परसों मोहल्ला से भेजा गया अविनाश का एक पोस्ट ब्लागवाणी पर देखा । ‘बेढंगे कपड़े पहनना, मुसीबत को बुलावा’ या ऐसे ही किसी शीर्षक से मोहल्ला पर पूर्व में प्रदर्शित एक पोस्ट के बारे में थी यह पोस्ट । अविनाश ने इस पोस्ट को फालतू करार देते हुए इसे मोहल्ला से बेदखल करने का निर्णय सुनाया था । कुछ इस अंदाज में कि मैं यहां का राजा हूं, तुम्हारी बातें मुझे पसंद नहीं आई, लो देश निकाला । उक्त पोस्ट को पूरा पढ़ा तो मैंने भी नहीं था, क्योंकि हेडिंग से ही इसमें एक वैचारिक सस्तापन नजर आया था । पर मेरे पढ़ने न पढ़ने की बात अलग है क्योंकि यह न तो मेरे ब्लाग पर आया था न ही मैने इसे हटाने की घोषणा की थी ।
बहरहाल! यहां मुद्दा है पोस्ट को ‘फालतू’ करार देकर किसी ब्लागर को अपमानजनक ढंग से बाहर कर देने की । हेडिंग से ही आभास होता हैे कि पोस्ट में लड़कियों को चुस्त और छोटे कपड़े न पहनने की नसीहत देते हुए लड़कियों के ‘बेढंगे’ पहनावे को ही छेड़खानी आदि की वजह बताया गया होगा । ठीक है कि वैचारिक स्तर पर यह बात सस्ती लगती है और इसे सामाजिक रूप से मान्यता नहीं दी जा सकती । पर यहां इसे मान्यता देने का तो कोई सवाल ही नहीं था । सीधी सी बात थी अविनाश ने मोहल्ला पर लोगों को खुद ही अपने विचार व्यक्त करने की दावत दे रखी है । इसी के तहत एक आदमी ने अपने विचार व्यक्त किए । अब जरूरी तो नहीं कि यह आपकी सोच के अनुरूप हो और अगर यही आपका एटीट्यूट है तो फिर काहे को लोगों को बुलाते हो भई विचार व्यक्त करने को । खुद लिखते रहो अगड़म-बगड़म और अपने को मानते रहो ‘बड़का बुद्धिजीवी’ । रही बात पोस्ट को बेहूदा करार देने की तो अविनाश खुद जो लिखते-पेश करते रहते हैं वह भी अकसर कम बेहूदा नहीं होता । कुछ दिन पहले अविनाश ने ज्ञानोदय में छपी एक कविता पेश की कि ‘हमारे देवताओं को जननेद्री नहीं होती’ । ज्ञानोदय में यह कविता मैने भी पढ़ी थी और मुझे भी पसंद आई थी । पर हमारे देश का जो मानस है उसमें बहुत से लोगों को यह आपत्तिजनक ही नहीं, भड़काउ भी लग सकती है, इसके बावजूद अविनाश ने इसे ब्लाग पर पेश किया । दूसरी ओर बेढंगे कपड़ों की बात को उन्होंने बेहूदा करार दे दिया, जबकि सामाजिकता और व्यावहारिकता के लिहाज से देखें तो इस बात को सिरे से दरकिनार नहीं किया जा सकता । हमारे देश में शिक्षा को जो स्तर है, लोगों की संकुचित सोच और संकीर्ण संस्कार है, इससे भी बढ़कर दोहरा चरित्र है, उसके मद्देनजर तो यह एक व्यावहारिक ठहरती हैं । कहीं न कहीं एक सामाजिक हकीकत तो है ही इसमें । लड़कियों के रात में घर से बाहर निकलने को लेकर भी ऐसी ही सोच है हमारे समाज में कि रात में बाहर मत निकलो, अकेले तो कतई नहीं । अब इस बात को ठीक भले न माना जा सकता हो पर इससे जुड़े खतरों को अनदेखा तो नहीं किया जा सकता । एक ओर दिल्ली, मुंबई, बंगलोर, चंडीगढ़ जैसे महानगरों में बड़ी सख्या में लड़कियां काॅल सेंटर जैसी लाइन में नाइट शिफ्ट में काम करती हैं । इससे इतर भी देश की एक अपनी हकीकत है और यह हकीकत इस खुशनुमा तस्वीर से कहीं बड़ी है कि देश में आमतौर पर पढ़े-लिखे लोगों के घरों में भी लोग आम तौर पर लड़कियों को रात में बाहर जाने देने से हिचकिचाते हैं । तो इसे आप एक ‘बेहूदा विचार’ कह कर लिखने वाले को अपमानित करो, यह तो निरी तानाशाही है, कोरा पाखंड है। भई पहले जरा अपने गिरेबान में झांको कि तुम क्या लिखते रहते हो उल्टा-सीधा, खुद को नारीवादी, उत्तर-आधुनिक साबित करने के लिए । खुद को राजेन्द्र यादव के टक्कर का साबित करने के लिए लोगों की धार्मिक आस्थाओं को आहत करने से भी नहीं चूकते और दूसरों की व्यावहारिक बात को भी इस बदतमीजी के साथ बेहूदा और फालतू करार देते हो । क्या फालतू है, क्या अच्छा, पढ़ने को खुद ही फैसला करने दो । आयोजक की भूमिका में रहो, न्यायाधीश क्यों बन रहे हो भई ! और यदि सोच का दायरा इतना ही संकरा है तो फिर ऐसा इंतजाम करो कि पोस्ट को देखने के बाद ही उसे ब्लाग पर प्रकाशित करो । प्रकाशित करने के बाद उसे बेहूदा करार देने की बात शोभा नहीं देती, खासकर उस आदमी पर जो आए दिन खुद ही बेहद फालतू की चीजे लिखता रहता है, उस आदमी पर जिसे माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय और दैनिक भास्कर से - - - । खैर ! जाने दीजिए व्यक्तिगत मामलों पर मैं उतरना नहीं चाहता । कहना बस इतना ही है कि दूसरों को आईना दिखाने से पहले अविनाश आईने में अपना चेहरा देखें ।
आपकी पोस्ट अच्छी है लेकिन काली पृष्ठभूमि पर आप जिन रंगों में लिख रहे हैं वह बिलकुल भी अच्छा नहीं दिखता. कृपया पुनर्विचार करें.
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कह रहे हैं आप. अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं तो तालिबान में और हममें क्या फर्क है- संजीव गौतम
जवाब देंहटाएंनिशांत मिश्र जी
जवाब देंहटाएंकाली पृष्ठभूमि काले शरीर के माफिक हो
और सफेद रंग
दिल के कारनामों का हो
तो अच्छा ही लगना चाहिए
हमें तो शरीर काला हो तो भी चलेगा
दिल तो सफेद है शब्दों का
और विचार भी झकाझक।
आपकी बात से सहमत। दरअसल पत्रकारिता की मार्केटिंग का दौर है। हर चीज को बाजार के नजरिए से परोसा जा रहा है।
जवाब देंहटाएंI just read you blog, It’s very knowledgeable & helpful.
जवाब देंहटाएंi am also blogger
click here to visit my blog