8 जून 2009

टायलेट के कुछ नये प्रयोग

रवीश ने टायलेट में पेपर फ्रेम के जरिए प्रचार के एक नए नुस्खे की बात उठाई थी । कुछ इसी तरह की, कुछ दिन पुरानी एक और बात याद आ गई । कुछ महीनों पहले एक कंपनी ने जेंट्स यूरीनल के लिए ऐसा कमोड बनाया जिसकी आकृति महिला के खुले हुए मुंह की तरह थी । किसी सिनेमा के टायलेट में लगे इस कमोड के उपयोग का एक फोटो भी देखा था किसी साइट पर । आदमी कर रहा था मुंह के आकार वाले उस कमोड में पेशाब । देखकर अजीब सा लगा । चटख लाल लिप्टिक से सजे ओठ, चांदी से चमकते दांत वाला मुंह खुला हुआ और लघुशंका करता आदमी । कैसी सोच है यह । क्या मानसिकता है । आदमी के अंदर के रावण को जगा रहे हो, सैटिस्फाई कर रहे हो, महज छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए । सामान बेचने, कारोबार बढ़ाने और पैसा कमाने के लिए किस हद तक जाएंगे हम । क्या इसकी कोई हद नहीं । कहीं न कहीं तो हमें एक दायरा तय करना होगा कि बस यहीं तक, इसके आगे नहीं । पर इस आत्मनिर्धारण को कोई तैयार नहीं दिख रहा है आज । धारा तो इसके विपरीत ही बहती नजर आ रही है । टायलेट में पेपर पर कल हमने लिखा कि ‘कहीं तो बख्श दो यार’ । कमेंट आया कमआन कौस्तुभ यह तो महज एक तरीका है प्रचार का । किसी पर बाध्यता नहीं है पेपर पढ़ने की । जिसकी मर्जी हो पढ़े, मर्जी न हो न पढ़े । दोनों विकल्प खुले हैं । हमारा कहना है कि दोनों विकल्प खोल कर आप कौन सा अहसान कर रहे हो, कौन सी दरियादिली दिखा रहे हो भाई । विज्ञापन में देखने न देखने के विकल्प तो यूं भी खुले ही रहते हैं । मर्जी है तो देखा नहीं तो पन्ना पलट दिया, चैनल बदल दिया । तो यह ‘विकल्प’ कोई आप दान में नहीं दे रहे हैं दानवीर कर्ण की तरह । यह तो हर आदमी के पास पहले से ही है । असल बात फिर वही है कि प्रचार के लिए कहां-कहां घुसते फिरेंगे आप, शौचालय तक ! भई हमें तो नहीं जमता यह सब ।

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