद सरीखी संपादकीय हस्तियों से उसे मुलाकात भर करने को मिल जाए? मीडिया के 'सिस्टमÓ से अच्छी तरह वाकिफ होने के नाते मैंने तो कभी ऐसी 'नादानी' नहीं की, पर बहुतों के अनुभव सुन रखे हैं। कई लोगों ने बताया कि बायोडाटा लेकर नौकरी के लिए जाने पर पागलखाने से छूटकर आए प्राणी की तरह एक भीतरी व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ देखा जाता है और 'कहां-कहां से चले आते हैं' के भाव के साथ रिसेप्शनिस्ट के पास ही बायोडाटा धरवा कर रफा-दफा कर दिया जाता है। 'नंबर वन' का दावा करने वाले चैनलों के बारे में तो सुना है कि गेट पर ही पर ही बायोडाटा 'डंप' करने के लिए बॉक्स रखा रहता है। बायोडाटा डालिए और 'कर्म किए जा, फल की इच्छा मत कर' के भाव से निकल लीजिए। कुछ पूछने की जुरर्रत अगर कर भी ली तो चिड़चिड़ाते लहजे में महज एक लाइन का जवाब सुनने को मिलेगा कि सीवी में फोन नंबर और ई-मेल आईडी दिया है न? जब जरूरत होगी बता दिया जाएगा। चेहरे की भाव-भंगिमा ऐसी तिरस्कार भरी होगी कि 'संसार माया है, क्या लेकर जाएगा-क्या लेकर आया है' का गूढ़ ज्ञान एक झटके में मिल जाता है। बायोडाटा लेकर भीतर गया 'सिद्धार्थ' मिनट भर में 'बुद्ध' बनकर बाहर निकल आता है, 'माया' के इस दलदल में दोबारा कदम न रखने के संकल्प के साथ। बातें अतिरंजनापूर्ण लग रही हों तो नेट खंगाल लीजिए। मीडिया केमारों के बहुत ब्लॉगों पर ऐसी आपबीतीयां पढऩे को मिल जाएंगी। मीडिया जगत में यह बात वर्षों से एक 'अंडर करेंट' की तरह दौड़ रही है। जानता हर कोई है, पर इसके खिलाफ कहता-बोलता और करता कोई कुछ नहीं। मीडिया लोक के 'देवगण' भी पत्रकारिता के मूल्यों में गिरावट पर महज 'प्रवचन' देकर 'दायित्व-निर्वाह' कर लेते हैं। कुछ उसी अंदाज में जैसे कथा बांचने से पहले पंडित जी सबपर गंगाजल छिड़क कर ओम पवित्रम-पवित्रम बुदबुदाते हैं और यह मानते हुए कि सब लोग पवित्र हो गये, कथा शुरू हो जाती है। इसी परिपाटी पर मीडिया-कथा चल रही है। इस कथा वाचन से हटकर हकीकत के धरातल पर कुछ नहीं होता।
आज देश में आईएएस-पीसीएस तो छोडि़ए ड्राइवर-कंडक्टर, क्लर्क और यहां तक कि चपरासी तक बनने के लिए परीक्षा और साक्षात्कार देना पड़ता है, पर पत्रकार बनने के लिए कोई परीक्षा-परीक्षण नहीं होता। रस्म अदायगी के लिए कुछ मिनटों का साक्षात्कार होता है। इस साक्षात्कार की भी क्या कहें! अकसर साक्षात्कार कम, 'बौद्धिक बलात्कार' ज्यादा होता है। कहां से आए हो, वहां कितना (पैसा) मिलता था, क्या देखते थे जैसे दो-चार औपचारिक प्रश्नों के बाद शुरू हो जाती है संपादक जी की अपनी गौरव-गाथा। प्रत्याशी की योग्यता और ज्ञान परखने के बजाए संपादक जी अपनी ही महानता और ज्ञान बघारने में जुट जाते हैं। नौकरी चाहिए तो सुनते रहिए 'कथा शुरू है बलिदानों की, आये मजा कहानी में' के भाव के साथ। वाजपेयी जी की कविता 'चेहरे पर मुस्काने चिपकाये, खुद में ही रोता हूं' मन ही मन गुनिये, मुस्कराइये और श्रद्धापूर्वक पूरा का पूरा 'कथामृत' गटक जाइये। चेहरे पर जितनी श्रद्धा, जितनी हां में हां, उतनी ज्यादा पगार। अपना दिमाग दिखाने की कोशिश कर जरा भी डिस्टर्बेंस क्रिएट किया तो सरकार बुरा मान जाएंगे। ...और फिर तो अरस्तू, सुकरात, आइंस्टाइन क्या उनके बाप भी आ जाएं, संपादक जी घेरकर गिरा ही लेंगे कहीं न कहीं। सवालों की ऐसी झड़ी लगेगी, जिनके जवाब खुद उनको भी ठीक-ठीक नहीं मालूम होंगे। लोकल रिपोर्टिंग के लिए आए हो तो पूछेंगे टिंबकटू कहां है? बुर्कीनाफासो के हालात पर आपका क्या कहना है आपका? मुक्तिबोध की कविताओं में संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त प्रतीकों पर कुछ प्रकाश डालिए। टार्च तो ले नहीं गए हो, प्रकाश कहां से डालोगे भइया! इसलिए इंटरव्यू में मुस्कुराते हुए 'संपादक-पुराण' सुनो, हां जी-हां जी करो और नौकरी का 'प्रसाद' लेकर बाहर आ जाओ (ज्ञान-वान मत दिखाना, संपादक जी गुस्से हो जाते हैं)। इंटरव्यू के दौरान भी अकसर संपादक जी जल्दी में दिखाई देते हैं। आधे घंटे बाद यूनिवर्सिटी के सेमिनार में जाना है 'मीडिया की गिरती गरिमा : कारण और उपचार' पर व्याख्यान देने। तालियों के बीच मंच पर पहुंचते चालू हो जाते हैं...मीडिया की साख गिर रही है, काबिल और गंभीर लोग पत्रकारिता में नहीं आ रहे हैं, पत्रकारों की तो पढऩे-लिखने में कोई रुचि ही नहीं रह गई है आज...। आधे घंटे पकाने के बाद भावुक होकर कहते हैं मेरी भी उम्र होती जा रही है, चाहता हूं किसी किसी योग्य उत्तराधिकारी को दायित्व सौंप कर किनारे हो लूं। पांच साल से तलाश रहा हूं, कोई नजर नहीं आता क्या करूं??? चश्मा उतार कर संपादक जी आंखें पोछते हैं और तालियों की गडग़ड़ाहट केसाथ भाषण खत्म हो जाता है। मुझ बदतमीज को जाने क्यों दोस्त का चुटकुले वाला वह एसएमएस याद आ जाता है- गांधी जी हत्या हो गई, नेहरू-पटेल नहीं रहे, मेरी भी तबीयत खराब चल रही है। हे राम! इस देश का क्या होगा?
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