और तुम्हारी ही तरह झूठा था
‘ अंगोें की उपियोगिता ’ का वह सिद्धांत
कि विलुप्त हो जाते हैं अनुपयोगी अंग
और उपियोगियों का होता है भरपूर विकास
ऐसा होता हकीकत में अगर
क्यों विलुप्त हो जाती सदियों पहले,
आदमी के शरीर से दुम
दुम जिसकी पड़ती है जरूरत
जिंदगी में हर कदम
दफ्तर-घर-समाज हर जगह
‘ मालिक ’ बदल जाता है
आदमी रहता है वही हर जगह
दुम हिलाता सा उसी तरह ।
लेमार्क तुम गलत थे- - -
कि विकसित हो गई आदमी के जिस्म में,
बेवजह एक अदद रीढ़
रीढ़, जिसकी कहीं भी कोई जरूरत नहीं
दफ्तर में, घर में, समाज में कहीं नहीं
कि बेदम रेंगता रहता है इंसान
पैरोें तले मसलने वाले बदल जाते हैं
पर रहता वही है पिसता-कराहता आदमी
हर वक्त, हर जगह, हर तरह
- - - लेमार्क तुम गलत थे ।
रीढ़विहीन दुम वाला प्राणी-यानि आज का मनुष्य..
जवाब देंहटाएंअच्छा आईना दिखाया आपनें।
आदमी रहता है वही,बिल्कुल सही कहा।
जवाब देंहटाएंbahut hi kamaal ka likha hai...alag se vishay par...aur vyangya bilkul satik hai, karara hai, chot karta hai.
जवाब देंहटाएंmeri badhai sweekar karein.
word verification is very troublesome, khamakha ka ek step badh jaata hai comment karne me, ise hata denge to kaafi aasani rahegi
यथार्थवादी कविता........लेमार्क के सिद्धांत का अच्छा विवेचन किया आपने.....और वर्तमान परिस्थितियों के हिसाब से अपने महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष का प्रतिपादन किया....बधाइयां....
जवाब देंहटाएंसाभार
हमसफ़र यादों का.......
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जवाब देंहटाएंthats it :)
settigns me aap dashboard se jaa sakte hain.