21 दिसंबर 2010

बिछाया बंदरबांट का एक और जाल

पौने दो लाख करोड़ रुपये के २जी स्पेक्ट्रम घोटाले का शोर अभी संसद की फिजाओं में गूंज ही रहा था कि सैकड़ों-हजारों करोड़ की एक और बंदरबांट का जुगाड़ बैठाने की एक और खबर सामने आ गई। 'खाने-पकानेÓ की यह नई स्कीम लांच की है कर्मचारियों के पीएफ और पेंशन का लेखा-जोखा रखने वाले कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) ने। संगठन ने घोषणा की है कि पीएफ के बंद पड़े खातों पर वह अप्रैल से ब्याज नहींं देगा। अफसोस की बात यह है कि 'सुधारÓ के नाम पर फैलाई गई इस तिकड़म पर संसद में कोई सुगबुगाहट तक नहीं हुई। कामगारों के हितों की झंडाबरदारी का दम भरने वाले वामपंथियों ने भी इस 'साजिशी सयानेपनÓ पर चूं तक नहीं की।
यह कदम जिस शातिराना ढंग से और जिन भौंड़े तर्कों के आधार पर उठाया गया है, वह वाकई चौंकाने वाला है। ईपीएफओ का कहना है कि इन खातों के प्रबंधन में उसे बड़ी दिक्कत होती है, इसलिए वह इन खाातों पर ब्याज देना बंद करने जा रहा है। हैरत इस बात पर होती है कि सीधे तौर पर करोड़ों-करोड़ पढ़े-लिखे लोगों की सामाजिक सुरक्षा से जुड़े मामले में खुलेआम ऐसी कलंदरबाजी भला कैसे की जा सकती है, वह भी एक लोकतंत्र में! यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि जिन दो करोड़ खातों (जिनमें तीन साल से अंशदान नहीं मिल रहा है) को संगठन 'सिरदर्दÓ बता रहा है, वह उसके कुल सवा ५.८० करोड़ खातों के एक तिहाई से भी ज्यादा बैठते हैं। जब ऐसे खातों की तादाद इतनी बड़ी है तो ईपीएफओ उन्हें यूं सेत-मेत में लेकर कैसे चल सकता है। खासकर तब, जबकि वह अपने वित्तीय प्रबंधन के लिए बाकायदा चार-चार कंपनियों की सेवाएं ले रहा है और इन कंपनियों को इस काम के लिए मोटा भुगतान मिल रहा है। यह कंपनियां भी कोई छोटी-मोटी नहीं, बल्कि आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल, एचएसबीसी, रिलायंस कैपिटल और एसबीआई कैपिटल जैसी बड़ी और प्रोफेशनल कंपनियां हैं। जो कंपनियां कोष के प्रबंधन के लिए भारी-भरकम भुगतान ले रही हों वह भला यह कैसे कह रही हैं कि उन्हें दिक्कत आ रही है। खातों का प्रबंधन अगर दिक्कत भरा काम न होता, तो भला उनकी सेवाएं ली ही क्यों जा रही होतीं। क्या भविष्य निधि संगठन इतना नाकारा है कि वह इन कंपनियों डपट तक नहीं पा रहा कि बहानेबाजी बिना वह ठीक से अपना काम करें।
सारे मामले को देखकर सहज रूप से यही बात समझ में आती है कि 'दिक्कतÓ की बात एक तिकड़म केतहत उछाल कर दो करोड़ खातों का ब्याज बंद करने का 'खेलÓ किया जा रहा है। बहानेबाजी के इस ढोल में पोल यह नजर आता है कि ब्याज न देने की घोषणा के बावजूद इन खातों के पैसों का इस्तेमाल ब्याज कमाने में किया जाता रहेगा। फर्क महज इतना होगा कि लाखों करोड़ की इस राशि के ब्याज के रूप में मिलने वाले पैसे खाताधारकों के खाते में नहीं पहुंचेंगे। सालाना हजारों करोड़ की इस राशि को खिलाड़ी ही आपस में बांट खाएंगे। ब्याज बंद करने से सालाना ४०० करोड़ रुपये की 'बचतÓ की जो बात कही जा रही है, वह भी हास्यास्पद है, यदि इसकी तुलना इन खातों की राशि पर मिलने वाले ब्याज से की जाए।
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि ९.५ फीसदी ब्याज देकर संगठन कोई बड़ा असंभव काम नहीं रहा है। जिन कंपनियों को उसने अपने वित्तीय प्रबंधन का ठेका दे रखा है, वह अपने व्यक्तिगत कारोबार में लगातार ३० से ४० फीसदी सालाना मुनाफा कमा रही हैं, तो फिर यहां दस फीसदी से भी कम आमदनी दे पाने में जान क्यों जा रही है। यह ठीक है कि ज्यादा ब्याज देने केलिए भविष्य निधि का पैसा पूरी तरह शेयर बाजार के जोखिमों में नहीं झोंका जा सकता, पर ऐसा भी नहीं कि सुरक्षित ढंग से नौ-दस फीसदी ब्याज भी न निकाला जा सके। अब जबकि ईपीएफओ ने एएए प्लस रेटिंग वाले बॉडों में 40 के बजाय 50 फीसदी निवेश और एए प्लस रेटिंग वाले बांडों में मौजूदा 25 की जगह 40 फीसदी निवेश का निर्णय लिया है। यह बांड भी सरकारी गारंटीशुदा सबसे ऊंची साख वाली कंपनियों के होंगे। जाहिर है इससे जहां ईपीएफओ के लिए बेहतर ब्याज पाने के रास्ते खुलेंगे, वहीं देश के मूलभूत ढांचे को मजबूत करने के लिए खड़ी की गई इन सरकारी कंपनियों को भी अपने विस्तार को पूंजी मिलेगी।
कर्मचारियों के कल्याण केलिए बना संगठन आज अगर सूदखोरों जैसी भाषा बोल रहा है, जो यह आश्चर्यजनक ही नहीं, बल्कि कहीं न कहीं यह तंत्र में शामिल कुछ लोगों की बदनीयती की ओर भी इशारा करता है। दो करोड़ खातों का ब्याज बंद कर देना इनकेही दिमाग की उपज जान पड़ती है। गंभीरता से विचार करने वाली बात यह भी है कि जिन खातों मे पैसे नहीं आ रहे हैं, उनके खाताधारकों ने कोई शौक से पैसे देना बंद नहीं कर दिया है। यह तो हालात के मारे वह लोग है, जिनकी या तो नौकरियां चली गई हैं, या फिलहाल वह संस्थानों में नौकरी कर रहे हैं, जहां कंपनी अपना अंशदान देने से बचने केलिए उनका पीएफ नहीं काट रही। ऐसे में चोट खाए इन लोगों के खातों पर ब्याज बंद कर देना कहां की भलमनसाहत है। मूल रूप से कर्मचारियों की सामाजिक सुरक्षा लिए बनाया गया ईपीएफओ अपने मूल उद्देश्य को ही भूलकर भला इस तरह की कार्रवाई कैसे कर रहा है। यह सवाल जोर-शोर से न उठाया गया तो, आश्चर्य नहीं कि एक के बाद एक ऐसे फैसलों से हमारा देश कल्याणकारी राज्य से एक 'कॉरपोरेट स्टेटÓ में तब्दील हो जाएगा।

26 जुलाई 2010

आईबीएन-७ का ये मदारीपन!

दफ्तर में बस पहुंचा ही हूं कि आईबीएन-७ पर चलती एक 'न्यूज स्टोरीÓ टीवी पर चलती दिखती है। स्टोरी है राजस्थान के सीकर की। कुएं में गिरे एक बैल को बचाने केलिए एक डाक्टर को कुएं में उतारा जाता है। मकसद है कि डाक्टर बैल को इंजेक्शन लगाकर बेहोश कर दे। इसकेबाद बेहोश बैल को रस्से या चेन आदि से बांध कर बाहर खींच लिया जाए। बचाव कार्य के लिए डाक्टर बांस की सीढ़ी से कुएं में उतरता है। घंटों से कुएं में फंसा बैल जाहिर तौर पर घबराया हुआ है। यूं भी बैल तो आखिर 'बैलÓ ही है। घबराहट-बौखलाहट मेंं डाक्टर पर ही हमला कर देता है। हमले में डाक्टर गंभीर रूप से घायल हो जाता है। उसे आईसीयू में भर्ती कराना पड़ता है। ऐसा फुटेज किसी का भी ध्यान आकर्षित करेगा। स्टोरी टीवी पर चलेगी तो जाहिर तौर पर लोग उसे आंखें फाड़कर देखेंगे। इसके बावजूद चैनल ने इस स्टोरी को जिस मदारीपन के साथ दिखाया उसपर तो चैनल वालों के दिमाग पर तरस खाने के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता।
स्टोरी को टाइटिल दिया गया 'आ बैल मुझे मारÓ। क्या बेहूदापन है यह। क्या बैल को बचाने वाला डाक्टर निरा अनपढ़ और बुद्धिहीन था। क्या उसे पता नहीं था कि बैल का क्या स्वभाव होता है? क्या उसे पता नहीं था कि कुएं में उतरना खुद अपनी जान जोखिम में डालना है। इसके बावजूद वह बैल को बचाने केलिए उसे इंजेक्शन लगाने कुएं में उतरता है। फुटेज देखकर साफ लगता है कि डाक्टर अगर चाहता तो बैल का मिजाज देखते ही सीढ़ी से वापस ऊपर चढ़ सकता था, पर उसने ऐसा नहीं किया। वह बैल को बेहोश करने की जद्दोजहद करता रहा और इस दौरान बैल केहमले की चपेट में आकर बुरी तरह घायल हो गया। डाक्टर की इस दिलेरी और बैल के प्रति उसके दया भाव के बदले चैनल के 'बुद्धिजीवीÓ पत्रकारों ने उलटे उसे एक निरे मूर्ख की तरह प्रोजेक्ट किया, मानो वह बैल को बचाने नही जानबूझ कर खुदकुशी करने कुएं में उतरा हो कि आ 'आ बैल मुझे मारÓ। स्टोरी के शीर्षक का अर्थ तो कम से कम यही निकलता है।
दरअसल मीडिया के रुटीन प्रैक्टिस बन चुकी इस तरह की कलंदरबाजी ही आए दिनों उसकी फजीहत और मलामत की वजह बन रही है। लोग चैनल वालों के मुंह पर थूक रहे हैं, पर उन्हें इससे न कोई फर्क है न फुर्सत। बैल से जुड़ी स्टोरी देख न्यूज रूप में बैठे 'महाकाबिलÓ पत्रकार केदिमाग में 'आ बैल मुझे मारÓ का मुहावरा फ्लैश कर गया। दिमाग की अपनी सीमाएं होती हैं भई! इससे आगे उसकी बुद्धि जा ही नहीं सकती। आखिरकार उसे बैठाया ही गया है लच्छेदार शब्दों में डॉयलॉगनुमा स्टोरी लिखने और उस पर अनुप्रास में डूबी 'चमत्कारिकÓ और 'मारकÓ हेडिंग लगाने केलिए। कंबख्त ने बड़ी शिद्दत से अपना काम किया। कर्ताधर्ताओं को भी स्टोरी काफी 'मजेदारÓ लगी, सो ऑन एयर कर दी गई तुरत-फुरत में। यह बात और है कि स्टोरी को उसकेसही एंगिल से भी उठाया जा सकता था, पर इसके लिए पत्रकारिता केएथिक्स की समझ चाहिए। स्टोरी से लोगों पर पडऩे वाले प्रभाव और खुद चैनल की छवि पर पडऩे वाले असर के बारे में सोचने का वक्त चाहिए। बस दिक्कत यहीं आती है। वक्त ही तो नहीं है शायद आज मीडिया के कर्ताधर्ताओं केपास और सोचने-समझने का विवेक तो दौड़-भाग भरे वर्क कल्चर ने यूं ही हर लिया है। लिहाजा चला दी स्टोरी 'लीडÓ लेने केलिए, लोग हंसें तो हंसते रहें। आखिर हंसना सेहत केलिए खासा फायदेमंद जो है। कितनी 'नेकÓ सोच है आईबीएन-७ वालों की। है न!!!

2 मार्च 2010

मंदी, महंगाई, सूखे से सीखा नहीं सबक

मंदी,सूखे और महंगाई की तिहरी मार के बाद पेश किए गए इस बजट में देखने वाली सबसे बड़ी बात यह थी कि संकट के इस दौर से हमारी सरकार ने क्या सबक सीखा। वित्त मंत्री का बजट भाषण सुनने के बाद स्पष्टï है कि हमारे नीति-नियंताओं ने आफत के इस दौर से कोई सबक नहीं लिया।
बजट में ग्रामीण विकास पर जोर, २०१२ तक हर गांव में बैंक खोलने, ग्रामीण विकास के लिए ६० हजार करोड़, मनरेगा के लिए ४० हजार करोड़ और पांच फूड पार्क बनाने की बातें ऊपरी तौर पर लुभावनी लगती है। किसानों को दो फीसदी छूट केसाथ पांच फीसदी ब्याज पर कर्ज देने और की बात भी कही गई है, कर्ज अदायगी की अवधि भी बढ़ाई गई है। सूखा प्रभावित बुंदेलखंड को १२०० करोड़ का आवंटन किया गया है। इन 'लोकप्रियÓ घोषणाओं के बावजूद बजट में हरित क्रांति केलिए केवल ४०० करोड़ रुपये दिया जाना खासा अखरने वाला है।
बजट में अंतिम रूप से सबसे ज्यादा जोर देश को ऊंची विकास दर के आंकड़े पर पहुंचाना और राजकोषीय घाटे को किसी भी तरह घटाने पर रहा। घाटा घटाने की बात तो ठीक है, पर ऊंची विकास दर का राग फिर से अलापना ढाक के तीन पात वाली कहावत को ही चरितार्थ करता है।
गौर कीजिए वैश्विक आर्थिक संकट के उन दिनों को जब अमेरिका समेत विश्व के तमाम विकसित देशों के पसीने छूट गए थे। ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली और जापान जैसे धनवान देशों को भी मंदी ने खूब छकाया। हालात चीन में भी खराब होने लगे थे। गौर करने वाली बात है कि मंदी से ग्रस्त इन सभी देशों की विकास दर काफी ऊंची थी। अपना देश भी आठ फीसदी के स्तर पर था, पर विकास दर के इस आंकड़े ने मंदी में भला हमारी क्या मदद की? भारत अगर मंदी को खामोशी और धैर्य के साथ झेल गया तो इसका श्रेय ऊची विकास दर को नहीं, हमारे आर्थिक ढांचे के जमीन से जुड़ा होने को जाता है। मंदी ने आईटी, सॉफ्टवेयर, बैंकिंग, निर्माण, निर्यात और सेवा क्षेत्र को तो प्रभावित किया पर हमारे मंदी हमारे अर्थतंत्र की जड़ें नहीं हिला पाई। मंदी भारत के आम आदमी के मुंह से निवाला इस लिए नहीं छीन पाई कि अपनी जरूरतें पूरी करने भर का अनाज हम करीब-करीब खुद ही पैदा कर लेते हैं। यही वजह थी की आर्थिक रूप से संपन्न न होकर भी आम आदमी बिना दिक्कत जीता-खाता रहा। उस समय हमारे अर्थतंत्र तंत्र की इस ताकत को प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, योजना आयोग के उपाध्यक्ष समेत आर्थिक नीति-निर्धारण से जुड़े हर महत्वपूर्ण व्यक्ति ने महसूस किया था। लग रहा था कि खेत-खलिहानों के महत्व को समझते हुए इस साल के बजट में कृषि को महत्व देगी। कृषि, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण आदि के आवंटन में उल्लेखनीय बढ़ोतरी की जाएगी। पर बजट में ऐसा कुछ खास हुआ नहीं। किसानों को सस्ता कर्ज उपलब्ध कराने की बात ऊपरी तौर पर कल्याणकारी लग सकती है, पर गहराई में जाकर देखें तो इसकी तासीर किसानों के लिए विध्वंसकारी ही साबित होने वाली है। बहुत सामान्य सी बात है कि आदमी को जहां तक संभव हो कर्ज से बचना चाहिए। इसलिए सस्ता कर्ज उपलब्ध कराने से बेहतर यह होता कि सरकार बजट में कुछ ऐसे इंतजाम करती कि किसान को कर्ज लेने की जरूरत ही न पड़े। गांवों में बैंक खोलने से भला क्या होगा अगर किसान के पास जमा करने को पैसे ही न हों। जाहिर है वह कर्ज के लिए ही बैंकों के चक्कर लगाएगा और और आखिरकार खुद को एक दुष्चक्र में फंसा लेगा। क्या यही हमारी सरकार की मंशा है? यह दुष्चक्र भी दोहरा होगा क्योंकि एक तरफ तो किसान पर कर्ज का बोझ चढ़ेगा दूसरी ओर लोन पास कराने, और उसकी अदायगी आदि को लेकर बाबुओं-अफसरों का शिकंजा भी उसकी गर्दन पर कसेगा। उनकी मु_ïी गरम करने के लिए भी उसे बार-बार जेब ढीली करनी होगी।
किसानों को सरकारी सहायता और सस्ते कर्ज की व्यवस्था किस तरह खोखली और बेअसर साबित होती हैं इसकी बानगी हम इस साल सूखे के वक्त देख ही चुके हैं। मानसून नेनाराजगी दिखाई तो सारी सरकारी योजनाएं कागजों पर ही धरी की धरी रह गईं। ऐसे कठिन हालात से गुजरने के बाद लग रहा था कि बजट में एफआईआई, एफआईआई की उधार की शान और आईटी, सॉफ्टवेयर और निर्यात जैसे हवाई बुलबुलों से सतर्क रहने के तेवर दिखेंगे। अर्थव्यवस्था को एक बार फिर जमीन से जोडऩे की कवायद होगी, पर बजट में इसके लिए कोई ठोस कोशिश नजर नहीं आई।
(अमर उजाला 'कॉम्पैक्ट के बजट अंक से साभार)

9 फ़रवरी 2010

मीडिया का ये 'जी-फैक्टर '

मीडिया का ये 'जी-फैक्टर '
'ज्ञानोदय' के मीडिया विशेषांक में पत्रकारिता की दुनिया के 'बड़े लोगोंÓ अनुभवों और संस्मरणों के रास्ते कहीं न कहीं मीडिया के चाल-चरित्र में हाल के वर्षों में आए बदलाव की झलक देखने को मिली। विनोद दुआ ने अपने आलेख में पत्रकारिता की चुनौतियों के एक व्यावहारिक पहलू को छूते हुए गंभीर सवाल उठाया है। सवाल पत्रकारिता में उभरती एक नई प्रवृत्ति, गहरे में जाएं तो उसके बदलते चरित्र को लेकर है। मुद्दा है पत्रकारिता में उभरते 'जी-फैक्टर' का। दुआ साहब का आब्जर्वेशन है कि भाजपा को कवर करने वाले बहुत से पत्रकार अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के नाम के आगे 'जी' लगाते लगाते हैं। वह सवाल उठाते हैं कि क्या पत्रकारों का बे्रनवॉश किया जा रहा है गांधीजी और नेताजी आदि महापुरुषों के समकक्ष 'अटल जी' और 'आडवाणी जी' को प्रतिष्ठïापित करने के लिए। इस अजीबोगरीब चलन केपीछे आदत या 'व्यावहारिकताÓ की संभावनाओं को दरकिनार करते हुए वह यह भी पूछते हैं कि ऐसा सोनिया गांधी, मनामोहन सिंह, जैसी कांगे्रस की कद्दावर हस्तियों के साथ देखने को क्यों नहीं मिलता। भाजपा के भी मुरली मनोहर जोशी, जसवंत सिंह (फिलहाल निष्काषित) सरीखे अन्य वरिष्ठï नेताओं के नाम के साथ भी कोई जी नहीं लगाता। तो आखिर इस अटल-आडवाणी से जुड़े इस 'जी-फैक्टर' की वजह क्या है?
गहराई से देखें तो इन सवालों का जवाब खुद सवालों में ही छिपा नजर आता है। गौर करने वाली बात यह है कि संवाददाताओं में यह प्रवृत्ति पिछले एक दशक के कुछ वर्षों से ही देखने को मिल रही है। यानि भाजपा के केंद्रीय सत्ता में आने के बाद से। इससे पहले वही अटल-आडवाणी थे, मीडिया वही था, पर खबरों में 'जी' शब्द सुनाई नहीं देता था। जाहिर है यह 'कमाल' कहीं न कहीं भाजपा के हाथ सत्ता आने के साथ जुड़ा हुआ है। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि भाजपा के सत्तासीन होने का यह दशक मीडिया के लिए भी तेजी से विस्तार का दशक था। साथ ही साथ चाल-चरित्र और दिशा के लिहाज से उसके लिए यह एक संक्रमण-काल भी था। 'चैनल क्रांति' के इन वर्षों में एक के बाद एक न्यूज चैनलों की झड़ी लग गई। जाहिर है, इन चैनलों को चलाने के लिए बड़ी संख्या में पत्रकारों की जरूरत पड़ी। इस बहती गंगा में नहाने का सबसे ज्यादा 'पुण्य' मिला दिल्ली के उन पत्रकारों को जो सियासी गलियारों में टहलते फिरते थे। वर्षों से उनके लिए आसानी से उपलब्ध रहे कई भाजपा नेताओं के सिरों पर अब लाल बत्ती की आभा चमक रही थी। नेताओं के इस 'अपग्रेडेशन' का लाभ उनसे 'जुड़े' पत्रकारों को मिला चैनलों में भारी-भरकम पैकेज वाली नौकरियों के रूप में। पत्रकारिता में 'जी-फैक्टर' का प्रवेश इसी रास्ते हुआ जान पड़ता है। अचानक से चार-चार गुनी तन्ख्वाह पाने वाले पत्रकारों की 'उपकृत और चमत्कृत' यह जमात नेताजी के एहसान का बोझ ढो रही थी। उन नेताओं के 'सिफारिशी-उपकार' का बोझ, जिनके लिए अटल 'अटल जी' और आडवाणी 'आडवाणी जी' थे। नए-नए 'अपग्रेडेशन' के चलते यह नेता और पत्रकार दोनों थोड़े कच्चे साबित हुए। न तो भाजपा को अभी कांगे्रस की तरह 'सोफेस्टिकेटेड' ढंग से मीडिया को मैनेज करना आया था, न यह पत्रकार पूरी तरह से 'हाईफाई और टैक्टफुलÓ हो सके थे। आपसी बातचीत में दोनों ही 'अटल जी-आडवाणी जी' संबोधनों का इस्तेमाल करते थे। उनका यह कच्चापन (पेशे के लिहाज 'फूहड़पनÓ कहना ज्यादा उपयुक्त होगा) ही खबरों के पीटीसी, वाइस ओवर, और फोनो आदि में 'अटल जी-आडवाणी जी' के रूप में फूट पड़ता था।
यह तो रही संवाददाताओं के स्तर पर चूक की बात, पर बात यहीं खत्म नहीं होती, क्योंकि संवाददाता तो बाइट की पहली कड़ी होता है, आखिरी नहीं। उसके किए को धोने-पछारने का काम डेस्क का होता है। 'जी' अगर अनुचित और आपत्तिजनक था तो डेस्क के स्तर पर इसे काटा-छांटा जा सकता था और संवाददाता को आगे से इसका इस्तेमाल न करने की नसीहत दी जा सकती थी, पर ऐसा नहीं हुआ। बाइटें जी-फैक्टर के साथ चलती रहीं। चैनलों के आउटपुट हेड और संपादक जैसे कर्ताधर्ता और नीति-नियंताओं को भी इस भटकाव से दोषमुक्त नहीं रखा जा सकता (दुआ साहब खुद भी इसी कैटेगरी में आते हैं)। 'अटल जी-आडवाणी जी' का जाप करने वाले संवाददाताओं की क्लास लेने का अधिकार इनके पास हमेशा की तरह सुरक्षित था। इसके बावजूद अगर इन्होंने कुछ नहीं किया जो इसमें इनकी भी मौन सहमति क्यों न मानी जाए? जाहिर है, 'मीडिया-उदय' के इस कालखंड में मीडिया-क्षितिज के तारों-सितारों रोशनी ही धूमिल नहीं हुई, बल्कि उसे 'प्रकाशित' करने वाले करने वाले 'सूरज-चंदा' भी ग्रहण की चपेट में अपना तेज खो रहे थे।
बहरहाल, अटल जी-आडवाणी जी का युग तो गुजर गया, पर इस मुद्दे की जड़ से जुड़ा सवाल अब भी अपनी जगह कायम है। सवाल है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में होने वाली जुगाड़ू भर्तियों का। आज भी मीडिया (खासकर चैनलों) में अधिसंख्य नियुक्तियां जुगाड़, सिफारिश और रसूख के सास्ते ही हो रही हैं। आज केदौर में सड़कों पर घूमने-टहलने और आसानी से किसी से भी मिल लेने वाले (एसपी सिंह सरीखे) संपादक चैनलों में लेंस, दूरबीन या माइक्रोस्कोप लेकर ढूंढने से नहीं मिलते। सूट-टाई में सजे-धजे संपादक की एसी गाड़ी से उतरते हैं और दायें-बायें देखे बिना सीधे केबिन में जाकर रिवॉल्विंग चेयर पर आसीन हो जाते हैं। उनसे मिलने की राह अब सड़कों नहीं, सत्ता के गलियारों से ही गुजरती है। स्वाभाविक है मीडिया में जब दाखिला जमीन के बजाए आकाश के रास्ते होगा तो चरित्र और संस्कारों में ऐसे ही बदलाव आते दिखेंगे ही। इसलिए शिखर पर बैठे लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इस तरह महज 'मासूम सवाल' उठाने और बौद्धिक चर्चा करने के बजाय इस विकृति के खिलाफ जमीनी तौर पर कुछ करें और जमीन से जुड़े लोगों को मीडिया से जोड़ें। बातें थोड़ी तल्ख और 'छोटा मुंह-बड़ी बात' सरीखी लग सकती हैं, पर सेमिनारों-संगोष्ठिïयों में पत्रकारिता की दशा-दिशा पर दिमागी जुगाली करने वाले मीडिया मु$गल खुद बताएं कि क्या यह सच नहीं और क्या इसके खिलाफ व्यक्तिगत रूप से और प्रभावी ढंग से उन्होंने कभी कुछ करने की कोशिश की है?
एक बड़ा व्यावहारिक सा सवाल है कि क्या आज की तारीख में ऐसा संभव है कि बिना किसी परिचय या रेफरेंस के कोई पत्रकार किसी चैनल में नौकरी के लिए जाए और प्रणव राय, विनोद दुआ, प्रभु चावला, आषुतोश, अलका सक्सेना या अनुराधा प्रसाद (नाम व्यक्ति नहीं, प्रतीक हैं) सरीखी संपादकीय हस्तियों से उसे मुलाकात भर करने को मिल जाए? मीडिया के 'सिस्टमÓ से अच्छी तरह वाकिफ होने के नाते मैंने तो कभी ऐसी 'नादानी' नहीं की, पर बहुतों के अनुभव सुन रखे हैं। कई लोगों ने बताया कि बायोडाटा लेकर नौकरी के लिए जाने पर पागलखाने से छूटकर आए प्राणी की तरह एक भीतरी व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ देखा जाता है और 'कहां-कहां से चले आते हैं' के भाव के साथ रिसेप्शनिस्ट के पास ही बायोडाटा धरवा कर रफा-दफा कर दिया जाता है। 'नंबर वन' का दावा करने वाले चैनलों के बारे में तो सुना है कि गेट पर ही पर ही बायोडाटा 'डंप' करने के लिए बॉक्स रखा रहता है। बायोडाटा डालिए और 'कर्म किए जा, फल की इच्छा मत कर' के भाव से निकल लीजिए। कुछ पूछने की जुरर्रत अगर कर भी ली तो चिड़चिड़ाते लहजे में महज एक लाइन का जवाब सुनने को मिलेगा कि सीवी में फोन नंबर और ई-मेल आईडी दिया है न? जब जरूरत होगी बता दिया जाएगा। चेहरे की भाव-भंगिमा ऐसी तिरस्कार भरी होगी कि 'संसार माया है, क्या लेकर जाएगा-क्या लेकर आया है' का गूढ़ ज्ञान एक झटके में मिल जाता है। बायोडाटा लेकर भीतर गया 'सिद्धार्थ' मिनट भर में 'बुद्ध' बनकर बाहर निकल आता है, 'माया' के इस दलदल में दोबारा कदम न रखने के संकल्प के साथ। बातें अतिरंजनापूर्ण लग रही हों तो नेट खंगाल लीजिए। मीडिया केमारों के बहुत ब्लॉगों पर ऐसी आपबीतीयां पढऩे को मिल जाएंगी। मीडिया जगत में यह बात वर्षों से एक 'अंडर करेंट' की तरह दौड़ रही है। जानता हर कोई है, पर इसके खिलाफ कहता-बोलता और करता कोई कुछ नहीं। मीडिया लोक के 'देवगण' भी पत्रकारिता के मूल्यों में गिरावट पर महज 'प्रवचन' देकर 'दायित्व-निर्वाह' कर लेते हैं। कुछ उसी अंदाज में जैसे कथा बांचने से पहले पंडित जी सबपर गंगाजल छिड़क कर ओम पवित्रम-पवित्रम बुदबुदाते हैं और यह मानते हुए कि सब लोग पवित्र हो गये, कथा शुरू हो जाती है। इसी परिपाटी पर मीडिया-कथा चल रही है। इस कथा वाचन से हटकर हकीकत के धरातल पर कुछ नहीं होता।
आज देश में आईएएस-पीसीएस तो छोडि़ए ड्राइवर-कंडक्टर, क्लर्क और यहां तक कि चपरासी तक बनने के लिए परीक्षा और साक्षात्कार देना पड़ता है, पर पत्रकार बनने के लिए कोई परीक्षा-परीक्षण नहीं होता। रस्म अदायगी के लिए कुछ मिनटों का साक्षात्कार होता है। इस साक्षात्कार की भी क्या कहें! अकसर साक्षात्कार कम, 'बौद्धिक बलात्कार' ज्यादा होता है। कहां से आए हो, वहां कितना (पैसा) मिलता था, क्या देखते थे जैसे दो-चार औपचारिक प्रश्नों के बाद शुरू हो जाती है संपादक जी की अपनी गौरव-गाथा। प्रत्याशी की योग्यता और ज्ञान परखने के बजाए संपादक जी अपनी ही महानता और ज्ञान बघारने में जुट जाते हैं। नौकरी चाहिए तो सुनते रहिए 'कथा शुरू है बलिदानों की, आये मजा कहानी में' के भाव के साथ। वाजपेयी जी की कविता 'चेहरे पर मुस्काने चिपकाये, खुद में ही रोता हूं' मन ही मन गुनिये, मुस्कराइये और श्रद्धापूर्वक पूरा का पूरा 'कथामृत' गटक जाइये। चेहरे पर जितनी श्रद्धा, जितनी हां में हां, उतनी ज्यादा पगार। अपना दिमाग दिखाने की कोशिश कर जरा भी डिस्टर्बेंस क्रिएट किया तो सरकार बुरा मान जाएंगे। ...और फिर तो अरस्तू, सुकरात, आइंस्टाइन क्या उनके बाप भी आ जाएं, संपादक जी घेरकर गिरा ही लेंगे कहीं न कहीं। सवालों की ऐसी झड़ी लगेगी, जिनके जवाब खुद उनको भी ठीक-ठीक नहीं मालूम होंगे। लोकल रिपोर्टिंग के लिए आए हो तो पूछेंगे टिंबकटू कहां है? बुर्कीनाफासो के हालात पर आपका क्या कहना है आपका? मुक्तिबोध की कविताओं में संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त प्रतीकों पर कुछ प्रकाश डालिए। टार्च तो ले नहीं गए हो, प्रकाश कहां से डालोगे भइया! इसलिए इंटरव्यू में मुस्कुराते हुए 'संपादक-पुराण' सुनो, हां जी-हां जी करो और नौकरी का 'प्रसाद' लेकर बाहर आ जाओ (ज्ञान-वान मत दिखाना, संपादक जी गुस्से हो जाते हैं)। इंटरव्यू के दौरान भी अकसर संपादक जी जल्दी में दिखाई देते हैं। आधे घंटे बाद यूनिवर्सिटी के सेमिनार में जाना है 'मीडिया की गिरती गरिमा : कारण और उपचार' पर व्याख्यान देने। तालियों के बीच मंच पर पहुंचते चालू हो जाते हैं...मीडिया की साख गिर रही है, काबिल और गंभीर लोग पत्रकारिता में नहीं आ रहे हैं, पत्रकारों की तो पढऩे-लिखने में कोई रुचि ही नहीं रह गई है आज...। आधे घंटे पकाने के बाद भावुक होकर कहते हैं मेरी भी उम्र होती जा रही है, चाहता हूं किसी किसी योग्य उत्तराधिकारी को दायित्व सौंप कर किनारे हो लूं। पांच साल से तलाश रहा हूं, कोई नजर नहीं आता क्या करूं??? चश्मा उतार कर संपादक जी आंखें पोछते हैं और तालियों की गडग़ड़ाहट केसाथ भाषण खत्म हो जाता है। मुझ बदतमीज को जाने क्यों दोस्त का चुटकुले वाला वह एसएमएस याद आ जाता है- गांधी जी हत्या हो गई, नेहरू-पटेल नहीं रहे, मेरी भी तबीयत खराब चल रही है। हे राम! इस देश का क्या होगा?
मीडिया-यथार्थ

5 फ़रवरी 2010

मीडिया का ये 'जी-फैक्टर '

'ज्ञानोदय' के मीडिया विशेषांक में पत्रकारिता की दुनिया के 'बड़े लोगोंÓ अनुभवों और संस्मरणों के रास्ते कहीं न कहीं मीडिया के चाल-चरित्र में हाल के वर्षों में आए बदलाव की झलक देखने को मिली। विनोद दुआ ने अपने आलेख में पत्रकारिता की चुनौतियों के एक व्यावहारिक पहलू को छूते हुए गंभीर सवाल उठाया है। सवाल पत्रकारिता में उभरती एक नई प्रवृत्ति, गहरे में जाएं तो उसके बदलते चरित्र को लेकर है। मुद्दा है पत्रकारिता में उभरते 'जी-फैक्टर' का। दुआ साहब का आब्जर्वेशन है कि भाजपा को कवर करने वाले बहुत से पत्रकार अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के नाम के आगे 'जी' लगाते लगाते हैं। वह सवाल उठाते हैं कि क्या पत्रकारों का बे्रनवॉश किया जा रहा है गांधीजी और नेताजी आदि महापुरुषों के समकक्ष 'अटल जी' और 'आडवाणी जी' को प्रतिष्ठïापित करने के लिए। इस अजीबोगरीब चलन केपीछे आदत या 'व्यावहारिकताÓ की संभावनाओं को दरकिनार करते हुए वह यह भी पूछते हैं कि ऐसा सोनिया गांधी, मनामोहन सिंह, जैसी कांगे्रस की कद्दावर हस्तियों के साथ देखने को क्यों नहीं मिलता। भाजपा के भी मुरली मनोहर जोशी, जसवंत सिंह (फिलहाल निष्काषित) सरीखे अन्य वरिष्ठï नेताओं के नाम के साथ भी कोई जी नहीं लगाता। तो आखिर इस अटल-आडवाणी से जुड़े इस 'जी-फैक्टर' की वजह क्या है?
गहराई से देखें तो इन सवालों का जवाब खुद सवालों में ही छिपा नजर आता है। गौर करने वाली बात यह है कि संवाददाताओं में यह प्रवृत्ति पिछले एक दशक के कुछ वर्षों से ही देखने को मिल रही है। यानि भाजपा के केंद्रीय सत्ता में आने के बाद से। इससे पहले वही अटल-आडवाणी थे, मीडिया वही था, पर खबरों में 'जी' शब्द सुनाई नहीं देता था। जाहिर है यह 'कमाल' कहीं न कहीं भाजपा के हाथ सत्ता आने के साथ जुड़ा हुआ है। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि भाजपा के सत्तासीन होने का यह दशक मीडिया के लिए भी तेजी से विस्तार का दशक था। साथ ही साथ चाल-चरित्र और दिशा के लिहाज से उसके लिए यह एक संक्रमण-काल भी था। 'चैनल क्रांति' के इन वर्षों में एक के बाद एक न्यूज चैनलों की झड़ी लग गई। जाहिर है, इन चैनलों को चलाने के लिए बड़ी संख्या में पत्रकारों की जरूरत पड़ी। इस बहती गंगा में नहाने का सबसे ज्यादा 'पुण्य' मिला दिल्ली के उन पत्रकारों को जो सियासी गलियारों में टहलते फिरते थे। वर्षों से उनके लिए आसानी से उपलब्ध रहे कई भाजपा नेताओं के सिरों पर अब लाल बत्ती की आभा चमक रही थी। नेताओं के इस 'अपग्रेडेशन' का लाभ उनसे 'जुड़े' पत्रकारों को मिला चैनलों में भारी-भरकम पैकेज वाली नौकरियों के रूप में। पत्रकारिता में 'जी-फैक्टर' का प्रवेश इसी रास्ते हुआ जान पड़ता है। अचानक से चार-चार गुनी तन्ख्वाह पाने वाले पत्रकारों की 'उपकृत और चमत्कृत' यह जमात नेताजी के एहसान का बोझ ढो रही थी। उन नेताओं के 'सिफारिशी-उपकार' का बोझ, जिनके लिए अटल 'अटल जी' और आडवाणी 'आडवाणी जी' थे। नए-नए 'अपग्रेडेशन' के चलते यह नेता और पत्रकार दोनों थोड़े कच्चे साबित हुए। न तो भाजपा को अभी कांगे्रस की तरह 'सोफेस्टिकेटेड' ढंग से मीडिया को मैनेज करना आया था, न यह पत्रकार पूरी तरह से 'हाईफाई और टैक्टफुलÓ हो सके थे। आपसी बातचीत में दोनों ही 'अटल जी-आडवाणी जी' संबोधनों का इस्तेमाल करते थे। उनका यह कच्चापन (पेशे के लिहाज 'फूहड़पनÓ कहना ज्यादा उपयुक्त होगा) ही खबरों के पीटीसी, वाइस ओवर, और फोनो आदि में 'अटल जी-आडवाणी जी' के रूप में फूट पड़ता था।
यह तो रही संवाददाताओं के स्तर पर चूक की बात, पर बात यहीं खत्म नहीं होती, क्योंकि संवाददाता तो बाइट की पहली कड़ी होता है, आखिरी नहीं। उसके किए को धोने-पछारने का काम डेस्क का होता है। 'जी' अगर अनुचित और आपत्तिजनक था तो डेस्क के स्तर पर इसे काटा-छांटा जा सकता था और संवाददाता को आगे से इसका इस्तेमाल न करने की नसीहत दी जा सकती थी, पर ऐसा नहीं हुआ। बाइटें जी-फैक्टर के साथ चलती रहीं। चैनलों के आउटपुट हेड और संपादक जैसे कर्ताधर्ता और नीति-नियंताओं को भी इस भटकाव से दोषमुक्त नहीं रखा जा सकता (दुआ साहब खुद भी इसी कैटेगरी में आते हैं)। 'अटल जी-आडवाणी जी' का जाप करने वाले संवाददाताओं की क्लास लेने का अधिकार इनके पास हमेशा की तरह सुरक्षित था। इसके बावजूद अगर इन्होंने कुछ नहीं किया जो इसमें इनकी भी मौन सहमति क्यों न मानी जाए? जाहिर है, 'मीडिया-उदय' के इस कालखंड में मीडिया-क्षितिज के तारों-सितारों रोशनी ही धूमिल नहीं हुई, बल्कि उसे 'प्रकाशित' करने वाले करने वाले 'सूरज-चंदा' भी ग्रहण की चपेट में अपना तेज खो रहे थे।
बहरहाल, अटल जी-आडवाणी जी का युग तो गुजर गया, पर इस मुद्दे की जड़ से जुड़ा सवाल अब भी अपनी जगह कायम है। सवाल है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में होने वाली जुगाड़ू भर्तियों का। आज भी मीडिया (खासकर चैनलों) में अधिसंख्य नियुक्तियां जुगाड़, सिफारिश और रसूख के सास्ते ही हो रही हैं। आज केदौर में सड़कों पर घूमने-टहलने और आसानी से किसी से भी मिल लेने वाले (एसपी सिंह सरीखे) संपादक चैनलों में लेंस, दूरबीन या माइक्रोस्कोप लेकर ढूंढने से नहीं मिलते। सूट-टाई में सजे-धजे संपादक की एसी गाड़ी से उतरते हैं और दायें-बायें देखे बिना सीधे केबिन में जाकर रिवॉल्विंग चेयर पर आसीन हो जाते हैं। उनसे मिलने की राह अब सड़कों नहीं, सत्ता के गलियारों से ही गुजरती है। स्वाभाविक है मीडिया में जब दाखिला जमीन के बजाए आकाश के रास्ते होगा तो चरित्र और संस्कारों में ऐसे ही बदलाव आते दिखेंगे ही। इसलिए शिखर पर बैठे लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इस तरह महज 'मासूम सवाल' उठाने और बौद्धिक चर्चा करने के बजाय इस विकृति के खिलाफ जमीनी तौर पर कुछ करें और जमीन से जुड़े लोगों को मीडिया से जोड़ें। बातें थोड़ी तल्ख और 'छोटा मुंह-बड़ी बात' सरीखी लग सकती हैं, पर सेमिनारों-संगोष्ठिïयों में पत्रकारिता की दशा-दिशा पर दिमागी जुगाली करने वाले मीडिया मु$गल खुद बताएं कि क्या यह सच नहीं और क्या इसके खिलाफ व्यक्तिगत रूप से और प्रभावी ढंग से उन्होंने कभी कुछ करने की कोशिश की है?
एक बड़ा व्यावहारिक सा सवाल है कि क्या आज की तारीख में ऐसा संभव है कि बिना किसी परिचय या रेफरेंस के कोई पत्रकार किसी चैनल में नौकरी के लिए जाए और प्रणव राय, विनोद दुआ, प्रभु चावला, आषुतोश, अलका सक्सेना या अनुराधा प्रसाद सरीखी संपादकीय हस्तियों से उसे मुलाकात भर करने को मिल जाए? मीडिया के 'सिस्टमÓ से अच्छी तरह वाकिफ होने के नाते मैंने तो कभी ऐसी 'नादानी' नहीं की, पर बहुतों के अनुभव सुन रखे हैं। कई लोगों ने बताया कि बायोडाटा लेकर नौकरी के लिए जाने पर पागलखाने से छूटकर आए प्राणी की तरह एक भीतरी व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ देखा जाता है और 'कहां-कहां से चले आते हैं' के भाव के साथ रिसेप्शनिस्ट के पास ही बायोडाटा धरवा कर रफा-दफा कर दिया जाता है। 'नंबर वन' का दावा करने वाले चैनलों के बारे में तो सुना है कि गेट पर ही पर ही बायोडाटा 'डंप' करने के लिए बॉक्स रखा रहता है। बायोडाटा डालिए और 'कर्म किए जा, फल की इच्छा मत कर' के भाव से निकल लीजिए। कुछ पूछने की जुरर्रत अगर कर भी ली तो चिड़चिड़ाते लहजे में महज एक लाइन का जवाब सुनने को मिलेगा कि सीवी में फोन नंबर और ई-मेल आईडी दिया है न? जब जरूरत होगी बता दिया जाएगा। चेहरे की भाव-भंगिमा ऐसी तिरस्कार भरी होगी कि 'संसार माया है, क्या लेकर जाएगा-क्या लेकर आया है' का गूढ़ ज्ञान एक झटके में मिल जाता है। बायोडाटा लेकर भीतर गया 'सिद्धार्थ' मिनट भर में 'बुद्ध' बनकर बाहर निकल आता है, 'माया' के इस दलदल में दोबारा कदम न रखने के संकल्प के साथ। बातें अतिरंजनापूर्ण लग रही हों तो नेट खंगाल लीजिए। मीडिया केमारों के बहुत ब्लॉगों पर ऐसी आपबीतीयां पढऩे को मिल जाएंगी। मीडिया जगत में यह बात वर्षों से एक 'अंडर करेंट' की तरह दौड़ रही है। जानता हर कोई है, पर इसके खिलाफ कहता-बोलता और करता कोई कुछ नहीं। मीडिया लोक के 'देवगण' भी पत्रकारिता के मूल्यों में गिरावट पर महज 'प्रवचन' देकर 'दायित्व-निर्वाह' कर लेते हैं। कुछ उसी अंदाज में जैसे कथा बांचने से पहले पंडित जी सबपर गंगाजल छिड़क कर ओम पवित्रम-पवित्रम बुदबुदाते हैं और यह मानते हुए कि सब लोग पवित्र हो गये, कथा शुरू हो जाती है। इसी परिपाटी पर मीडिया-कथा चल रही है। इस कथा वाचन से हटकर हकीकत के धरातल पर कुछ नहीं होता।
आज देश में आईएएस-पीसीएस तो छोडि़ए ड्राइवर-कंडक्टर, क्लर्क और यहां तक कि चपरासी तक बनने के लिए परीक्षा और साक्षात्कार देना पड़ता है, पर पत्रकार बनने के लिए कोई परीक्षा-परीक्षण नहीं होता। रस्म अदायगी के लिए कुछ मिनटों का साक्षात्कार होता है। इस साक्षात्कार की भी क्या कहें! अकसर साक्षात्कार कम, 'बौद्धिक बलात्कार' ज्यादा होता है। कहां से आए हो, वहां कितना (पैसा) मिलता था, क्या देखते थे जैसे दो-चार औपचारिक प्रश्नों के बाद शुरू हो जाती है संपादक जी की अपनी गौरव-गाथा। प्रत्याशी की योग्यता और ज्ञान परखने के बजाए संपादक जी अपनी ही महानता और ज्ञान बघारने में जुट जाते हैं। नौकरी चाहिए तो सुनते रहिए 'कथा शुरू है बलिदानों की, आये मजा कहानी में' के भाव के साथ। वाजपेयी जी की कविता 'चेहरे पर मुस्काने चिपकाये, खुद में ही रोता हूं' मन ही मन गुनिये, मुस्कराइये और श्रद्धापूर्वक पूरा का पूरा 'कथामृत' गटक जाइये। चेहरे पर जितनी श्रद्धा, जितनी हां में हां, उतनी ज्यादा पगार। अपना दिमाग दिखाने की कोशिश कर जरा भी डिस्टर्बेंस क्रिएट किया तो सरकार बुरा मान जाएंगे। ...और फिर तो अरस्तू, सुकरात, आइंस्टाइन क्या उनके बाप भी आ जाएं, संपादक जी घेरकर गिरा ही लेंगे कहीं न कहीं। सवालों की ऐसी झड़ी लगेगी, जिनके जवाब खुद उनको भी ठीक-ठीक नहीं मालूम होंगे। लोकल रिपोर्टिंग के लिए आए हो तो पूछेंगे टिंबकटू कहां है? बुर्कीनाफासो के हालात पर आपका क्या कहना है आपका? मुक्तिबोध की कविताओं में संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त प्रतीकों पर कुछ प्रकाश डालिए। टार्च तो ले नहीं गए हो, प्रकाश कहां से डालोगे भइया! इसलिए इंटरव्यू में मुस्कुराते हुए 'संपादक-पुराण' सुनो, हां जी-हां जी करो और नौकरी का 'प्रसाद' लेकर बाहर आ जाओ (ज्ञान-वान मत दिखाना, संपादक जी गुस्से हो जाते हैं)। इंटरव्यू के दौरान भी अकसर संपादक जी जल्दी में दिखाई देते हैं। आधे घंटे बाद यूनिवर्सिटी के सेमिनार में जाना है 'मीडिया की गिरती गरिमा : कारण और उपचार' पर व्याख्यान देने। तालियों के बीच मंच पर पहुंचते चालू हो जाते हैं...मीडिया की साख गिर रही है, काबिल और गंभीर लोग पत्रकारिता में नहीं आ रहे हैं, पत्रकारों की तो पढऩे-लिखने में कोई रुचि ही नहीं रह गई है आज...। आधे घंटे पकाने के बाद भावुक होकर कहते हैं मेरी भी उम्र होती जा रही है, चाहता हूं किसी किसी योग्य उत्तराधिकारी को दायित्व सौंप कर किनारे हो लूं। पांच साल से तलाश रहा हूं, कोई नजर नहीं आता क्या करूं??? चश्मा उतार कर संपादक जी आंखें पोछते हैं और तालियों की गडग़ड़ाहट केसाथ भाषण खत्म हो जाता है। मुझ बदतमीज को जाने क्यों दोस्त का चुटकुले वाला वह एसएमएस याद आ जाता है- गांधी जी हत्या हो गई, नेहरू-पटेल नहीं रहे, मेरी भी तबीयत खराब चल रही है। हे राम! इस देश का क्या होगा?

20 जनवरी 2010

महंगाई पर तमाशेबाजी!

महंगाई आज देश की जनता के लिए ङ्क्षचता का सबसे बड़ा का मुद्दा है। दूसरी ओर सरकार में बैठे लोगों लिए शायद यह महज बौद्धिक कलाकारी और बयानबाजी का विषय बनकर रह गया है। शायद यही वजह है कि सरकार की तमाम कोशिशों केबावजूद महंगाई जहां की तहां कायम है। उधर सरकार में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोग महंगाई को लेकर तरह-तरह की व्याख्याएं पेश कर रहे हैं। कई बार तो यह व्याख्याएं इतनी अजीबोगरीब होती हैं कि यह भी समझ नहीं आता कि इन पर हंसा जाए या रोया जाए। एक-दो दिन पहले देश के कृषि मंत्री शरद पवार ने महंगाई का कारण ग्लोबल वार्मिंग को बताकर सरकार की खासी किरकिरी करवाई थी। कुछ ऐसा ही बयान मंगलवार को योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया का आया है। अहलूवालिया ने महंगाई की वजह अनाज और खाद्य पदार्थों उत्पादन में कमी के बजाए वितरण व्यवस्था में खामी को बताया है। उनके मुताबिक सूखे के बाद कीमतों को लेकर अटकलों के चलते महंगाई बढ़ी है। सब्जियों और आलू-प्याज का उदाहरण देते हुए मोंटेक ने कहा कि इनकी कीमतों में अपेक्षा से कहीं अधिक बढ़ोतरी हुई है और महंगाई को मौद्रिक उपायों के जरिए नियंत्रित नहीं किया जा सकता। योजना आयोग के उपाध्यक्ष की यह कथनी महंगाई की गेंद को दूसरे के पाले में डालने की कवायद ही जान पड़ती है। आर्थिक कारणों के बजाए महंगाई का ठीकरा व्यवस्थागत खामियों के सिर फोड़कर उन्होंने हमारे अर्थतंत्र के नीति नियंताओं और नियामकों के बचाव की नाकाम कोशिश की है। व्यावहारिक तौर पर उनकी बात कुछ हद तक ठीक हो सकती है, पर वितरण में खामियों के नाम पर आर्थिक मोर्चे पर सरकार की विफलता को छुपाया नहीं जा सकता। दूसरी बात यह है कि उनकी बातों को अगर ठीक मान भी लिया जाए तो क्या इससे सरकार महंगाई पर अपनी जवाबदेही से बच सकती है? यदि देश में अनाज का पर्याप्त भंडार है और वितरण व्यवस्था में खामी के चलते महंगाई बेलगाम बढ़ रही है तो सवाल यह उठता है कि वितरण व्यवस्था की इस खामी को सुधारना आखिर किसका काम है। क्या यह सरकार का काम नहीं? क्या हमारे देश की वितरण प्रणाली को सुधारने के लिए विदेश से कोई आएगा। देखा जाए तो मोंटेक की यह दलील सरकार को दोषमुक्त करने के बजाए उसकी नाकामी को नकारेपन का दर्जा देने वाली लगती है। अनाज की कमी होने पर मांग और पूर्ति के अंतर के चलते कीमतें बढऩे की बात तो स्वाभाविक और तार्किक है, पर यदि हमारी सरकार भंडार भरे होने पर भी महंगाई बढऩे दे रही है तो उसका दोष और भी बढ़ जाता है। सियासत की रोटियां सेकने केलिए नेता-मंत्री तो तरह-तरह की बातें कहते रहते हैं पर योजना आयोग उपाध्यक्ष जैसे नीति निर्धारक पद पर बैठे और अच्छे अर्थशास्त्री की छवि रखने वाले मोंटेक सिंह ने यह बात कही है। इसलिए इसे गंभीरता से लिया जाना जरूरी है। अगर इसमें सच्चाई है तो सरकार को इस दिशा में त्वरित कार्रवाई करते हुए वितरण व्यवस्था की खामियों को दूर करने के कारगर कदम उठाने चाहिए।