ठीक कहा था डार्विन तुमने,
सदियों पहले, ठीक कहा था ।
विज्ञान की आड़ में छुप कर,
समाज का गहरा-नंगा सच ।
दुरुस्त थीं सौ फीसदी,
अनुकूलन-प्राकृतिक चयन की
तुम्हारी दोनों ही अवधारणाएं
और सटीक था एकदम
योग्यतम की उत्तरजीविता का
वह विश्वव्यापी सिद्धांत ।
फलसफा कि जीने के लिए
चुना जाता है उन्हीं को बस
जो होते हैं समाज में ‘योग्यतम’ ।
कि ‘योग्यता’ ही तो बन गया है आज
मेमने की खाल ओढ़कर बैठ जाना,
आदमी होकर भी भेड़ सरीखा मिमियाना ।
हंसते-खेलते सीख ले जो
मिमियाने की यह कला ।
वही है सबसे क़ाबिल
वही है सबसे ‘अनुकूल’।
उसी को चुनेगी ‘व्यवस्था’
उसी को देगी फूल ।
उसी को चुनेगी ‘व्यवस्था’
कि खालिस आदमी चुनने में
छिपे पड़े हैं खतरे बेशुमार ।
खतरा आवाज उठाने जाने का,
खतरा अपना दिमाग चलाने का
और इस सबसे कहीं बढ़कर
खतरा खुद काबिज हो जाने का ।
इसीलिए आदमी से मेमना ही भला है।
वाकई ‘अनुकूलन’ ही आज
आदमी की सबसे बड़ी कला है ।
वाकई अनुकूलन ही आज
जवाब देंहटाएंआदमी की सबसे बड़ी कला है।
सच हमे भी आपने अपने अनुकूल बना डाला है।