एक खास विज्ञापन की तलाश में पिछले दो-चार दिन के हिन्दुस्तान टाइम्स के पन्ने पलट रहा था। एक पेज की लीड स्टोरी पर गया। चार-पांच काॅलम में छपी स्टोरी थी, रंगीन फोटो के साथ। फोटो में एक खूबसूरत सी लड़की अपनी छोटी सी कार पर चढ़ रही थी, बड़े अंदाज-ओ-अदा के ध्यानसाथ। ध्यान खिंचना लाजमी था भई। सोचा लाइफ स्टाइल वगैरह से जुड़ी कोई खबर होगी। पढ़ना शुरू किया तो मामला कुछ और ही निकला। स्टोरी बिजली से चलने वाली कार पर केन्द्रित थी। स्टोरी की शुरुआत अंगरेजी अखबारों की घिसे-पिटे नाटकीय अंदाज में थी कि ...वह जब अपनी नई-नवेली ई-कार में बैठती है तो...फलां-फलां-फलां...। खामखां किसी कंपनी में काम करने वाली एक कंप्यूटर इंजीनियर बाला को हाइलाइट करते हुए स्टोरी का बेहूदा सा ताना-बाना बुना गया था। लड़की शायद रिपोर्टर की परिचित रही हो, या शायद संपादक जी की ’ करीबी ’ रही हो या फिर कोई और बात रही हो, बात पता नहीं । यूं भी आउटपुट के बढ़ते दबाव के चलते अकसर रिपोर्टरों को कई बेमतलब की स्टोरीज लिखनी पड़ जाती हैं खबरों की गिनती बढ़ाने के लिए। मीडिया में यह एक कामन प्रैक्टिस हो गई है आजकल। हद वहां पार हो गई जब आगे की लाइनों में लड़की एक ’ साइलेंट रिवल्यूशन ’ का संवाहक बता कर महिमा मंडित कर दिया गया। संवाददाता का मानना था कि लड़की के बिजली की कार में चलने से पर्यावरण सुरक्षा की ओर एक मौन क्रांति आकार ले रही है। गोया कि एक दिन देश में सभी कारें बिजली से चलने लगेंगी और उस दिन गाड़ियों से होने वाला प्रदूषण थम जाएगा... आदि-आदि।रिपोर्टर महोदय के दिमाग की बलिहारी माननी पड़ेगी यहां दो बातों के लिए। एक तो क्रांति शब्द की उन्होंने जिस खूबसूरती से दईया-मईया की। दूसरे बिजली की कार से क्रांति आ जाने की उनकी समझ के लिए। जनाब ने दो मिनट को यह सोचने की जहमत नहीं उठाई कि देश में सारी कारें जब बिजली से चलने लगेंगी तो कोई क्रांति-वांति नहीं, सीधी-सीधी मुसीबत ही आ जाएगी। यार, आज की तारीख में जब हाल यह है कि जहां दस मेगावाट की जरूरत है, वहां चार-पांच मेगावाट बिजली का भी नहीं मिल पा रही है। यानि सप्लाई डिमांड के आधे के बराबर भी नहीं है। जब सारी कारें बिजली से चलने लगेंगी तो उनके लिए बिजली कहां से मिलेगी? मान लीजिए कि उत्पादन बढ़ा कर अगर बिजली मिलती भी है तो यह आएगी कहां से। हमारे देश के थर्मल पाॅवर स्टेशनों से ही, जो टनों-टन कोयला जलाकर, ढेरों धुआं हवा में छोड़ कर बिजली बनाते हैं। तो ऐसे में जितनी ज्यादा बिजली बनेगी कोयले की उतनी ही खपत होगी और हवा में उतना ही धुआं घुलेगा। प्रदूषण थमेगा कतई नहीं। हां कारें अगर सौर उूर्जा, या हाइड्रोजन से चलें और धुआं उगलने के बजाए साइलेंसर से पानी टपकाएं तो पर्यावरण की रक्षा हो सकती है। इसलिए हे रिपोर्टर महाशय क्रांति को अपने बिस्तरे पर आराम से सोने दो। बेचारी को खामखां में क्यों जगा कर छेड़ते हो। अपने मनोज कुमार को बुरा लगता होगा भई। रही बात लड़की को हाईलाइट करने की तो उसके और भी दर्जनों फालतू तरीके हो हो सकते हैं। दिमाग लगाओ, पर फार गाॅड शेक क्रांति के नाम पर कामेडी न करो प्लीज!!!
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