17 अप्रैल 2015

‘न्यूज ट्रेडर्स’ के खिलाफ मोदी के मुंह में क्यों लगा हुआ है ताला

प्रिंट मीडिया के पत्रकारों को मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के मुताबिक वेतन दिलाने के मसले पर मोदी सरकार मौन है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अखबारों के ज्यादातर मालिक इसे लागू नहीं कर रहे है और ‌लागू करने वालों ने भी कमोबेश इसका मजाक बनाकर ही रखा हुआ है। कुल मिलाकर देश की सबसे बड़ी अदालत के हुक्म के बावजूद इस मामले में गजब की अराजकता की स्थिति बनी हुई है।

मीडिया घरानों और मालिकों को आए दिन कोसने और प्रेस्टीट्यूट जैसी संज्ञा देने वाले मोदी के मंत्री इस मसले पर शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुंह गाड़े बैठे हैं। लोकसभा चुनाव से पहले मीडिया मालिकों को ‘न्यूज ट्रेडर्स’ की संज्ञा देने और 56 इंच का सीना दिखाने वाले प्रधानमंत्री मोदी की भी इस मसले पर बोलती बंद है। दूसरी ओर कम्यूनिस्ट नेता अतुल अनजान ने इस लड़ाई में पत्रकारों का साथ देने की बात कही है। इससे निश्चित रूप से इस आंदोलन को बल मिलेगा।

मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों को लागू कराने के लिए विभिन्न मीडिया घरानों के खिलाफ लड़ रहे पत्रकारों व गैर पत्रकारों का धरना 27 अप्रैल को नई दिल्ली में जंतर-मंतर पर होने जा रहा है। अतुल कुमार अंजान ने 27 अप्रैल को जंतर-मंतर पर होने वाले धरने में शामिल होने की स्वीकृति दे दी है। हालांकि उन्होंने यह भी अंदेशा जताया है कि पत्रकार भले ही सुप्रीम कोर्ट में बड़े-बड़े अखबार मालिकों के खिलाफ लड़ रहे हैं, लेकिन जब जरूरत आएगी तो भाग खड़े होंगे।

उन्होंने आईबीएन 7 सहित पिछले कई वर्षों में नौकरी से निकाले गए पत्रकारों के मामलों की मिसाल देते हुए कि हम तो धरने पर पहुंच गए, लेकिन जिनका धरना था वो ही नहीं आए। इसलिए पत्रकार बिरादरी का अब फर्ज बनता है कि वह मजबूती के साथ आगे आकर ऐसी आशंकाओं को गलत साबित करें और बुलंदी के साथ अपने हक की आवाज उठाएं।

12 अप्रैल 2015

फ्रेंच अखबार 'ल मॉन्द' ने दिखा दिया मोदी महाशय को ठेंगा

देश के सरकारी न्यूज चैनल और रेडियो पर अपनी वाह-वाही का प्रसारण कराने वाले मोदी महाशय को फ्रांस के एक अखबार ने सीधे-सीधे ठेंगा दिखा दिया है। फ्रेंच अखबार 'ल मॉन्द' ने पेरिस में मोदी की जो किरकिरी की है उसकी ऊंचाई भीएफिल टावर से कतई कम नहीं कही जा सकती। 

दरअसल सातवें आसमान पर चल रहे सत्ता के अहंकार और पालतू संपादकों को उंगलियों के इशारे पर नचाने की आदत में मोदी जी ने फ्रांस में भी कुछ ऐसा ही करने की कोशिश कर डाली। ... बस जनाब, यहीं मात खा गया इंडिया। मोदी जी ने फ्रांस के अग्रणी अखबार 'ल मॉन्द' में अपना प्री फेब्रिकेटेड और प्लांटेड इंटरव्यू छपवाने की इच्छा जाहिर की, तो खरी-खरी सुननी पड़ गई देसी तीस मार खान को। 

दरअसल मोदी जी शायद भूल गए कि फ्रांस उनकी टेरिटरी नहीं है, जहां वह दूरदर्शन को मोदी दर्शन बना लेंगें और आकाशवाणी पर वक्त बे वक्त मोदी के ‘मन की बात’ बात बजेगी। मोदी जी को शायद यह भी याद नहीं रहा कि फ्रांस में भारत की तरह उनके कोई पद्म भूषण शर्मा जी नहीं बैठे हुए हैं, जो प्लांटेड इंटरव्यू चलाने और फर्जी अदालत लगाने में महारत रखते हों। सो अखबार ने न केवल मोदी जी का ऐसा इंटरव्यू छापने से इनकार ‌कर दिया बल्कि उसके सोशल साइट पर इसका नगाड़ा पीट कर मोदी जी की दुनिया भर में खूब भद्द भी पिटवाई। 

'ल मॉन्द' के दक्षिण एशियाई संवाददाता जूलियॉं बुविशॉ ने ट्विटर पर इस बात का खुलासा भी कर दिया। उन्होंने अपने ट्वीट में कहा है कि 'हमें बताया गया था कि नरेंद्र मोदी सवालों के जवाब लिखकर देंगे, न कि सामने बैठकर। इसलिए 'ल मॉन्द' ने इंटरव्यू से इनकार कर दिया।' इसके बाद प्रधानमंत्री कार्यालय ने दूसरे अखबार 'ल फिगार' से इस इंटरव्यू के लिए बात की।

इस तरह 'ल मॉन्द' ने एक तीर से दो नहीं, तीन शिकार कर दिखाए। उसने न सिर्फ मीडिया को मुट्ठी में समझने के मोद के गुरूर को उजागर किया, बल्कि पूर्वनियोजित या फिक्स इंटरव्यू छापने से इनकार करके अपनी साख को जनता के बीच और मजबूत कर लिया। इसके साथ ही उसने प्रतिद्वंद्वी अखबार 'ल फिगार' में छपे मोदी के इंटरव्यू की हकीकत भी दुनिया के सामने रख दी। दरअसल 'ल फिगार' 'ल मॉन्द' का प्रतिद्वंद्वी अखबार होने के साथ ही उस कंपनी दसौ का अखबार है, जो भारत को 126 रफेल लड़ाकू विमान बेचने की कोशिश कर रही है।

8 अप्रैल 2015

... और इन्होंने मीडिया को ‘तवायफ’ बना‌ दिया

नरेंद्र मोदी की सरकार चुनाव में किए गए बड़े-बड़े वायदों को निभा पाने में दस माह बाद भी भले ही मीलों पीछे खड़ी नजर आती हो, पर मोदी के विचित्र मंत्री और सांसद आए दिन नए-नए विवाद खड़े करने में जरा भी पीछे नहीं हैं। ज्यादातर विवाद मंत्रियों की बदजुबानी या बेमतलब के बयानों से पैदा हो रहे हैं।

साध्वी निरंजन ज्योति के रामजादे-हरामजादे वाले विवाद और साक्षी महाराज के बयानों के बाद अब पूर्व आर्मी चीफ और केंद्र सरकार में विदेश राज्य मंत्री वीके सिंह एक बार विवादित बयान देकर नया बखेड़ा खड़ा कर दिया है। इस बार उन्होंने मीडिया के खिलाफ विष वमन किया है। मीडिया को तुलना वेश्या से करने की नीयत से उन्होंने अंग्रेजी के प्रास्टीट्यूट शब्द की मीडिया के लिए प्रेस्टीट्यूट शब्द का इस्तेमाल किया है।

वीके सिंह ने पहले तो हिंसा में घिरे यमन से भारतीयों को निकालने के मिशन की तुलना पाकिस्तान के दूतावास में होने वाले कार्यक्रमों से की। इस तुलना पर जब विवाद हुआ तो वह मीडिया पर ही भड़क गये और मीडिया के खिलाफ आपत्तिजनक और अमर्यादित टिप्पणी की।

सोशल नेटवर्किंग साइट ट्वीटर पर वीके सिंह ने लिखा कि 'दोस्तों आप प्रेसटीट्यूट्स से और क्या उम्मीद कर सकते हैं। हैशटैग टाइम्स नाउ डिजास्टर से किए गए ट्वीट में म‌‌ीडिया के लिए जिस प्रेस्टिट्यूट्स शब्द का इस्तेमाल किया गया है, वह दरअसल प्रेस और प्रॉ‌स्टिट्यूट का जोड़ है। वीके सिंह ने ट्वीट के अगले हिस्‍से में कहा है कि अंतिम बार में अर्नब गोस्वामी ने ई के स्‍‌थान पर ओ समझ लिया था।

वीके सिंह के इस बेतुके बयान की मीडिया जगत में तीखी आलोचना हो रही है। कहा जा रहा है कि 56 इंच के सीने वाले मोदी जनता के सामने मंच पर तो बड़े शेर बनते हैं, पर अपने बड़बोले मंत्रियों की जबान पर लगाम नहीं लगा पा रहे हैं। शायद उनकी खुद की बतोले बाजी की आदत इसमें आड़े आ रही है कि जब अपनी जबान पर ही कंट्रोल नहीं जनाब का, तो दूसरों को किस मुंह से क्या कहें भला!

6 अप्रैल 2015

ये स्कीम चालू हुई तो टीटी बाबू की काली कमाई बंद

रेलवे में एक ऐसी योजना अमल लाने की बात चल रही है, जो लागू हो जाए तो यात्रियों को जहां काफी आराम मिलेगा, पर टीटी महाशयों की दो नंबर की कमाई ही बंद हो जाएगी। इसी के चलते इस योजना के लागू हो पाने को लेकर अशंका भी जताई जा रही है। मामला है यात्रियों को ट्रेन में ही रिजर्वेशन कराने की सुविधा देने का । इसके तहत आप सीधे ट्रेन में सवार होकर टीटीई से बर्थ रिजर्व करा सकेंगे। इसके लिए टीटीई को एक हैंड हेल्ड डिवाइस दी जाएगी। यह मशीन सीधे पैसेंजर रिजर्वेशन सिस्टम (पीआरएस) सर्वर से जुड़ी रहेगी, जिससे इससे खाली होने वाली सीटों की अपडेट जानकारी तुरंत टीटीई को मिलती रहेगी और वह कैंसिल आखिरी समय में होने वाले रिजर्वेशन की जगह दूसरे यात्रियों को बर्थ एलॉट कर सकेंगे। प्रयोग के तौर पर यह सुविधा गरीब रथ में शुरू की गई है। योजना काफी सफल होती दिख रही है। रेलवे बोर्ड के आदेश मिलते ही सभी ट्रेनों में यह सुविधा शुरू की जा सकती है। अबतक पास केवल रिजर्वेशन का चार्ट होता है। इस कारण टिकट कैंसिल होने पर खाली हुई सीट की जानकारी टीटीई को नहीं होती है। इसके कारण चलती ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं होता। आमतौर पर इन्ही खाली पड़ी बर्थ को तिगुने-चौगुने में जरूरतमंद लोगों को बेच कर टीटीई मोटी कमाई करते हैं। बताया जाता है कि इस गोरखधंधे के तार ऊपर तक जुड़े होते हैं और हिस्सा टॉप तक जाता है। इसी कारण चलती ट्रेन में रिजर्वेशन की योजना के लागू हो पाने को लेकर शंकाएं जताई जा रही हैं। हालांकि रेल मंत्री सुरेश प्रभु की साफ-सुथरी और सुधारवादी छवि को देखते हुए कहीं न कहीं उम्मीद भी है कि शायद ऐसा हो ही जाए। हालांकि अभी तक तो प्रभु जी ने ऐसा कोई काम नहीं किया है, जिसके लिए उनकी सराहना की जा सके।

आरएसएस के मंसूबों पर प्रेमजी ने फेर दिया पानी

 देश के बड़े उद्योग पतियों में शुमार सॉफ्टवेयर कंपनी विप्रो के प्रमुख अजीम प्रेम जी ने उनके चेहरे को अपने इमेज मोडिफिकेशन के लिए इस्तेमाल करने के आरएसएस के मंसूबे परकॉरपोरेट अंदाज में पानी फेर दिया है। दरअसरल संघ अजीम प्रेमजी जैसे साफ-सुथरी छवि और परोपकार के कामों से जुड़े उद्योग पति को अपने मंच पर खड़ा करके अपनाएक उदारवादी चेहरा पेश करने की जुगत में था। पर प्रेमजी की बातों से आरएसएस के मंसूबों पर पानी फिर गया। विप्रो प्रमुख प्रेमजी ने संघ से जुड़े राष्ट्रीय सेवा भारती के शुरू हुए ‘राष्ट्रीय सेवा संगम’ नामक तीन दिवसीय सम्मेलन में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के साथ मंच तो साझा किया, पर साथ ही स्पष्ट कर दिया कि किसी के मंच को साझा करने का मतलब उसकी विचारधारा को स्वीकारना नहीं है।
अपने संबोधन में प्रेमजी ने कहा कि भागवतजी ने जब मुझे यहां आने का निमंत्रण दिया, तो लोगों ने आशंका जताई कि यहां मेरा आना संघ की विचारधारा स्वीकार करना माना जाएगा। हालांकि मैंने यह राय नहीं मानी। मेरा मानना है कि किसी का मंच साझा करना उसकी विचारधारा को पूर्णत: स्वीकार करना नहीं है।
प्रेमजी ने कहा कि संघ के समाज सेवी संगठनों ने महान कार्य किए हैं और वह उसका सम्मान करते हैं। उन्होंने भ्रष्टाचार से हर स्तर पर लड़ने और महिलाओं, बच्चों तथा वंचित लोगों के लिए उत्थान के लिए काम करने का आह्वान किया। उन्होंने भारत में शिक्षा का बजट बहुत कम होने पर निराशा भी जताई। गौरतलब ‌है कि इस कार्यक्रम में प्रेमजी के अलावा जीएमआर समूह के जीएम राव और एस्सेल ग्रुप के प्रमुख सुभाष चन्द्रा ने भी मंच साझा किया।

5 अप्रैल 2015

अजीम प्रेमजी, सुभाष घई के जरिए उदार चेहरा दिखाना चाहता है आरएसएस

संघ प्रमुख मोहन भागवत के मदर टेरेसा द्वारा धर्म परिवर्तन के लिए सामाजिक कार्य किए जाने के बयान की चारों ओर हुई तीखी आलोचना के बाद आरएसएस अब इसे बैलेंस करने के लिए कुछ उदारवादी चेहरा पेश करने की जुगत में दिख रहा है।
यह पहल दिल्ली के बाहरी इलाके में हो रहे संघ तीन दिवसीय राष्ट्रीय सेवा संगम कार्यक्रम में देखी जा सकती है। कार्यक्रम की खास बात यह है कि इसके उद्घाटन सत्र में देश के दिग्गज उद्योगपति अजीम प्रेमजी और जीएम राव के अलावा फिल्म निर्माता सुभाष घई के भी मुख्य अतिथि के तौर पर आने की संभावना है। इन तीन लोगों को मंच पर पेश करके संघ यह दिखाना चाहता है कि वह अब कट्टर हिंदूवाद के युग से निकल कर उदारवाद की ओर कदम बढ़ा रहा है। कार्यक्रम के जरिए आरएसएस अपने और अपने सहायक संगठनों के सेवा कार्यों को समाज के सामने रखते हुए यह जताने की कोशिश करेगा कि भारत में सामाजिक कार्य विदेशी मिशनरियों की देन नहीं है, बल्कि दूसरे संगठन भी इस क्षेत्र में बिना किसी लोभ के काफी काम कर रहे हैं। कार्यक्रम की अध्यक्षता माता अमृतानंदमयी और संघ प्रमुख मोहन भागवत करेंगे। संघ का यह आयोजन चार साल बाद कर रहा है और इस बार यह काफी बड़े स्तर पर किया जा रहा है। कार्यक्रम में 836 संगठनों से जुड़े चार हजार प्रतिनिधि इसमें भाग ले रहे हैं।

गुलाम अली की इस अनूठी पहल पर क्यों नहीं जाती मीडिया की नजर

हमारे देश का मीडिया दंगे, लव जिहाद जैसी खबरें और सामाजिक समरसता को बिगाड़ने वाले रामजादे-हरामजादे जैसे बयान बड़ी आसानी से सुर्खियों बनाता है, पर देश की गंगा-जमनी तहजीब को बढ़ावा देने वाली कोई घटना या प्रयास हो तो उसे कोई खास तवज्जो नहीं दी। बनारस में एक ऐसी ही पहल हो रही है, जिसे मीडिया ने उतना हाइलाइट नहीं किया, जितना कि किया जाना चाहिए था।
यह खबर है दुनिया भर में गजल गायकी के लिए मशहूर पाकिस्तानी गजल गायक गुलाम अली द्वारा 8 अप्रैल को वाराणसी में शुरू हो रहे वार्षिक संगीत महोत्सव में हिस्सा लेने की। अब आप कहेंगे कि इसमें क्या खास बात है भला, गुलाम अली तो अकसर ही भारत के अलग-अलग शहरों और आयोजनों में गाते रहे हैं। पर इस कार्यक्रम में खास है उसका वेन्यू। गुलाम अली बनारस के मशहूर संकट मोचन मंदिर में अपनी प्रस्तुति देंगे। एक और खास बात यह है कि गजलों के लिए मशहूर गुलाम अली वहां गजल नहीं गाएंगे, बल्कि "ठुमरी" और "चैती" पेश करेंगे। इससे भी बड़ी बात यह है कि जानकारी के मुताबिक गुलाम अली ने खुद मंदिर के महंत से संपर्क कर समारोह में गाने की पेशकश की और वह इस कार्यक्रम के लिए एक भी पैसा नहीं ले रहे हैं। गौरतलब है कि यह वही संकट मोचन मंदिर है जिसे पांच-छह साल पहले आतंकियों ने सीरियल ब्लास्ट के जरिए दहला दिया था। मंदिर के महंत और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में आईआईटी के प्रोफेसर विश्वमबर नाथ मिश्रा ने बताया कि यह पहला मौका होगा जब कोई पाकिस्तानी गायक संकट मोचन मंदिन में प्रस्तुति देगा। संगीत समारोह 4 अप्रैल से शुरू हो रहे मंदिर के वार्षिक समारोह का आखिरी कार्यक्रम होगा। मंदिर प्रशासन ने वाराणसी से सांसद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी न्योता दिया है। कार्यक्रम में पंडित बिरजू महाराज, हरिप्रसाद चौरासिया, सोनल मानसिंह, हशमत अली खान, उस्ताद अमजद अली खान, उनके दोनों बेटों अमान, अयान सहित कुल 50 लोग अपनी प्रस्तुति देंगे।

19 मार्च 2015

नीयत ही नहीं, आप के वजूद पर भी है अब सवाल


‘औरों को नसीहत, खुद मियां फजीहत’ का जुमला आम आदमी पार्टी पर आज एक बार फिर सौ फीसदी फिट बैठता दिखा। मसला लोकसभा चुनाव खर्च का ब्योरा न दिए जाने के चलते चुनाव आयोग द्वारा पार्टी की मान्यता खत्म किए जाने को लेकर जारी नोटिस का है। यानी नीतय के साथ-साथ पार्टी के वजूद का भी सवाल है इस बार। वैसे तो आयोग की ओर से आप के साथ-साथ छह और पार्टियों को भी यह नोटिस भेजा गया है। इनमें पीपुल्स पार्टी ऑफ अरूणाचल, झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम), केरल कांग्रेस (एम), नेशनल पीपुल पार्टी ऑफ मणिपुर और हरियाणा जनहित कांग्रेस (बीएल) शामिल हैं। नोटिस को लेकर सबसे ज्यादा चर्चा आम आदमी पार्टी के नाम पर हो रही है और यह चर्चा वाजिब व ला‌जमी भी है। वजह है आप का खुद को पूरी तरह पाक-साफ बता कर हमेशा दूसरों पर कीचड़ उछालना।
पार्टी और उसके मुखिया अरविंद केजरीवाल हमेशा बुलंद आवाज में दावा करते रहे हैं कि वह सत्ता का सुख भोगने नहीं, देश की राजनीति को स्वच्छ करने आए हैं। स्वच्छता के इतने बड़े ठेकेदार हैं केजरीवाल तो रुपये-पैसे का हिसाब मांगते ही हमेशा बोलती क्यों बंद हो जाती है उनकी। बात चाहे उनके एनजीओ और आप को मिलने वाले चंदे की हो या चुनाव में खर्च किए गए पैसों की किसी का भी हिसाब देना उन्हें गवारा नहीं। पार्टी की फंडिंग को लेकर पहले भी कई बार सवाल उठ चुके हैं और स्टिंग तक सामने आ चुका है। हर बार कोई सॉलिड फैक्ट शीट या बैलेंस शीट सामने रखने के बजाय केजरीवाल और उनके बड़बोले सिपहसालार एक सवाल के जवाब में दूसरों पर दस सवाल दाग कर मामले को रफादफा करने की कवायद करते नजर आते हैं। यही इनकी सियासत है और चरित्र भी। पर मामला इस बार चुनाव आयोग का है किसी व्यक्ति, संगठन या प्रतिद्वांद्वी पार्टी का नहीं। जवाब तो देना ही पड़गा जनाब को इस बार क्योंकि बात अब बन आई है पार्टी के चुनाव चिन्ह और मान्यता पर। 
चुनाव आयोग के पास वह जो हिसाब-किताब भेजें सो अपनी जगह, पर इस बात की सफाई तो उन्हें सार्वजनिक तौर पर देनी चाहिए कि अगर उनकी पार्टी ने पैसे के दम पर चुनाव नहीं लड़ा और नियमों-कानूनों के पालन में दुनिया में इकलौते वही सच्चे हैं, तो लोकसभा चुनाव के करीब नौ माह बीत जाने पर भी पार्टी चुनाव खर्च का ब्योरा क्यों नहीं दे सकी। ऐसा भी नहीं कि चुनाव आयोग का यह पहला नोटिस हो। इससे पहले आयोग की ओर से इस बारे में 22 अक्टूबर और 28 नवंबर को रिमाइंडर भेजे जा चुके हैं। इसके बावजूद पर कान पर जूं तक नहीं रेंगी जनाब के, जिसके बाद आयोग को अब अंतिम कारण बताओ नोटिस जारी करना पड़ा है। नोटिस में आयोग ने चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) नियम की धारा 16 (ए) का हवाला देते हुए 20 दिनों के भीतर जवाब न मिलने पर चुनाव चिह्न और मान्यता रद्द करने की बात कही है। 
आप से जुड़ी एक खबर और आई है, हालांकि इसमें उसे अदातल की ओर से राहत मिल गई है, पर यह मामला भी पार्टी और उसके ‌मुखिया के चाल-चरित्र और नीयत पर सवाल जरूर खड़े करता है। दिल्ली हाई कोर्ट ने आप का रजिस्ट्रेशन रद्द करने के लिए चुनाव आयोग को निर्देश देने की मांग करने वाली याचिका को आज खारिज कर दिया। याचिका पार्टी पर पंजीकरण के लिए कथित तौर पर जाली दस्तावेजों का इस्तेमाल करने का आरोप लगाते हुए हंसराज जैन की ओर से दाखिल की गई थी। उन्होंने आरोप लगाया था कि निर्वाचन आयोग ने जल्दबाजी में बिना पर्याप्त जांच के, झूठे और जाली दस्तावेजों के आधार पर किया था। जैन ने दावा था कि आप के कुछ सदस्यों ने अपने शपथ पत्रों में घर के जो पते दिए थे, मतदाता पहचान पत्र या आयकर रिटर्न से मिलान करने पर उनमें अंतर था। इसके अलावा रजिस्ट्रेशन के लिए दिए गए आवेदन पत्र में आप द्वारा भारत के राष्ट्रीय चिह्न अशोक चक्र का इस्तेमाल करने का मामला भी याचिका में उठाया है। याचिका में कहा गया है कि आप ने 3 दिसंबर 2012 को पार्टी के ‌रजिस्ट्रेशन के लिए आवेदन करते वक्त अपने लेटर पैड पर अशोक स्तंभ का इस्तेमाल किया था, जोकि संविधान का उल्लंघन है क्योंकि कोई भी राष्ट्रीय चिह्न का निजी इस्तेमाल नहीं कर सकता। चुनाव आयोग ने कोर्ट को बताया था कि जरूरी दस्तावेज मिलने पर ही पार्टी के रजिस्ट्रेशन को मंजूरी दी गई है और इसमें किसी भी तरह के नियमों का उल्लंघन नहीं किया गया है। ऐसे में कोर्ट की ओर से चाचिका खारिज कर दी गई। हालांकि इसके बावजूद यह सवाल तो उठता ही है कि अगर केजरीवाल पार्टी वीआईपी कल्चर और सत्ता की सुविधाओं के खिलाफ है तो लेटर हेड में अशोक चक्र का इस्तेमाल क्यों किया गया और अगर ऐसा हुआ तो देशभर की सफाई का ठेका लेने वाले केजरीवाल ने अपने स्तर पर इसमें क्या कार्रवाई की।

18 मार्च 2015

काले धन पर काली नीयत ?


राज्यसभा में वित्त मंत्री एक बार फिर से अपने चिर-परिचित अंदाज में मोदी सरकार द्वारा काले धन पर लगाम कसने के लिए सख्त कदम उठाए जाने का दम भरते दिख। वह संसद में सरकार द्वारा इस संबंध में पेश किए जा रहे विधेयक के समर्थन में दलीलें दे रहे थे। जेटली काले धन पर नए कानून के लिए प्रस्तावित इस विधेयक को अभूतपूर्व और पूरी तरह कारगर बता रहे थे। वित्तमंत्री का कहना था कि सरकार इसमें बहुत सख्त उपाय कर रही है, जिससे काले धन की समस्या से काफी हद तक निजात पाई जा सकेगी। उनके दावे अपनी जगह हैं, पर बिल के कुछ प्रमुख प्रावधानों पर गौर करें तो, यह समस्या को हल करने वाले कम और करदाताओं के लिए नई दिक्कतें खड़ी करने वाले ज्यादा लग रहे हैं। बिल में आयकर रिटर्न न भरने और रिटर्न में आय कम दिखाने पर 10 साल तक की सजा का प्रावधान है। आयकर जुटाने के लिए अपने देश में खड़े किए गए सरकारी तंत्र के चाल-चरित्र पर गौर करें, तो इस प्रावधान के दुरुपयोग की भारी आशंका नजर आती है। एक तरह से यह इंस्पेक्टर राज को बढ़ावा देने में भी सहायक साबित हो सकता है। 
यह आशंका बेवजह नहीं कही जा सकती, क्योंकि देश में आयकर विभाग की कार्यप्रणाली और कर संग्रह का जो तरीका है उसमें आयकर के दायरे में सबसे पहले और सबसे ज्यादा वेतनभोगी कर्मचारियों और पेशेवर (प्रोफेशनल) लोगों का वर्ग आता है। गौरतलब है कि इस वर्ग के लोगों को उनका वेतन या भुगतान देय आयकर की कटौती करने के बाद ही किया जाता है। कर्मचारियों को अपने नियोक्ताओं के पास सालाना आय और उसमें छूट पाने के लिए किए गए निवेश व अन्य उपायों का डिक्लेयरेशन वित्त वर्ष के शुरू में ही दाखिल कर देना होता है। इसके आधार पर उनकी करयोग्य आय और देय कर की गणना करके नियोक्ता की ओर से वेतन में से आयकर की कटौती की जाती है। इसी तरह प्रोफेशनल लोगों को भी भुगतान आय के स्रोत से ही कर कटौती (टीडीएस) के बाद ही किया जाता है। ऐसे में इस वर्ग के लिए कर से बच पाने के रास्ते बहुत सीमित होते हैं। आयकर छूट की 2.5 लाख रुपये की सीमा और विभिन्न धाराओं के तहत निवेश और अन्य छूटों के चलते सालाना 4.22 लाख रुपये तक की आय वाले व्यक्ति की कर देयता शून्‍य रह सकती है। ऐसे में इस वर्ग में अच्छी खासी तादाद में ऐसे लोग भी होते हैं जिनपर कोई कर देयता बनती ही नहीं। इसके साथ ही ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं, जिनपर कर देयता इतनी ही बनती है, जितना कर वह सरकार को खुशी-खुशी देने को तैयार होते हैं और इसका रिफंड पाने के लिए उनके पास कोई आधार नहीं होता। साथ ही कई बार रिफंड की रकम ऐसी होती है कि रिटर्न दाखिल करने का खर्च उससे ज्यादा बैठता है। ऐसे में इन लोगों के लिए रिटर्न भरना वाकई एक बड़ी सिरदर्दी है, पर आयकर कानून रिटर्न भरने को जरूरी बताता है। सरकार ने रिटर्न भरने के फार्म का नाम भले ‘सरल’ रख दिया है, पर लोग जानते हैं कि यह कतई सरल नहीं है। फार्म को किसी सीए, वकील या कंसल्टेंट की सलाह के बिना बिरले ही भर पाते हैं। ऑनलाइन रिटर्न में भी यही फार्म भरा जाता है। ऐसे में झंझट और पेचीदेपन के चलते कई लोग रिटर्न दाखिल नहीं कर पाते।  ऐसे में नए बिल में रिटर्न न भ्‍ारने पर जेल के प्रावधान की गाज इस वर्ग के लोगों पर पड़ने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। देखा जाए तो इस तरह के प्रावधान विधि शास्‍त्र के उस मूल सिद्धांत के भी खिलाफ हैं, जिसके मुताबिक जब तक आप पर दोष्‍ा साबित न हो, आप बेकसूर हैं। 
काले धन के मसले से जुड़े सियासी पहलू पर भी गौर करें, तो मोदी सरकार का यह कानून चुनाव प्रचार में उनकी ओर से किए गए बड़े-बड़े दावों को सच करने की दिशा में कुछ करता दिखाई नहीं देता। रैलियों में 56 इंच का सीना ठोंक कर मोदी बार-बार दावे कर रहे थे कि विदेशों में जमा काला धन वापस लाया जाएगा। कालाधन वापस आया तो हर देशवासी के खाते में 15 लाख रुपये का पॉप्युलिस्ट जुमला भी उछाला गया था। इधर सुब्रमण्यम स्वामी और अरुण जेटली भी काला धन वापस लाने की राह में अंतरराष्ट्रीय समझौतों की बाध्यताओं की यूपीए की बात को कोरी बहानेबाजी बता रहे थे। सुब्रमण्यम स्वामी तो महज 100 दिनों के भीतर कानूनी ढंग से यह अड़चने दूर कर देने का दावा कर रहे थे। उधर योग गुरु रामदेव भी काले धन के खिलाफ यात्रा पर निकल पड़े थे। उनका कहना था कि सत्ता में आने के बाद अगर मोदी काला धन लाने का वादा पूरा नहीं करते तो वह उनके खिलाफ भी आंदोलन करेंगे। नई सरकार बने महीनों बीत गए। हर खाते में 15 लाख तो क्या, विदेश में जमा काले धन की रकम का एक धेला भी देश नहीं आया। बड़े-बड़े दावे करने वाले इस पर चुप हैं। सख्त कानून बनाने की बात कह कर पुराने दावों और वायदों से मुंह फेरा जा रहा है। सीधी सी बात है कि नया कानून बहुत कारगर भी हुआ, तो आगे चलकर काले धन पर रोक लगाने के काम आएगा। विदेश में जमा लाखों करोड़ की रकम वापस लाने के मोदी, जेटली, स्वामी और रामदेव के बड़े-बड़े वादों का क्या हुआ। काले धन और कर संबंधी सख्ती पर सरकार की नीयत की एक बानगी आम बजट में गार (जनरल एंटी-एवाइडेंस रूल) पर अमल को दो साल के लिए टाले से भी देखने को मिलती है।

17 मार्च 2015

चौधरी जी लड़ेंगे ओबीसी के ‘तमगे’ के लिए

सुप्रीम कोर्ट ने जाटों को ओबीसी  की लिस्ट से बाहर करने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। कोर्ट के ‌आदेश में फैसले से ज्यादा महत्वपूर्ण और काबिलेगौर उसकी टिप्पणियां (आब्जर्वेशन) मुझे लग रही हैं। देश की शीर्ष अदालत ने न केवल महज वोट की खातिर यूपीए सरकार द्वारा आनन-फानन में लिए गए इस फैसले को रद्द किया है, बल्कि इस तरह की सियासी कवायदों पर भी गंभीर सवाल उठाए हैं। यहां ध्यान रखने वाली बात यह भी है कि वोटों के लिए किसी समुदाय विशेष के तुष्टीकरण के ऐसे कदम उठाने का ठीकरा केवल यूपीए या कांग्रेस पर फोड़ना ठीक नहीं होगा। मनमोहन सरकार को पानी पी-पी कर कोसने के बाद सत्ता में आई भाजपा नीत एनडीए सरकार ने भी जाटों को ओबीसी श्रेणी में शामिल करने का समर्थन करते हुए इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया था। इस लिए यह तमाचा दोनों ही के गालों पर है।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि आरक्षण केवल जातिगत आधार पर नहीं होना चाहिए। इसके लिए पिछड़ेपन जैसे सामाजिक-आर्थिक (सोशियो-इकनॉमिक) कारणों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। सौ फीसदी सही बात लगती है यह। जाट-गुज्जरों के सामाजिक परिवेश पर जरा नजर डालिए तो आए दिन देश के कानून व संविधान को चुनौती देने वाले फैसले तमाम फैसले इनकी खाप-पंचायतों की ओर से आते रहते हैं। नाम के आगे चौधरी लगाने और उसी के मुताबिक चौधरी गिरी दिखाने की प्रवृत्ति साफ नजर आती है इन फैसलों में। इसके बावजूद जब आरक्षण के सहारे सरकारी नौकरी और अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ लेने की बारी आती है तो चौधरी जी बड़े बेचारे बन जाते हैं, खुद को पिछाडों की कतार में खड़े होकर मलाई खाना चाहते हैं। अजब देश है हमारा। दुनिया में लोग पिछड़ेपन से उबरने के लिए जी-जान एक करते हैं, तो हमारे यहां खुद को पिछड़ी जमात में शामिल करने की जद्दोजहद होती है। न्यूज चैनल पर जाटों के एक नेता कोर्ट के फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कह रहे थे कि जाट ओबीसी कैटेगरी ‘डिजर्व’ करते हैं और हम इसके लिए ‘कंटेस्ट’ करेंगे। जरा शब्दों पर गौर कीजिए नेता जी के और शब्दों के जरिए पढ़िए इनकी मानसिकता। ओबीसी कैटेगरी मानो कोई बहुत बड़ा अचीवमेंट है, जिसे जाट ‘डिजर्व’ करते हैं और इसमें शामिल होना कोई रुतबा या तमगा है जिसके लिए ‘कंटेस्ट’ करेंगे। नेता जी समाज में शिक्षा-जागरूकता और उद्यमशीलता लाने की बात नहीं करते, क्योंकि इसमें खतरा है। खतरा ‌यह कि कम्यूनिटी अगर पढ़-लिख कर जागरूक हो जाएगी, तो  खाप-पंचायतों में बैठ कर तुगलकी फरमान कैसे सुनाएंगे चौधरी साहब। फिर किस पर और रौब झाड़ेंगे भला। इसलिए पढ़ाई-लिखाई और काम-काज की बात नहीं करेंगे। जाटों के माथे पर ओबीसी का लेबल चिपकाने के लिए लड़ेंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में एक और बहुत अहम बात कही है। कोर्ट ने कहा है कि आजादी के बाद से ओबीसी कैटेगरी में शामिल जातियों और इस वर्ग के तहत आने वाली आबादी में इजाफा ही हुआ है। इस कैटेगरी में एक के बाद एक नई-नई जातियां जोड़ी गई हैं। आज तक कोई जाति इस कैटेगरी से बाहर नहीं की गई है। बहुत गहरा सवाल है यह हमारी सत्ता और सियासत के चरित्र पर। आजादी के बाद अगर पिछड़ों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है, तो यह बताता है कि हमारी खुद की सरकार अंग्रेजों की उपनिवेशवादी सरकार से भी गई-गुजरी है। यानी हमारा खुद का शासन फिरंगियों की हुकूमत से भी सड़ा-गला है, जो समाज में पिछड़ेपन को घटाने व खत्म करने के बजाय आगे बढ़ा रहा है। वास्तव में जातीय आधार पर आरक्षण की इस व्यवस्था पर गरहाई से गौर करें तो इस विरोधाभास की कलई खुलती नजर आती है। दरअसल आजादी के बाद सामाजिक-आर्थिक और जातीय आधार पिछड़ापन तो वाकई कम हुआ है, पर कोई भी वर्ग खुद इस कैटेगरी से बाहर आकर ओबीसी या एससी-एसटी कैटेगरी से बाहर आकर इससे मिलने वाले लाभों को गंवाना नहीं चाहता। उल्टे एक के बाद एक जातियां खुद को इस कैटेगरी में डालने की मांग उठाती रहती हैं। यह स्थिति दुर्भाग्पूर्ण है। गौरतलब है कि संविधान के मुख्य शिल्पी माने जाने वाले डा. अंबेडकर खुद एससी-एसटी और ओबीसी को जातिगत आधार पर आरक्षण दिए जाने के विरोध में थे। कई तरह के दबावों और लंबी चर्चा के बाद आखिरकार उन्होंने महज दस साल के लिए आरक्षण की बात स्वीकार की थी, पर देश का दुर्भाग्य देखिए आजादी के सातवें दशक में भी यह ‘दस साल’ अब तक पूरे नहीं हुए, बल्कि आरक्षण के युग को अनंत काल तक जारी रखने और एक के बाद एक जातियों और समुदायों को इसमें शामिल करने की हुंकार भरी जा रही है।

15 मार्च 2015

कितने मुखौटे केजरीवाल के !

देश की सियासत के तौर-तरीके और दिशा बदल देने के इरादे जताने वाली आम आदमी पार्टी (आप) को दिल्ली में सत्ता नशीं हुए बमुश्किल अभी महीने भर ही बीते हैं कि दलीय राजनीति की सारी खामियां उसके डीएनए में समाती नजर आ रही हैं। एक के बाद एक हो रहे खुलासे, विवाद और खुद आप की कारगुजारियां पार्टी प्रमुख अरविंद केजरी वाल के चेहरे से मुखौटे उतारती जा रही हैं। योगेन्द्र यादव व प्रशांत भूषण को पार्टी की कार्यकारिणी से बाहर निकालने, अरविंद केजरीवाल का स्टिंग ऑपरेशन सामने आने और उसके बाद महाराष्ट्र में पार्टी की कमान संभालने वाली अंजली दामनिया के इस्तीफे के बाद आप एक बार फिर से गलत वजहों से खबरों में है। खबर है कि दिल्ली में आप की सरकार ने अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया है। इसे लेकर आम आदमी पार्टी की खासी आलोचना हो रही है क्योंकि दिल्ली में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में थोक के भाव में संसदीय सचिव बनाए गए हैं। पद के लिए काम करने और सरकारी रुतबे की चकम-दमक से दूर रहने का उपदेश अपने विधायकों देने वाली आप पर हमला बोलने का मौका अन्य पार्टियों को मिल गया है। भाजपा इसे आप में चल रही अंदरूनी लड़ाई का नतीजा बताते हुए कह रही है कि विधायकों को अपने साथ रखने के लिए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उन्होंने संसदीय सचिव बना दिया है। सवाल यह भी उठता है कि तुष्टीकरण की राजनीति की जमकर आलोचना करने वाली आप का यह कदम क्या अपने विधायकों का तुष्टीकरण नहीं है? पार्टी के इस विशुद्ध सियासी कदम पर इससे भी बड़ा सवाल यह है कि इससे सरकारी खजाने पर बोझ तो बढ़ेगा क्योंकि सरकार के इस फैसले से इन विधायकों को अब राज्य मंत्री का दर्जा मिल जाएगा और उन्हें उससे जुड़ी सुविधाएं भी दी जाएंगी। जनता के पैसे से चलने वाली सरकार पर आर्थिक बोझ बढ़ाने वाला यह कदम दिल्ली में निश्चित रूप से एक गलत परंपरा की शुरुआत भी करेगा। जाहिर है कि पाक-साफ राजनीति करने का दम भरने वाली आम आदमी पार्टी ने यह फैसला करके अपने दोहरे मापदंडों का एक और प्रमाण दिया है।
 इससे पहले योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को कार्यकारिणी से चलता करने के कदम ने इतना तो जगजाहिर कर ही चुकी है कि चुनावी सभाओं में बड़ी गरज के साथ राजनीतिक दलों में सुप्रीमोवाद की आलोचना करने वाले अरविंद केजरीवाल खुद आप के सुप्रीमो बने बैठे हैं। पद और पैसे के मोह के बिना लोगों की सेवा करने की वह बात करते हैं, तो संयोजक पद छोड़ने में जान क्यों जा रही है। सीएम और पार्टी संयोजक दोनों पदों पर क्यों विराजमान रहना चाहते हैं। केजरी गुट तर्क देता है कि बतौर सीएम उन्होंने अपने पास कोई पोर्टफोलियो नहीं रखा है। इसलिए संयोजक की जिम्मेदारी निभाने में उन्हें कोई बाधा नहीं आएगी। इस तर्क में दो खामियां हैं। पहली बात यह कि सवाल काम में बाधा आने का नहीं एक व्यक्ति के पास दो-दो पद होने का है, जिसे भाजपा, कांग्रेस सहित ज्यादातर ऐसी पार्टियां भी स्वीकार करती हैं, जिनके तौर-तरीकों की आम आदमी पार्टी हमेशा से आलोचना करती आई है। तो ऐसे में दोनों पदों पर कब्जा जमा कर केजरीवाल उनके सिपहसालार किस मुंह से बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। दूसरी बात यह है कि केजरी हमेशा कहते रहे हैं कि उन्हें पद और सरकारी रुतबे से कोई लेना-देना नहीं। केजरीवाल इतने बड़े संत हैं तो फिर उन्हें सीएम का पद लेने की जरूरत नहीं। वह केवल संयोजक रह कर भी अपनी सरकार को पटरी पर रखते हुए काम करवा सकते हैं, जिस तरह की बात सोनिया गांधी के लिए कही जाती है कि पीए बने बिना उनकी मर्जी से ही सरकार चलती थी।
इस तरह देखा जाए तो पार्टी और सरकार दोनों ही में सबसे अहम पद को अपने पास रखने का कोई औचित्य किसी तरह नहीं बैठता। यह निश्चित रूप से केजरीवाल की कथनी-करनी के भेद को उजागर करता है। साथ ही सबसे बड़ा सवाल उनकी ‌नीयत पर भी खड़ा करता है। खुद अन्ना हजारे केजरीवाल का स्टिंग सामने आने पर उनकी नीयत पर अब शक उठाने लगे हैं। अन्ना का साफ कहना है कि केजरीवाल ने सिर्फ उनका नहीं, पूरे देश का भरोसा तोड़ा है।

12 मार्च 2015

करेंगे ‘मन की बात’ बताओ प्रॉब्लम

देश की कुंडली में किस्मत का विरोधाभास देखिए। पिछले प्रधानमंत्री के मुख से बोल ही नहीं फूटते थे, तो नए पीएम बतोलेबाजी में निकले वर्ल्ड चैंपियन। चुनावी सभाओं में इनके बड़बोलेपन, बड़े-बड़े वादों और दस साल से राज कर रही मनमोहन सरकार (ये अलग बात है कि उनकी चलती कुछ न थी) के प्रति जनता की खीझ ने कुछ ऐसी कैमेस्ट्री बनाई कि भाजपा स्पष्ट और अपूर्व बहुमत के साथ सत्ता में आ गई। महंगाई को 100 दिन में जमीन पर लाने और विदेशों में जमा कालेधन को भारत लाकर हर खाते में 15 लाख के जनता को दिखाए गए सपने तो न पूरे होने थे न हुए, इसके बावजूद जनाब जारी हैं ‘मन की बात’ के जरिए देश को मीठी घुट्टी पिलाने में।
गजब का कार्यक्रम है ‘मन की बात’ पिछले वायदों का कोई हिसाब-किताब नहीं, नए सपने हाजिर। कभी बच्चों से, कभी युवाओं से बात करने के बाद पीएम साहब कि नजरे इनायत करने जा रहे हैं देश के किसानों पर। ‘मन की बात’  की अगली कड़ी के लिए किसानों से उनकी समस्याएं पूछी हैं ‘सरकार’ ने। किस दुनिया में जी रहे हैं देश के प्रधानमंत्री, जो बेमौसम हुई बारिश से बर्बाद हुई किसानों की फसलें इन्हें दिखाई नहीं दे रहीं। कर्ज न चुका पाने के डर से किसानों की आत्म हत्या की खबरें इनके कानों तक नहीं पहुंचीं। कपास किसानों की आत्महत्याओं का न थमता दौर भी इनके नोटिस में नहीं आ सका। इन्हें ‘मन की बात’ करने के लिए अभी किसानों से समस्या पूछने की जरूरत है। लग रहा है कि सरकार ने किसानों सारे दुख हर लिए, सारे कष्ट दूर हो गए और अब कोई समस्या नजर ही नहीं आ रही है। सो पूछा जा रहा है कि भइया कोई प्राब्लम हो तो बताओ, वो भी दूर कर देंगे चुटकी बजा कर।
 रेल बजट में खाद की ढुलाई बढ़ा दी। देश भर में किसानों को खेती के लिए बिजली-पानी की समस्या से अब भी जूझना पड़ रहा है, पर मोदी जी को यह घिसी-‌पिटी ‘आउट डेटेड’ समस्याएं नहीं चाहिए। कोई नई प्रॉब्लम बताइये, तो उस पर करेंगे बात। ‌बेचारा किसान मोदी जी के लिए नई प्रॉब्लम कहां से लाए? क्या बताए सरकार को कि वाईफाई कनेक्टिविटी ठीक से नहीं मिल रही या लैपटॉप की हार्ड डिस्क क्रैश कर गई है, ग्राफिक कार्ड ठीक से परफार्म नहीं कर रहा, हम फुल स्पीड में जीटीए-4 नहीं खेल पा रहे। बेटे का पीएस-4 ठीक से नहीं चल रहा। मर्सिडीज का रियर एसी ठीक से कूलिंग नहीं कर रहा और म्यूजिक सिस्टम का बेस ट्यूब भी ठीक से बूम नहीं कर रहा। इस किस्म की कुछ समस्या बताइये, तो बात करेंगे मोदी जी। भूमि अधिग्रहण बिल को किसान विरोधी बताकर धरना देते और पद यात्रा निकालते अन्ना हजारे की चिट्ठियों का कोई जवाब पीएमओ आज तक नहीं दे सका, पर ‘मन की बात’ के लिए इन्हें नई समस्याओं का फीडबैक चाहिए। जिए रहो राजा खाम ख्याली में।



3 मार्च 2015

सब्सिडाइज्ड खाना डकार कर देश पर एहसान कर रहे हैं हुजूर

हुजूर की महिमा निराली है और मीडिया में बैठे इनके पालतू संपादक भी हैं पूरे वफादार। रेल बजट में यात्री किराया न बढ़ाकर सीना चौड़ा किया और यूरिया से लेकर अनाज तक का भाड़ा बिना बताए ही बढ़ा दिया। आम बजट के दिन भी यह खेल उसी शातिराना अंदाज में दोहराया गया। फ्यूचरिस्टक और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने वाले बजट का नगाड़ा पीट कर पेट्रोल 3.18 रुपये और डीजल 3.09 रुपये प्रति लीटर महंगा कर दिया। उधर चैनलों पर इनके चेले संपादक जनता को इस बहस में उलझाए रहे कि बजट कॉरपोरेट था या प्रो-पब्लिक। अगले दिन पार्टी के दशकों पुराने धारा 370 और एक विधान-एक प्रधान-एक निशान के सिंहनाद को ठंडे बस्ते में डालकर न केवल जम्मू-कश्मीर में सत्ता के भागीदार बन बैठे। उनकी गरिमामय उपस्थिति में हुए शपथ ग्रहण समारोह के महज घंटे भर बाद ही सूबे के नए दरियादिल मुखिया ‌मुफ्ती साहब ने चुनाव की सफलता का श्रेय पाकिस्तान, अलगाववादियों और आतंकवादियों को देकर इन्हें कायदे से आईना और ठेंगा एक साथ दिखा दिया। मानना पड़ेगा 56 इंच वाले यह जनाब हैं बड़े जिगरे वाले। माथे पर कोई शिकन नहीं। अगले दिन देश पर एक और अहसान करने के लिए संसद की कैंटीन में भारी सब्सिडाइज्ड रेट पर मिलने वाला खाना खाने पहुंच गए। पालतू संपादक फिर जुट गए क्या खाया, गेस्ट बुक में क्या लिखा और थाली के पैसे खुद ही दिए जैसे चमत्कारी फैक्ट चमका-चमका कर पैकेज रन कराने में। क्या मजाल कि कोई सवाल उठा दे कि तनख्वाह से लेकर माचिस खरीदने तक हर कदम पर टैक्‍स अदा करने वाले वेतन जीवी मध्य वर्गीय को सब्सिडी का सिलेंडर देने में सरकार की नानी मर रही है, तो लागत के चौथाई से भी कीमत पर ‌संसद की कैंटीन में मिलने वाला शाही खाना क्यों गटक रहे हैं जनाब? न ही यह सवाल उठा कि ट्रेनों में पूरा पैसा देकर भी यात्री कॉकरोच और फंगस वाला बेस्वाद खाना खाने को मजबूर हैं, पर माननीयों को कैंटीन में शुद्ध घी में पका हलवा और फुल क्रीम दूध में बनी फ्रूट क्रीम कैसे मिल रही है। क्वालिटी का यह प्रबंधन अगर संसद की कैंटीन में किया जा सकता है, तो रेलवे में क्यों नही?

19 फ़रवरी 2015

मोदी चले तुगलक की राह


मुगलों से पहले मध्य कालीन भारत का सबसे चर्चित शासक था मोहम्मद बिन तुगलक। उसे आज भी याद किया जाता है। बहादुरी, दरियादिली या फिर सुगठित शासन व्यवस्‍था के लिए नहीं, बल्कि राजधानी को दिल्ली से दौलता बाद ले जाने और चमड़े के सिक्के (टोकन करेंसी) चलाने जैसे सनक भरे फैसलों के चलते। यह सनकीपन ही आखिरकार उसके पतन का कारण बना। आज की तारीख में दिल्ली के तख्त पर बैठे 56 इंच के सीने वाले महाशय भी कुछ ऐसी ही कारगुजारियां करते हुए उसी राह पर बढ़ते दिख रहे हैं।
कांग्रेस नीत यूपीए के 10 साल के थकाऊ-ऊबाऊ-पकाऊ शासन के खिलाफ जनता के भारी गुस्से के चलते यह महाशय स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में तो आ गए, पर क्षेत्रीय क्षत्रपों वाली मानसिकता से उबर नहीं पा रहे हैं। हाथ में पूरे देश की कमान होने पर भी किसी छोटी सी रियासत के जागीरदार या जमींदार जैसा व्यवहार कर रहे हैं महाशय मोदी। प्रधानमंत्री देश के हिसाब से फैसले लेता है, पर इनको किसी भी बड़े कदम के लिए अपना अहमदाबाद ‌या फिर बनारस ही नजर आता है। इसकी सबसे पहली झलक देश की पहली बुलेट ट्रेन अहमदाबाद से दिल्ली के बीच चलाने की (हवाहवाई) घोषणा करके दी गई। इसके बाद चीन के राष्ट्रपति भारत आए, तो उनके स्वागत का कार्यक्रम दिल्ली के बजाय अहमदाबाद में इन्होंने किया। वश चलता तो शायद ओबामा को भी वहीं ले जाते, पर दुनिया का चौधरी जाते-जाते धार्मिक असहिष्‍णुता पर चिंता जताकर अपने ढंग से इनको आईना दिखा गया।
गंगा सफाई अभियान और बनारस के घाटों की सफाई के लिए भारी-भरकम बजट के आवंटन जरिए भी कहीं न कहीं इन्होंने अपनी सियासी हनक ही दिखाने की कोशिश की है, वर्ना क्या गंगा के घाट इलाहाबाद में नहीं हैं? या फिर गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम प्रयाग का धार्मिक महात्म्य काशी से कम है, जो यहां के घाटों के लिए धेला नहीं दिया गया। गंगा में सबसे ज्याद गंदगी कानपुर की चमड़ा मिलों से गिरती है और यहीं से गंगा सबसे ज्यादामैली होकर बनारस पहुंचती है। ऐसे में कोई भी कॉमन सेंस वाला व्यक्ति समझ सकता है कि अगर कानपुर में गंगा को प्रदूषित होने से बचा लिया जाए, तो बनारस में बहुत ज्यादा भगीरथ प्रयास करने की जरूरत नहीं होगी। पर यह भला क्योंकर हो? बनारस से जोशी को धक्का मारकर इन्होंने कानपुर भेज दिया,

तो गंगा का उद्धार भी अब बनारस में ही होगा, कानपुर में नहीं।
मोदी महाशय की इस सनक भरी सोच को कॉरपोरेट जगत ने भी खूब अच्छी तरह भांप लिया है। तभी तो पिछले दिनों एचडीएफसी बैंक ने अपने ऑनलाइन बैंकिंग प्लेटफार्म और मोबाइल ऐप की लांचिंग दिल्ली-मुंबई को छोड़ बनारस में की। अब सुनते हैं दुनिया की परिक्रमा पर निकला सौर ऊर्जा से चलने वाला विमान सोलर इंपल्स 2 भारत आ रहा है, तो इसे भी अहमदाबाद और वाराणसी में लैंड कराया जा रहा है। हालांकि भारत में इन्हीं दोनो शहरों को चुने जाने के पीछे किसी राजनीतिक वजह होने की बात से इंकार किया जा रहा है, पर हकीकत क्या है यह हर कोई समझता है। सोलर इंपल्स परियोजना को शुरू करने वाले बर्ट्रेंड पिकार्ड ने बीते दिनों एक साक्षात्कार में अहमदाबाद और वाराणसी को चुनने के कारण के बारे में पूछे जाने पर कहा था कि इसके पीछे कोई राजनीतिक कारण नहीं हैं, बल्कि हवा की दिशा की वजह से उन्‍होंने इन दोनों शहरों को चुना है। अब की दिशा विमान के भारत पहुंचने पर भी उसी दिशा में रहेगी यह पूर्वानुमान वह कैसे लगा रहे हैं और अहमदाबाद और बनारस के अनुकूल ही हवा बहेगी यह बातें अपने आप में सोचने वाली हैं। वैसे, पिकार्ड प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जानते जरूर हैं। उन्‍होंने बताया, 'मैं जब अहमदाबाद में था तब नरेंद्र मोदी से दो बार मिला था।'
बहरहाल जुलाई में स्विटजर लैंड से उड़ान भरने वाले सोलर इंपल्स के3 मार्च को भारत आने की संभावना है। भारत आने की संभावित तारीख है। इसके आतिथ्य का जिम्मा आदित्य बिरला समूह को सौंपा गया है। विमान का दुनिया की सैर पर निकलने का उद्देश्य अत्याधुनिक अक्षय प्रौद्योगिकियों को प्रदर्शित करना है जिसे बनाने में करीब 80 कंपनियां शामिल हैं।



13 फ़रवरी 2015

ऑनलाइन स्टोरों पर वेलेंटाइन बाबा की फुल कृपा

प्रेम पर्व ऑनलाइन स्टेलरों की उम्मीदें भी जवां
प्यार का तोहफा तेरा, बना है जीवन मेरा जंपिंग जैक जीतेंद्र पर फिल्माया यह गाना आजकल प्रेमी जोड़ों के साथ-साथ ऑन लाइन स्टोर चलाने वाले कारोबारियों के दिलों में भी फुल वॉल्यूम पर बज रहा है। हो भी क्यों न? वेलेंटाइन डे पर उन्हें अपने बिजनेस का वॉल्यूम बढ़ने की उम्मीदें साकार होती जो नजर आ रही हैं। उद्योग संगठन एसोचैम का एक ताजा सर्वे कुछ ऐसी कहानी बयान कर रहा है। सर्वे में इस साल वेलेंटाइन सीजन में बिक्री 40 फीसदी बढ़ने की उम्मीद जताई गई है।
सर्वे में इस साल 22,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की बिक्री की बात कही गई है। यह पिछले वेलेंटाइन पर हुए 16,000 करोड़ रुपये के कारोबार से 40 फीसदी अधिक है। प्यार के इजहार के इस त्योहार पर तोहफे में देने के लिए वेलेंटाइन कार्ड, फूलों के बुके, चॉकलेट, खिलौने, गार्मेंट, मोबाइल फोन, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण से लेकर महंगी घड़ियों और साने व हीरे के कीमती गहनों तक की धुआंधार बिक्री हो रही है।
 यही नहीं, इस साल ऑनलाइन खरीदारी कुल खरीदारी के 32 फीसदी तक पहुंचने का अनुमान है, जबकि पिछले साल 20.5 फीसदी खरीदारी ही ऑनलाइन की गई थी। सर्वे के तहत करीब 600 कंपनियों से बातचीत की गई। इससे पता चला कि कालेज में पढ़ाई करने वाले छात्र-छात्राओं के साथ-साथ ऑनलाइन स्टोरों की नजर खासतौर पर कमाई कर रहे युवा जोड़ों पर है। ऐसे में आईटी और आईटी से जुड़ी दूसरी कंपनियों, बीपीओ, खुदरा कारोबार करने वाली कंपनियों, बड़े कॉरपोरेट हाउसों में काम कर रहे युवाओं को फोकस करके आकर्षक ऑफर पेश किए गए हैं।
सर्वे में शामिल 52 फीसदी लोगों ने माना है कि ऑनलाइन खरीदारी सुविधाजनक होने के साथ ही उन्हें पसंद के उत्पाद चुनने के ज्यादा विकल्प देती है। इसलिये वह बाजार जाकर खरीदारी करने के बजाय ऑनलाइन खरीद को तरजीह दे रहे हैं। सर्वे के मुताबिक में स्मार्ट फोन रखने वाले करीब 50 फीसदी लोग और टैबलेट रखने वाले 18 प्रतिशत लोग ऑनलाइन खरीदारी का विकल्प चुन रहे हैं।
वेलेंटाइन डे के मौके पर ट्रैवल कंपनियों ने भी अब विशेष पैकेज देना शुरू कर दिया है। कंपनियां केरल, गोवा, नैनीताल, माउंट आबू, देहरादून, मसूरी, कसौली, शिमला, पंचवटी जैसी जगहों पर सैर-सपाटे के लिए 6,000 से लेकर 60,000 रुपये के टूर पैकेज दे रही हैं। एयरलाइंस कंपनियां भी पीछे नहीं हैं। वह भी बंगलूरू, हैदराबाद, जयपुर, शिमला, मुंबई, गोवा, केरल से लेकर विदेश में बैंकाक और सिंगापुर तक के लिए सस्ते हवाई टिकट उपलब्ध करा रही हैं। एसोचैम के महासचिव डीएस रावत का कहना है कि वेलेंटाइन-डे कंपनियों के लिए एक बड़ा खरीदारी महोत्सव बनता जा रहा है। पिछले चार-पांच साल से इस मौके पर खरीदारों का उत्साह काफी तेजी से बढ़ता दिख रहा है।

12 फ़रवरी 2015

अनूठा है केजरी का यह ठाकरे कनेक्‍शन

अनूठा है केजरी का यह ठाकरे कनेक्‍शन


बात अटपटी और चौंकाने वाली लगती है। शीर्षक पढ़कर लग रहा होगा कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत के साथ सत्तासीन हो रहे अरविंद केजरीवाल और उद्धव ठाकरे या राज ठाकरे के बीच किसी गुपचुप सियासी गठजोड़ का खुलासा होने वाला है। सस्पेंस यहीं खत्म करता हूं, ऐसा कुछ नहीं। बात राज ठाकरे और अरविंद केजरीवाल से जुड़ी हुई तो है, पर उनके बीच किसी गठजोड़ की नहीं, बल्‍कि केजरी की जीत पर राज ठाकरे द्वारा बनाए गए एक शानदार कार्टून की कर रहा हूं। यह बात मेरे दिमाग को इतना क्लिक इसलिए कर गई, क्योंकि यह एक साथ दो बड़े विरोधाभासों को उजागर करती है। साथ ही एक अद्भुत संभावना का दरवाजा खोलती दिखती है।
पहला विरोधाभास राज ठाकरे की इमेज, उनके बारे में पब्लिक पर्सेप्शन और उनकी अस्ल शख्सियत व बौद्धिक क्षमता के बीच नजर आता है। केजरी रूपी विमान द्वारा मोदी और अमित शाह के गगनचुंबी ट्विन टावर उड़ाने वाला यह कार्टून बड़े साफ तौर पर स्पष्ट करता है कि सियासत में जिस तरह की छिछली और जाहिलाना किस्म की बातें राज ठाकरे करते हैं, वह यकीनन उनके जहन से निकली हुई नहीं होतीं।
ठाकरे का यह बेहतरीन कार्टून उनकी दमदार कल्पनाशीलता, व्यंग्यात्मक दृष्टि और सशक्त बौद्धिक क्षमता को दर्शाता है। पिछले करीब दसेक दिन से केजरीवाल, मोदी और दिल्ली चुनाव के रंग में पूरी तरह से रंगे मीडिया ने दिल्ली के अप्रत्याशित चुनाव परिणाम को मोदी के अहंकार पर केजरीवाल की सादगी की जीत और इसी तरह की कई व्याख्याओं के साथ पेश किया। न्यूज चैनलों पर घंटे-घंटे भर की बहसें और केजरी की प्रशंसा में डूबे निबंधात्मक फीचर तो देखने को मिले, पर इतने मजेदार और चुटीले ढंग से पॉलिटकल सटायर कहीं नहीं दिखा, जैसा ठाकरे ने अपने कार्टून में किया है। इस घटना को टीवी पर आश्चर्यपूर्वक देखते ओबामा को चित्रित कर ठाकरे ने एक स्‍थानीय घटना से पूरी दुनिया को मिलने वाले संदेश को परिलक्षित कर इसे जो ग्लोबल पर्सेप्‍शन दिया है, वह काबिलेतारीफ है।
कुल मिलाकर कार्टून यह सोचने को मजबूर करता है कि काश राज ठाकरे सियासत में न होकर कार्टूनिंग के क्षेत्र में ही हाथ आजमाते, तो वह देश-समाज को नफरत और नकारात्मकता के बजाय काफी सृजनात्मक और सकारात्मक दे सकते थे। वह राज ठाकरे के सियासी वारिस के बजाय कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे के सुयोग्य वारिस साबित हो सकते थे। बहरहाल, ख्वाम ख्याली ही सही, पर मैं सोचता हूं कि महाराष्ट्र के विधानसभा में राजनीतिक रूप से पूरी तरह पैदल हो चुके सियासत राज ठाकरे भविष्य में अगर अपने अंदर छिपे इस शानदार कलाकार को आगे बढ़ाएं, तो यह देश और उनके दोनों ही के लिए काफी अच्छा हो सकता है।
पूरे प्रकरण से एक विरोधाभास यह स्पष्ट भी होता है कि मोदी, राज और यहां तक कि उद्धव ठाकरे, तीनों ही ऊपरी तौर पर तो कट्टरता की एक ही सियासी कश्ती में सवार तो दिखते हैं, पर वास्तव में यह एक-दूसरे को फूटी आंख भी नहीं सुहाते, क्योंकि केजरी की जीत के बहाने राज और उद्धव ने मोदी पर तीखे व्यंग्य बाण छोड़ने का मौका कतई नहीं गंवाया। जाहिर है कि हिंदुत्व और प्रखर राष्ट्रवाद के इस मठ में सबके अपने-अपने खेमे हैं और मौका मिलते ही यह किलेदार एक दूसरे पर तोप दागने से चूकने वाले नहीं। हिंदू राष्ट्र का दिवास्वप्न यह केवल सोची-समझी साजिश के तहत जनता के एक बड़े तबके को दिखाते हैं अपनी सियासी रोजी-रोटी चलाने के लिए।