देश की सियासत के तौर-तरीके और दिशा बदल देने के इरादे जताने वाली आम आदमी पार्टी (आप) को दिल्ली में सत्ता नशीं हुए बमुश्किल अभी महीने भर ही बीते हैं कि दलीय राजनीति की सारी खामियां उसके डीएनए में समाती नजर आ रही हैं। एक के बाद एक हो रहे खुलासे, विवाद और खुद आप की कारगुजारियां पार्टी प्रमुख अरविंद केजरी वाल के चेहरे से मुखौटे उतारती जा रही हैं। योगेन्द्र यादव व प्रशांत भूषण को पार्टी की कार्यकारिणी से बाहर निकालने, अरविंद केजरीवाल का स्टिंग ऑपरेशन सामने आने और उसके बाद महाराष्ट्र में पार्टी की कमान संभालने वाली अंजली दामनिया के इस्तीफे के बाद आप एक बार फिर से गलत वजहों से खबरों में है। खबर है कि दिल्ली में आप की सरकार ने अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया है। इसे लेकर आम आदमी पार्टी की खासी आलोचना हो रही है क्योंकि दिल्ली में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में थोक के भाव में संसदीय सचिव बनाए गए हैं। पद के लिए काम करने और सरकारी रुतबे की चकम-दमक से दूर रहने का उपदेश अपने विधायकों देने वाली आप पर हमला बोलने का मौका अन्य पार्टियों को मिल गया है। भाजपा इसे आप में चल रही अंदरूनी लड़ाई का नतीजा बताते हुए कह रही है कि विधायकों को अपने साथ रखने के लिए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उन्होंने संसदीय सचिव बना दिया है। सवाल यह भी उठता है कि तुष्टीकरण की राजनीति की जमकर आलोचना करने वाली आप का यह कदम क्या अपने विधायकों का तुष्टीकरण नहीं है? पार्टी के इस विशुद्ध सियासी कदम पर इससे भी बड़ा सवाल यह है कि इससे सरकारी खजाने पर बोझ तो बढ़ेगा क्योंकि सरकार के इस फैसले से इन विधायकों को अब राज्य मंत्री का दर्जा मिल जाएगा और उन्हें उससे जुड़ी सुविधाएं भी दी जाएंगी। जनता के पैसे से चलने वाली सरकार पर आर्थिक बोझ बढ़ाने वाला यह कदम दिल्ली में निश्चित रूप से एक गलत परंपरा की शुरुआत भी करेगा। जाहिर है कि पाक-साफ राजनीति करने का दम भरने वाली आम आदमी पार्टी ने यह फैसला करके अपने दोहरे मापदंडों का एक और प्रमाण दिया है।
इससे पहले योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को कार्यकारिणी से चलता करने के कदम ने इतना तो जगजाहिर कर ही चुकी है कि चुनावी सभाओं में बड़ी गरज के साथ राजनीतिक दलों में सुप्रीमोवाद की आलोचना करने वाले अरविंद केजरीवाल खुद आप के सुप्रीमो बने बैठे हैं। पद और पैसे के मोह के बिना लोगों की सेवा करने की वह बात करते हैं, तो संयोजक पद छोड़ने में जान क्यों जा रही है। सीएम और पार्टी संयोजक दोनों पदों पर क्यों विराजमान रहना चाहते हैं। केजरी गुट तर्क देता है कि बतौर सीएम उन्होंने अपने पास कोई पोर्टफोलियो नहीं रखा है। इसलिए संयोजक की जिम्मेदारी निभाने में उन्हें कोई बाधा नहीं आएगी। इस तर्क में दो खामियां हैं। पहली बात यह कि सवाल काम में बाधा आने का नहीं एक व्यक्ति के पास दो-दो पद होने का है, जिसे भाजपा, कांग्रेस सहित ज्यादातर ऐसी पार्टियां भी स्वीकार करती हैं, जिनके तौर-तरीकों की आम आदमी पार्टी हमेशा से आलोचना करती आई है। तो ऐसे में दोनों पदों पर कब्जा जमा कर केजरीवाल उनके सिपहसालार किस मुंह से बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। दूसरी बात यह है कि केजरी हमेशा कहते रहे हैं कि उन्हें पद और सरकारी रुतबे से कोई लेना-देना नहीं। केजरीवाल इतने बड़े संत हैं तो फिर उन्हें सीएम का पद लेने की जरूरत नहीं। वह केवल संयोजक रह कर भी अपनी सरकार को पटरी पर रखते हुए काम करवा सकते हैं, जिस तरह की बात सोनिया गांधी के लिए कही जाती है कि पीए बने बिना उनकी मर्जी से ही सरकार चलती थी।
इस तरह देखा जाए तो पार्टी और सरकार दोनों ही में सबसे अहम पद को अपने पास रखने का कोई औचित्य किसी तरह नहीं बैठता। यह निश्चित रूप से केजरीवाल की कथनी-करनी के भेद को उजागर करता है। साथ ही सबसे बड़ा सवाल उनकी नीयत पर भी खड़ा करता है। खुद अन्ना हजारे केजरीवाल का स्टिंग सामने आने पर उनकी नीयत पर अब शक उठाने लगे हैं। अन्ना का साफ कहना है कि केजरीवाल ने सिर्फ उनका नहीं, पूरे देश का भरोसा तोड़ा है।
इससे पहले योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को कार्यकारिणी से चलता करने के कदम ने इतना तो जगजाहिर कर ही चुकी है कि चुनावी सभाओं में बड़ी गरज के साथ राजनीतिक दलों में सुप्रीमोवाद की आलोचना करने वाले अरविंद केजरीवाल खुद आप के सुप्रीमो बने बैठे हैं। पद और पैसे के मोह के बिना लोगों की सेवा करने की वह बात करते हैं, तो संयोजक पद छोड़ने में जान क्यों जा रही है। सीएम और पार्टी संयोजक दोनों पदों पर क्यों विराजमान रहना चाहते हैं। केजरी गुट तर्क देता है कि बतौर सीएम उन्होंने अपने पास कोई पोर्टफोलियो नहीं रखा है। इसलिए संयोजक की जिम्मेदारी निभाने में उन्हें कोई बाधा नहीं आएगी। इस तर्क में दो खामियां हैं। पहली बात यह कि सवाल काम में बाधा आने का नहीं एक व्यक्ति के पास दो-दो पद होने का है, जिसे भाजपा, कांग्रेस सहित ज्यादातर ऐसी पार्टियां भी स्वीकार करती हैं, जिनके तौर-तरीकों की आम आदमी पार्टी हमेशा से आलोचना करती आई है। तो ऐसे में दोनों पदों पर कब्जा जमा कर केजरीवाल उनके सिपहसालार किस मुंह से बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। दूसरी बात यह है कि केजरी हमेशा कहते रहे हैं कि उन्हें पद और सरकारी रुतबे से कोई लेना-देना नहीं। केजरीवाल इतने बड़े संत हैं तो फिर उन्हें सीएम का पद लेने की जरूरत नहीं। वह केवल संयोजक रह कर भी अपनी सरकार को पटरी पर रखते हुए काम करवा सकते हैं, जिस तरह की बात सोनिया गांधी के लिए कही जाती है कि पीए बने बिना उनकी मर्जी से ही सरकार चलती थी।
इस तरह देखा जाए तो पार्टी और सरकार दोनों ही में सबसे अहम पद को अपने पास रखने का कोई औचित्य किसी तरह नहीं बैठता। यह निश्चित रूप से केजरीवाल की कथनी-करनी के भेद को उजागर करता है। साथ ही सबसे बड़ा सवाल उनकी नीयत पर भी खड़ा करता है। खुद अन्ना हजारे केजरीवाल का स्टिंग सामने आने पर उनकी नीयत पर अब शक उठाने लगे हैं। अन्ना का साफ कहना है कि केजरीवाल ने सिर्फ उनका नहीं, पूरे देश का भरोसा तोड़ा है।
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