20 जनवरी 2010

महंगाई पर तमाशेबाजी!

महंगाई आज देश की जनता के लिए ङ्क्षचता का सबसे बड़ा का मुद्दा है। दूसरी ओर सरकार में बैठे लोगों लिए शायद यह महज बौद्धिक कलाकारी और बयानबाजी का विषय बनकर रह गया है। शायद यही वजह है कि सरकार की तमाम कोशिशों केबावजूद महंगाई जहां की तहां कायम है। उधर सरकार में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोग महंगाई को लेकर तरह-तरह की व्याख्याएं पेश कर रहे हैं। कई बार तो यह व्याख्याएं इतनी अजीबोगरीब होती हैं कि यह भी समझ नहीं आता कि इन पर हंसा जाए या रोया जाए। एक-दो दिन पहले देश के कृषि मंत्री शरद पवार ने महंगाई का कारण ग्लोबल वार्मिंग को बताकर सरकार की खासी किरकिरी करवाई थी। कुछ ऐसा ही बयान मंगलवार को योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया का आया है। अहलूवालिया ने महंगाई की वजह अनाज और खाद्य पदार्थों उत्पादन में कमी के बजाए वितरण व्यवस्था में खामी को बताया है। उनके मुताबिक सूखे के बाद कीमतों को लेकर अटकलों के चलते महंगाई बढ़ी है। सब्जियों और आलू-प्याज का उदाहरण देते हुए मोंटेक ने कहा कि इनकी कीमतों में अपेक्षा से कहीं अधिक बढ़ोतरी हुई है और महंगाई को मौद्रिक उपायों के जरिए नियंत्रित नहीं किया जा सकता। योजना आयोग के उपाध्यक्ष की यह कथनी महंगाई की गेंद को दूसरे के पाले में डालने की कवायद ही जान पड़ती है। आर्थिक कारणों के बजाए महंगाई का ठीकरा व्यवस्थागत खामियों के सिर फोड़कर उन्होंने हमारे अर्थतंत्र के नीति नियंताओं और नियामकों के बचाव की नाकाम कोशिश की है। व्यावहारिक तौर पर उनकी बात कुछ हद तक ठीक हो सकती है, पर वितरण में खामियों के नाम पर आर्थिक मोर्चे पर सरकार की विफलता को छुपाया नहीं जा सकता। दूसरी बात यह है कि उनकी बातों को अगर ठीक मान भी लिया जाए तो क्या इससे सरकार महंगाई पर अपनी जवाबदेही से बच सकती है? यदि देश में अनाज का पर्याप्त भंडार है और वितरण व्यवस्था में खामी के चलते महंगाई बेलगाम बढ़ रही है तो सवाल यह उठता है कि वितरण व्यवस्था की इस खामी को सुधारना आखिर किसका काम है। क्या यह सरकार का काम नहीं? क्या हमारे देश की वितरण प्रणाली को सुधारने के लिए विदेश से कोई आएगा। देखा जाए तो मोंटेक की यह दलील सरकार को दोषमुक्त करने के बजाए उसकी नाकामी को नकारेपन का दर्जा देने वाली लगती है। अनाज की कमी होने पर मांग और पूर्ति के अंतर के चलते कीमतें बढऩे की बात तो स्वाभाविक और तार्किक है, पर यदि हमारी सरकार भंडार भरे होने पर भी महंगाई बढऩे दे रही है तो उसका दोष और भी बढ़ जाता है। सियासत की रोटियां सेकने केलिए नेता-मंत्री तो तरह-तरह की बातें कहते रहते हैं पर योजना आयोग उपाध्यक्ष जैसे नीति निर्धारक पद पर बैठे और अच्छे अर्थशास्त्री की छवि रखने वाले मोंटेक सिंह ने यह बात कही है। इसलिए इसे गंभीरता से लिया जाना जरूरी है। अगर इसमें सच्चाई है तो सरकार को इस दिशा में त्वरित कार्रवाई करते हुए वितरण व्यवस्था की खामियों को दूर करने के कारगर कदम उठाने चाहिए।

27 सितंबर 2009

तो ऐसे होती है दिल्ली में क्रांति, कमाल है!

एक खास विज्ञापन की तलाश में पिछले दो-चार दिन के हिन्दुस्तान टाइम्स के पन्ने पलट रहा था। एक पेज की लीड स्टोरी पर गया। चार-पांच काॅलम में छपी स्टोरी थी, रंगीन फोटो के साथ। फोटो में एक खूबसूरत सी लड़की अपनी छोटी सी कार पर चढ़ रही थी, बड़े अंदाज-ओ-अदा के ध्यानसाथ। ध्यान खिंचना लाजमी था भई। सोचा लाइफ स्टाइल वगैरह से जुड़ी कोई खबर होगी। पढ़ना शुरू किया तो मामला कुछ और ही निकला। स्टोरी बिजली से चलने वाली कार पर केन्द्रित थी। स्टोरी की शुरुआत अंगरेजी अखबारों की घिसे-पिटे नाटकीय अंदाज में थी कि ...वह जब अपनी नई-नवेली ई-कार में बैठती है तो...फलां-फलां-फलां...। खामखां किसी कंपनी में काम करने वाली एक कंप्यूटर इंजीनियर बाला को हाइलाइट करते हुए स्टोरी का बेहूदा सा ताना-बाना बुना गया था। लड़की शायद रिपोर्टर की परिचित रही हो, या शायद संपादक जी की ’ करीबी ’ रही हो या फिर कोई और बात रही हो, बात पता नहीं । यूं भी आउटपुट के बढ़ते दबाव के चलते अकसर रिपोर्टरों को कई बेमतलब की स्टोरीज लिखनी पड़ जाती हैं खबरों की गिनती बढ़ाने के लिए। मीडिया में यह एक कामन प्रैक्टिस हो गई है आजकल। हद वहां पार हो गई जब आगे की लाइनों में लड़की एक ’ साइलेंट रिवल्यूशन ’ का संवाहक बता कर महिमा मंडित कर दिया गया। संवाददाता का मानना था कि लड़की के बिजली की कार में चलने से पर्यावरण सुरक्षा की ओर एक मौन क्रांति आकार ले रही है। गोया कि एक दिन देश में सभी कारें बिजली से चलने लगेंगी और उस दिन गाड़ियों से होने वाला प्रदूषण थम जाएगा... आदि-आदि।रिपोर्टर महोदय के दिमाग की बलिहारी माननी पड़ेगी यहां दो बातों के लिए। एक तो क्रांति शब्द की उन्होंने जिस खूबसूरती से दईया-मईया की। दूसरे बिजली की कार से क्रांति आ जाने की उनकी समझ के लिए। जनाब ने दो मिनट को यह सोचने की जहमत नहीं उठाई कि देश में सारी कारें जब बिजली से चलने लगेंगी तो कोई क्रांति-वांति नहीं, सीधी-सीधी मुसीबत ही आ जाएगी। यार, आज की तारीख में जब हाल यह है कि जहां दस मेगावाट की जरूरत है, वहां चार-पांच मेगावाट बिजली का भी नहीं मिल पा रही है। यानि सप्लाई डिमांड के आधे के बराबर भी नहीं है। जब सारी कारें बिजली से चलने लगेंगी तो उनके लिए बिजली कहां से मिलेगी? मान लीजिए कि उत्पादन बढ़ा कर अगर बिजली मिलती भी है तो यह आएगी कहां से। हमारे देश के थर्मल पाॅवर स्टेशनों से ही, जो टनों-टन कोयला जलाकर, ढेरों धुआं हवा में छोड़ कर बिजली बनाते हैं। तो ऐसे में जितनी ज्यादा बिजली बनेगी कोयले की उतनी ही खपत होगी और हवा में उतना ही धुआं घुलेगा। प्रदूषण थमेगा कतई नहीं। हां कारें अगर सौर उूर्जा, या हाइड्रोजन से चलें और धुआं उगलने के बजाए साइलेंसर से पानी टपकाएं तो पर्यावरण की रक्षा हो सकती है। इसलिए हे रिपोर्टर महाशय क्रांति को अपने बिस्तरे पर आराम से सोने दो। बेचारी को खामखां में क्यों जगा कर छेड़ते हो। अपने मनोज कुमार को बुरा लगता होगा भई। रही बात लड़की को हाईलाइट करने की तो उसके और भी दर्जनों फालतू तरीके हो हो सकते हैं। दिमाग लगाओ, पर फार गाॅड शेक क्रांति के नाम पर कामेडी न करो प्लीज!!!

25 सितंबर 2009

दरोगा जी में जाग उठी ’ देवी ’

माथे पर रोली का लंबा सा टीका लगाए आज उनके मुख की शोभा कुछ अलग सी है। रोजाना के रौब के साथ-साथ एक अनूठा तेज टपक रहा है चेहरे से। जिप्सी की अगली सीट पर बैठे एसओ साहब पूरे एक्शन में हैं। अरे, एक्शन मतलब वसूली नहीं यार ! आप लोग तो खामखां एक ही जगह अटक जाते हो। अरे नौराते शुरू हो चुके हैं। कुछ तो धार्मिक हो जाओ। कुछ तो शुभ-शुभ बोलो। ---हां तो साहब एक्शन में हैं। पूरे धार्मिक मूड में। हर साल की तरह नवरात्रि में फिर से देवी जाग उठी है उनके भीतर मुंशी से लेकर सिपाही तक जानते हैं उनका यह रूप। गाड़ी चैराहे पर पहुंचते ही सारे के सारे वर्दी वाले टाइट हो जाते हैं। बूचड़खाने के सामने तैनात सिपाही को बुला कर फट पड़ते हैं। साले तेरी भैन की--- क्या कर रहा है यहां खडे़-खड़े सुबह से। कैसे लगा हुआ है गाड़ियों का मेला। खदेड़ सालों को दीवार के भीतर। सड़क पर भेड़-बकरियां फैला रखी हैं। सिपाही साहब का आदेश बजाने में तत्परता से जुट जाता है गाड़ी वालों की मां-बहन तोलते हुए। गाड़ियों पर डंडे फटकारता है। देखते ही देखते सड़क खाली। सारी गाड़ियां बूचड़खाने की चहरदीवारी के भीतर हो लेती हैं। कटने के लिए गए लाए गए मवेशी भी धड़ाधड़ अंदर धकेल दिये जाते हैं। सिपाही राहत की सांस लेकर पसीना पोछता है। गालियां एक बार फिर उसके होठों पर तैर आती हैं। इस बार गाड़ी वालों के लिए नहीं, थानेदार के लिए- ’ साला पहली तारीख से पहले ही महीने की पांच पेटियां खा जाता है कसाई के बाप से और हमसे पूछता है गाड़ियों का मेला क्यों लगा रखा है। बड़ा देवी का भक्त बना फिर रहा है, देवी जाग उठी है साले के भीतर नौरातों में। --- में बूता है तो पैसे खाना बंद कर दे गाड़िया तो यहां से ऐसी गायब कर दूंगा जैसे गधे के सिर से सींग।’ सिपाही का गुस्सा उबल रहा है। नादान नहीं जानता दरोगा के भीतर जागी ’देवी’ लाचार है महिषासुरों के आगे, कि महिषासुर ’ मैनेजमेंट गुरु ’ बन चुका है आज । सत्ता की गलियारों में उसके ही एजेंट भरे पड़े हैं। अकेली देवी किस-किस से पंगा लेगी।

20 सितंबर 2009

दाती गुरु का मंतर काम कर रहा है

मदारी की बाजीगरी दिल बहलाती है। लोग सिक्के फेकते हैं। मीडिया की बाजीगरी इससे कहीं गहरी है। व्यापकतर असर रखती है। चैनलों का चलाया दाती गरु का मंतर आजकल दिल्ली में खूब कमाल दिखा रहा है। दाती गुरु वही रजत शर्मा मार्का। इंडिया टीवी वाले। बाद में शायद अच्छा आफर मिला तो न्यूज-24 चले गए। आजकल वहीं से भक्तों को दीक्षा दे रहे हैं। भविष्य बांच रहे हैं। पहले शनि के प्रकोप से बचाते थे। दाती गुरू के मुख से चैनलों ने शनिदेव की महिमा ऐसी बखानी कि उनका अपना टीआरपी तो बढा ही, शनिदेव के भी दिन फिर गए। जरा दिल्ली की सैर कीजिए इनके मंतर का असर दिल्ली के दिल कनाट प्लेस तक पर नजर आएगा। मेटरो गेट, बस स्टाप, पालिका, फुटपाथ हर जगह शनि महाराज विराजे दिखाई देंगे। लोग खामखां डरते हैं इनसे इतना। जाने क्यों एक गुस्सैल सी विलेन टाइप इमेज बना रखी है बेचारे शनिदेव की। जरा गौर से देखिए चश्मा उतार कर। इनसे सीधा और लाचार कोई नजर नहीं आएगा आपको दिल्ली में। लाचार इसलिए की बिना कुछ चूं-चपड़ किए घंटों धूप में झुलस रहे हैं। सीधा इसलिए कि इनको साधना किसी भी दूसरे देवता को साधने से आसान हो गया है आजकल। न मूर्ति का खर्चा, न फोटो का, चैकी सजाने जैसी लग्जरी की तो बात ही छोड़िए। बस एक गत्ते पर फटा-पुराना-मैला-कुचैला जैसा भी मिल जाए एक काला कपड़ा ओढ़ा कर एक फूल माला चढ़ा दीजिए। सामने एक छोटे से बर्तन में तेल रख दीजिए। हो गया काम। अब देखिए शनि देव का कमाल। कुछ चमत्कार नहीं दिखा क्या! कैसे दिखेगा यार, दो-चार चिल्लर-विल्लर नहीं डालोगे जबतक अपनी तरफ से। भई अब इतना इंवेसमेंट तो करना ही पड़ेगा कोई भी नया धंधा जमाने में। तो एक, दो पांच के दो चार सिक्के डाल के परे हट लो। अब देखो शनिदेव कैसे फटाफट कमाई कर भरते हैं तुम्हारी जेब। दो-दो घंटे पर आकर रिटर्न कलेक्ट करते जाओ बस। हाथ-पांव डोलाने की कोई जरूरत नहीं, मगजमारी भी कुछ नहीं। एक दिन में एक का पंद्रह बटोरो। वो कहते हैं न, कि अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम; दास मलूका कह गए सबके दाता राम। मलुक दास ससुर बुडबक थे, जो शनि देव के एकाउंट का श्रेय राम के खाते डाल गए। शायद उनकी इसी गलती को सुधारने के लिए कलयुग में दाती गुरु का अवतार हुआ और रजत शर्मा उनके प्रमोटर बने। वर्ना इतना मंदी के इस दौर में इतने कम इंवेसमेंट में ऐसा चोखा धंधा कौन माई का लाल क्या खा के जमा लेता। शनिदेव भी शनीचर बने कहीं कोने में बैठे होते ललिता पवार जैसा मुंह बनाए। तो ’ हल्दी लगे न फिटकरी रंग भी चोखा आए ’ के इस कमाल को देखो। श्रद्धा उमड़े तो रुपया-दो रुपया चढ़ा दो, अपनी औकात देख कर। और जोर से बालो शनि देव की जय ! दाती गुरु की जय !! चैनल वालों की !!!

19 सितंबर 2009

दाती गुरु का मंतर काम कर रहा है

मदारी की बाजीगरी दिल बहलाती है। लोग सिक्के फेकते हैंै। मीडिया की बाजीगरी इससे कहीं गहरी है। व्यापकतर असर रखती है। चैनलों का चलाया दाती गरु का मंतर आजकल दिल्ली में खूब कमाल दिखा रहा है। दाती गुरु वही रजत शर्मा मार्का। इंडिया टीवी वाले। बाद में शायद अच्छा आफर मिला तो न्यूज-24 चले गए। आजकल वहीं से भक्तों को दीक्षा दे रहे हैं। भविष्य बांच रहे हैं। पहले शनि के प्रकोप से बचाते थे। दाती गुरू के मुख से चैनलों ने शनिदेव की महिमा ऐसी बखानी कि उनका अपना टीआरपी तो बढा ही, शनिदेव के भी दिन फिर गए। जरा दिल्ली की सैर कीजिए इनके मंतर का असर दिल्ली के दिल कनाट प्लेस तक पर नजर आएगा। मेटरो गेट, बस स्टाप, पालिका, फुटपाथ हर जगह शनि महाराज विराजे दिखाई देंगे। लोग खामखां डरते हैं इनसे इतना। जाने क्यों एक गुस्सैल सी विलेन टाइप इमेज बना रखी है बेचारे शनिदेव की। जरा गौर से देखिए चश्मा उतार कर। इनसे सीधा और लाचार कोई नजर नहीं आएगा आपको दिल्ली में। लाचार इसलिए की बिना कुछ चूं-चपड़ किए घंटों धूप में झुलस रहे हैं। सीधा इसलिए कि इनको साधना किसी भी दूसरे देवता को साधने से आसान हो गया है आजकल। न मूर्ति का खर्चा, न फोटो का, चैकी सजाने जैसी लग्जरी की तो बात ही छोड़िए। बस एक गत्ते पर फटा-पुराना-मैला-कुचैला जैसा भी मिल जाए एक काला कपड़ा ओढ़ा कर एक फूल माला चढ़ा दीजिए। सामने एक छोटे से बर्तन में तेल रख दीजिए। हो गया काम। अब देखिए शनि देव का कमाल। कुछ चमत्कार नहीं दिखा क्या! कैसे दिखेगा यार, दो-चार चिल्लर-विल्लर नहीं डालोगे जबतक अपनी तरफ से। भई अब इतना इंवेसमेंट तो करना ही पड़ेगा कोई भी नया धंधा जमाने में। तो एक, दो पांच के दो चार सिक्के डाल के परे हट लो। अब देखो शनिदेव कैसे फटाफट कमाई कर भरते हैं तुम्हारी जेब। दो-दो घंटे पर आकर रिटर्न कलेक्ट करते जाओ बस। हाथ-पांव डोलाने की कोई जरूरत नहीं, मगजमारी भी कुछ नहीं। एक दिन में एक का पंद्रह बटोरो। वो कहते हैं न, कि अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम; दास मलूका कह गए सबके दाता राम। मलुक दास ससुर बुडबक थे, जो शनि देव के एकाउंट का श्रेय राम के खाते डाल गए। शायद उनकी इसी गलती को सुधारने के लिए कलयुग में दाती गुरु का अवतार हुआ और रजत शर्मा उनके प्रमोटर बने। वर्ना इतना मंदी के इस दौर में इतने कम इंवेसमेंट में ऐसा चोखा धंधा कौन माई का लाल क्या खा के जमा लेता। शनिदेव भी शनीचर बने कहीं कोने में बैठे होते ललिता पवार जैसा मुंह बनाए। तो ’ हल्दी लगे न फिटकरी रंग भी चोखा आए ’ के इस कमाल को देखो। श्रद्धा उमड़े तो रुपया-दो रुपया चढ़ा दो, अपनी औकात देख कर। और जोर से बालो शनि देव की जय ! दाती गुरु की जय !! रजत दादा की !!!

14 सितंबर 2009

समाचार वालों पीछे से निकल लो

दिल्ली की बसों नगर बसों में सफर करना यूं तो अपने आप में एक यातना है, पर इस यातना में एक मजा भी कहीं छिपा हुआ है। यह मजा है कंडेक्टरों की बोली और चुहलबाजी का। कभी-कभी सोचता हूं कि जाने कब नजर पडे़गी ललित कला अकादमी वालों की, इन कलाकारों की कलाकारी पर। हर स्टाॅप पर खिड़की से सिर निकाल कर सवारियों को रिझा कर अपनी बस में चढ़ाने के लिए तरह-तरह के खटकर्म करते हैं बेचारे। पूरी सुर-लय-ताल में स्टेशनों के नाम एक सांस में ले जाते हैं बेचारे। इसमें भी मिनट-मिनट पर जुगलबंदी हो जाती है। एक सांस में जो जितने ज्यादा स्टाॅपेजों के नाम लेता है वही चैंपियन। जगहों के इन आड़े-तिरछे नामों को एक लय में लपेट कर झट से उगल देना वाकई आसान नहीं। यकीन न आए तो कभी आजमा कर देख लीजिए अकेले में। कलापक्ष के बाद बात करें इनकी चुहलबाजी की तो वह भी लाजवाब है जनाब। स्टाॅपेज के पास धीमी होती बस की तरफ कोई महिला बढ़ती दिख जाए तो कंडक्टर माहाशय चिल्लाएंगे- लेडीज सवारी है आगे से ले लो। इसके विपरीत आदमी आता दिखे तो उसका डाॅयलाॅग होगा- जेंड सवारी है पीछे से लो। आगे से लो और पीछे से लो का औपचारिक मतलब तो बस के अगले गेट और पिछले गेट से होता है पर अनौपचारिक और असली मतलब क्या होता है, समझने वाले खूब समझते हैं।नोएडा के गोल चक्कर स्टाॅप पर लंबा-चैडा भीमकाय सा आदमी सडक किनारे खडा दिखा। कंडक्टर उसे देखकर चिल्लाने लगा चिड़ियाघर-चिड़ियाघर-चिड़ियाघर, जबकि इससे पहले उसने किसी स्टाॅप पर चिडियाघर का नाम नहीं लिया। चंद कदम बाद एक मोटा आदमी दिख गया तो चिल्ला पड़ा अप्पूघर-अप्पूघर-अप्पूघर। सब जानते थे कि ये बस अप्पूघर नहीं जाती, लिहाजा बस में ठहाका गूंज उठा। इसी तरह सड़क पर कुछ इठला-बलखा कर कुछ अजीब अंदाज में चलती लड़की को देख दिलफेक कंडक्टर बोला पागलखाने-पागलखाने-पागलखाने। जी हां कोई पागलखाना बस के रूट पर न होने पर भी। कंडक्टर की ये बदमाशियां यात्रियों को भी भरपूर मजा दे रही थीं। थोड़ी देर बाद एक स्टाॅपेज पर उसने कुछ ऐसी बात कही जिसमें आज के दौर की एक बहुत बड़ी सच्चाई और गहरा व्यंग्य छुपा हुआ था। इस व्यंग्य का भान उसे कत्तई नहीं, था पर एक पत्रकार होने के नाते मुझे इसका अहसास हुआ। दरअसल नोएडा से दिल्ली के रास्ते में एक रिहायशी बिल्डिंग पड़ती है समाचार अपार्टमेंट। इसके नजदीक आते ही वह चिल्ला पड़ समाचार वालों दरवाजा पकड़ लो-समाचार वालों दरवाजा पकड़ लो। उसका मतजब उस स्टाॅपेज पर उतरने वालों के उठ कर दरवाजे की ओर बढ़ने से था। बिल्डिंग और नजदीक आई तो उसका डाॅयलाॅग थोड़ा बदल गया- समाचार वालों पिछले गेट से निकल लो-पिछले गेट से निकल लो। उसकी बात ने जब मेरे दिमाग में क्लिक किया तो मैंने सोचा कि वाकई जाने-अनजाने ये अनपढ़ सा आदमी मीडिया जगत की कितनी बड़ी सच्चाई बयां कर रहा है। आज अखबारों और खासकर टीवी चैनलों को देखिए तो जरा। अखबार के नाम पर चल रहे इस ’ कारोबार ’ में समाचार वाकई दरवाजा पकड़ता जा रहा है। समाचार की जगह न्यूज बुलेटिन में ’आइटम’ परोसे जा रहे हैं। और तथ्य ही सर्वोच्च है, सर्वप्रथम है का एथिक्स पढ़कर पत्रकारिता में आने वाले लोग वाकई पिछले दरवाजे से बाहर किए जा रहे हैं। बिना किसी हो-हल्ले और शोर-शराबे के। उनकी जगह बिठाए जा रहे हैं अनुप्रास में डूबी हेडिंग लगाने वाले और फिल्मी डाॅयलाॅग की अंदाज में स्टोरी की काॅपियां लिखने वाले पत्रकारिता के नए कर्णधार। स्क्रीन पर भी अब दांत पीस-पीस कर और ओंठ चबा-चबा कर वीर और वीभत्स रस में, पूरे नाटकीय अंदाज में डाॅयलाग डिलिवरी करने वालों को ही जगह मिल रही है। गंभीर चेहरे और अंदाज वाले पत्रकार लगता है मीडिया की बस के पिछले दरवाजे से पड़ाव-दर-पड़ाव उतरते जा रहे हैं। एक-एक कर खत्म होता जा रहा है उनका सफर।

24 जून 2009

मायने बदल गए

परिवर्तन ही ‘स्थायी’ है
समझता है आदमी
तभी तो बदल लेता है,
खुद को समय के साथ
अपना पूरा किरदार
और बदल डालता है साथ में
सोच, फितरत, स्वभाव सबकुछ।
बदलावों के इस बवंडर में,
फंस कर बदल जाते हैं
लफ्जों के मायने भी
शब्द वही रहते हैं
शब्दकोश वही रहते हैं
बदल जाते हैं तो बस
लफ्जों के मायने

लड़ना बुराई से
देना सच का साथ
कहलाता था साहस कभी
पर बदल गए हैं पूरी तरह
साहस के मायने आज
चोर को चोर कहना
दलाल को दलाल कहना
और कहना दोगले को दोगला
‘साहस’ से भी बढ़कर
आज हो चला है ‘पराक्रम’
और यह भी सच है समाज का
कि हर आदमी हो नहीं सकता पराक्रमी
इस लिए उसने खोज निकाला है रास्ता
रास्ता ‘शालीनता’ की चादर ओढ़
बन जाने का ‘सुसभ्य’ और ‘लोकतांत्रिक’
- - -तो अब सभ्य, शालीन और लोकतांत्रिक
आदमी के मुंह से लिकलेंगे भला कैसे
दोगला, चोर, दलाल जैसे सस्ते शब्द
इस लिए गढ़ लिया गया है
एक ‘सुसभ्य’ सा नया संबोधन
चोर-दलाल-दोगले सबको
समेट लिया है बस एक लफ्ज में
क्या है बोलो वह शब्द !
ठीक कहा, ‘माननीय’ ।

21 जून 2009

तो इस लिए है सुअर घिनौना ।

स्वाइन फ्लू की खबर पढ़ते हुए मन ख्याल आया कि - - -तो इस लिए सुअर का मांस खाने को बुरा माना जाता है । पर अगले ही पल दूसरा सवाल उठा कि स्वाइन फ्लू की बीमारी तो हाल के वर्षों में ही सामने आई है, पर सुअर के मीट को लेकर कई देशों और संस्कृतियों में घृणा सदियों पहले से है । इस्लाम में तो शुरू से ही न केवल सुअर का मांस खाना मना है, बल्कि इसे कुफ्र या पाप माना जाता है । बात इस्लाम तक पहुंची तो सहसा ही आइडिया आया कि क्यों न इसकी वजह भी इस्लाम की ही किसी किताब में ढूंढी जाए ! याद आया कि पुस्तक मेले में लगे स्टाल से एक बार जाकिर नाइक की कुछ किताबें ली थीं । ली क्या थी, मुफ्त बंट रही थीं सो उठा लाया था । एकाध अध्याय पढ़ने के बाद रोजमर्रा की जद्दोजहद में किताब किनारे लगी तो फिर सेल्फ में ही रखी रह गई । आज स्वाइन फ्लू ने बरबस ही उसकी याद दिला दी । देखा तो संयोग से उसमें इस सवाल का जवाब मिल गया । सुअर के मांस के निषेध के किताब में दो मुख्य कारण बताये गए हैं । एक कारण तो आमतौर पर लोगों को पता ही होगा कि हमारे इर्द-गिर्द पाए जाने वाले जानवरों में सुअर ही एक ऐसा प्राणी है जो अपना मल भी खा जाता है । उसके इस गंदे खान-पान और रहन-सहन के चलते उसके पेट में तमाम तरह के कीड़े या कृमि और कीटाणु-जीवाणु आदि पाए जाते हैं । पश्चिमी जगत में मान्यता है कि मांस को अगर अच्छी तरह से पका दिया जाए तो यह सभी कीटाणु, जीवाणु और कृमि मर जाते हैं, पर हाल के वैज्ञानिक शोधों में पता चला है कि बहुत से कीटाणु-जीवाणु ऐसे भी होते हैं जो खौलते पानी तक में जिंदा रह सकते हैं । इसके विपरीत शून्य से दस डिग्री नीचे तक के तापमान में यानि पानी को जमा कर बर्फ बना देने के बाद भी कई जीवाणु-कीटाणु जीवित रहते हैं । सुअर का मीट खाने पर यही जीवाणु तमाम बीमारियों का वाहक बन कर हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और हमें बीमार कर देते हैं । इस वैज्ञानिक तथ्य के सामने आने के बाद सार्सेज के शौकीनों ने इसके जवाब में एक नया तर्क पेश कर दिया कि बीमारी फैलाने वाले जीवाणु तो गंदी तरह रहने-खाने के चलते सुअर के शरीर में पनपते हैं, अगर उन्हें सफाई से रखा जाए और हाईजेनिक ढंग से पाला जाए तो सार्सेज खाने में कोई हर्ज नहीं है । यह बात उपरी तौर पर सही लग सकती है पर पूरी तरह ठीक नहीं क्योंकि लाख सफाई रखने और अच्छा खाना देने पर भी इनपर पूरी तरह नियंत्रण नहीं रखा जा पाता । अपने नैसर्गिक स्वभाव के चलते बाड़े में मौका लगते ही यह एक-दूसरे का या अपना मल खा ही जाते हैं । इस तरह बडे़-बड़े फार्म हाउसों में पूरी सफाई से पाने जाने वालू सुअरों का मांस भी आप बेफिक्र होकर नहीं खा सकते ।
यह तो हुई समस्या की वैज्ञानिक व्याख्या । इसके अलावा सुअर का मीट खाना मना होने का एक नैतिक कारण भी किताब में बताया गया है । वह कारण यह है कि सुअर ही एक ऐसा प्राणी है जो अपने साथियों को अपनी संगिनी के साथ संभोग करने के लिए स्वयं आमंत्रित करता है, बाकी कोई भी जीव ऐसा काम नहीं करता । यह दूसरा कारण मेरे लिए एक नई जानकारी थी । अगर यह हकीकत है तो इसके कारणों आदि पर व्यापक वैज्ञानिक की शोध की जरूरत है । शायद इसी कारण से सुअर को घिनौनेपन की मिसाल माना जाता है ।

19 जून 2009

दिमाग की खिड़कियां खोलो अविनाश !

मोहल्ला से फिर एक ब्लागर को निकाल दिया गया । सलीम खान नाम के इस शख्स पर आरोप था अपने धर्म, इस्लाम का प्रचार करने का । यानि मोहल्ले में धर्म या मजहब की बात करना कुफ्र है, गुनाह है । इस एकतरफा कार्रवाई के औचित्य पर चर्चा बाद में करेंगे । पहले यह कहना चाहूंगा कि यदि ब्लाग में किसी को शामिल करने या बेदखल करने के ब्लागर के विशेषाधिकार को मान भी लिया जाए तो सलीम को मोहल्ले से बेदखल करने के लिए अविनाश ने जिस भाषा, जिस शब्दावली का इस्तेमाल किया वह अस्वस्थ और आपत्तिजनक है ।
अविनाश की पोस्ट में कहा गया कि हमें मोहल्ले में सलीम साहब की सोहबत नहीं चाहिए - - - क्योंकि उनका उद्देश्य इस्लाम का प्रचार करना है - - - । यहां दो बातों पर मैं खास ध्यान दिलाना चाहूंगा । पहला है ‘सोहबत’ शब्द । बहुत महत्वपूर्ण शब्द है सोहबत, जिसे हिन्दी में सानिध्य या संगत कहते हैं । इसी संगत को लेकर कहावत है कि ‘संगत से गुण आत है, संगत से गुण जाए’ ।
‘सलीम साहब की सोहबत नहीं चाहिए’ का मतलब है उनकी सोहबत खराब है या बिगाड़ने वाली है । क्यों बिगाड़ने वाली है, क्यों कि वह इस्लाम की बात करते हैं । ब्लाग के मेजबान ‘परम विद्वान’ अविनाश जी की सोहबत बड़ी भली है क्योंकि वह इसी ब्लाग पर कविता छाप रहे हैं कि ‘हमारे देवताओं को जननेन्द्री नहीं होती’ । लोगों के ज्ञान के साथ-साथ बड़ी सामाजिक समरसता बढ़ा रहे हैं अविनाश और सलीम इस्लाम के बारे में कुछ बता रहे हैं तो गुनाह कर रहे हैं । इस लिए मोहल्ले को उनकी सोहबत नहीं चाहिए, उन्हें बेदखल किया जाता है । उनके सभी लेखों को हटा दिया गया, उनका आईडी तक ब्लाक कर दिया गया जिसे बहाल करने की सलीम बार-बार गुजारिश कर रहे हैं । खुद मोहल्ला के कुछ टिप्पणीकार भी इस एक तरफा फैसले पर ऐतराज जता चुके हैं , पर अविनाश के कान पर जूं नहीं रेंग रही, क्योंकि वो इस मोहल्ले के ‘दादा’ हैं, दादागिरी चलती है उनकी यहां । जिसे चाहें रखें, जिसे चाहें तड़ीपार कर दें । अरे यार ! जरा दिमाग का दरवाजा खोलो, खिड़कियां खोलो । क्या समझते हो खुद को । क्या दिखाना चाहते हो यह सब करके कि कार्ल माक्र्स के बाद इस धरती पर तुम ही बचे हो महान । माक्र्स ने धर्म अफीम है, कह कर खुद को धर्म-कर्म के बंधन से उपर साबित किया था और माक्र्स के बाद अब तुम खुद को साबित कर रहे हो देवताओं को जननेन्द्री नहीं होती कह कर, मजहब की बात करने वाले सलीम को बेदखल करके । क्या समझते हो खुद को, किस ख्वामख्याली में जी रहे हो भाई ।
गौरतलब है कि सलीम को बेदखल करते वक्त कारण महज यह बताया गया कि उनका उद्देश्य इस्लाम का प्रचार करना है । यह नहीं कहा गया कि वह कोई आपत्तिजनक बातें कह रहे हैं या उनकी फलां-फलां बातें आपत्तिजनक हैं । अरे यार ! जननेन्द्री वाली कविताओं को छोड़ कर कभी-कभी कुछ और भी पढ़ लिया करो । सदियों पहलने रहीम कह गए थे कि -
कह रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग
चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ।
जरा इस दोहे से भी तो कुछ सीख लो सीख लो । जो धर्म की मजहब की बात कर रहा है, करने दो । तुम अपनी बात करो । जिसे उसकी पढ़नी होगी, उसकी पढ़ेगा । जिसे तुम्हारी पढ़नी है, तुम्हारी पढ़ेगा । क्या दिक्कत है इसमें । कुछ आपत्तिजनक बात करता है कोई, तो बेशक हटा दो उसका उल्लेख करते हुए, पूरा अधिकार है ब्लाग के मेजबान को, पर बेअदबी और मनमानी तो ठीक नहीं । सलीम कोई ओसामा बिन लादेन का यशोगान तो नहीं कर रहे थे, न ही इस्लाम के नाम पर अमेरिका पर एक और हमला करने का आह्वान कर रहे थे । चीजों की अपने धर्म के अनुसार व्याख्या कर रहे थे । अपने धर्म को युक्तिसंगत और महान बता रहे थे । वह तो हर कोई करता है । हिन्दू भी करता है, ईसाई भी करता है । तो महज इस्लाम के प्रचार का आरोप लगाकर किसी को निकालना उचित है क्या !
जरा अपने ब्लाग के नाम पर भी गौर करो भइया ! मोहल्ला । भई जहां तक हमने देखा है मोहल्ले में हर किस्म के, हर मजहब को मानने वाले लोग अपने-अपने तरीके से रहते हैं। मोहल्ले में मंदिर भी होता है, मस्जिद भी होती है । मंदिर में आरती-भजन, तो मस्जिद में अजान और नमाज होती है । तो अविनाश का यह कैसा मोहल्ला है जहां अजान की इजाजत नहीं । और क्यों नहीं ! जरा इसपर भी ठंडे दिमाग से गौर करो । अब बातें तो बहुत सी हैं, पर बात निकलेगी तो बहुत दूर तलक जाएगी। इसलिए फिलहाल इतना ही । इस गुजारिश के साथ कि यह सबकुछ किसी को नीचा दिखाने या कोरी आलोचना के लिए नहीं लिख रहा । महज चीजों को एक होलिस्टिक एप्रोच में, खुले दिमाग से देखने के लिए कह रहा हूं । इसके अलावा मेरी इस पोस्ट का कोई और मकसद न है, न समझा जाए ।

18 जून 2009

इस ‘सिरफुटव्वल’ का भी अपना ही मजा है

कल की मेरी पोस्ट ‘मुझे ‘चोर’ कहने का शुक्रिया ’ पर एक टिप्पणी आई है । टिप्पणी उन्हीं मित्र ‘समय’ की थी जिनकी टिप्पणी का जिक्र मैंने नाम लिए बिना किया । भले मानुष हैं, सो पुनः टिप्पणी भेजकर उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि ठेस पहुंचाना उनका उद्देश्य नहीं था । समय जी को संबोधित मौजूदा पोस्ट भी मैं महज इसीलिए लिख रहा हूं कि टिप्पणी का अनुकूल-प्रतिकूल होना मुद्दा नहीं है । हमने तो केवल दो तरफा संवाद के जरिए मुद्दे पर बहस को आगे बढ़ाने के लिए लिखा था और फिर उसी कवायद के तहत लिख रहे हैं ।
भाई समय जी ! आपने सीधे-सीधे शब्दों में क्षमा याचना कर जहां अपने बड़प्पन का परिचय दिया है, वहीं कहीं न कहीं मुझ में भी एक शर्मिंदगी के अहसास को उभारा है क्योंकि मैंने इस उद्देश्य से यह पोस्ट कत्तई नहीं लिखा था कि कोई मुझसे खेद प्रकट करे। न ही कोई व्यक्तिगत पीड़ा की बात थी । इसीलिए चोर शब्द का इस्तेमाल भी मैंने इनवर्टेड क्वामाज़ में विशेष अर्थों में ही किया था । मैंने तो दोनों ही टिप्पणीकारों को न कोई दोष दिया, उनके नाम का जिक्र तक नहीं किया था किया । महज इसलिए कि न तो मैं बात को व्यक्तिगत स्तर पर ले रहा था, न अपनी ओर से ले जाना चाहता था । उल्टे मैंने शुक्रिया अदा किया कि आपकी टिप्पणी के बहाने मेरी शुरू की बहस कहीं न कहीं आगे बढ़ी है । आपका कहना है कि आप का भी यही उद्देश्य था टिप्पणी के पीछे तो फिर ऐसे में हममे-आपमें कहां कोई विभेद या विरोध रह जाता है । अंतर केवल दृष्टिकोणों और समझ का है और मेरी समझ में नजरियों में यह फर्क होना अच्छी बात है । यह तो होना ही चाहिए । वर्ना हर आदमी एक ही लाइन पर सोचने लगे, एक ही राग गाने लगेगा तो विविधता और विचारों की नवीनता भला कहां रह जाएगी ।
मुझे व्यक्तिगत ठेस की ग्लानि आप अपने मन से निकाल दें क्योंकि मैं भी जानता हूं ऐसा उद्देश्य आपका नहीं रहा होगा । मैंने केवल इस बात पर आपत्ति जताई थी कि ‘पुरस्कार होंगे तो तिकड़में तो होंगी ही’ क्योंकि इस वाक्य से कहीं न कहीं इन तिकड़मों को स्वीकृति मिलती सी लग रही थी कि यह होगा तो वह तो होगा ही । हालांकि आपने इसकी व्याख्या मनुष्य की महत्वाकांक्षा और स्वाभाविक प्रवृत्तियों से जोड़ते हुए कुछ अलग ढंग से की है । भाई इस प्रवृत्ति पर ही तो मैं चोट करना चाहता था, यही तो मेरा आशय था कि हिन्दी की दुनिया में पुरस्कारों की तिकड़में बहुत ज्यादा हैं इसलिए नोबेल और बुकर जैसा पुरस्कार बनाया जाए जिसकी चयन प्रक्रिया में इन सबकी इतनी गुंजाइश ही न रह जाए । हालांकि यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि इन दोनों पुरस्कारों की चयन प्रक्रिया भी विवादों से पूरी तरह बरी नहीं है, पर वहां जोड़-तोड़ वैचारिक आग्रह-दुराग्रहों को लेकर ही ज्यादा होती है व्यक्तिगत आधार पर नहीं । जबकि इधर हिन्दी के पुरस्कारों में व्यक्तिगत लाबींग का काफी बोलबाला दिखता है । इसलिए मैंने यह बात कही थी ।
लेखन के उद्देश्यों की आपने जो बात की है मैंने उसका जिक्र जानबूझ कर इसलिए नहीं किया था कि यह अपने आपमें एक व्यापक बहस का विषय है । आपने लेखन का उद्देश्य स्वांतःसुखाय और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की अभिलाषा से परे होने की बात कही है, इससे मैं भी सौ फीसदी सहमत हूं कि आदर्श स्थिति तो यही है, बस थोड़ा अलग मैं यह कहता हूं कि यदि आदमी सम्मान की अभिलाषा में भी कुछ अच्छा लिख रहा है तो वह कोई अपराध नहीं कर रहा क्योंकि सम्मान की प्यास और लोगों के ध्यानाकर्षण की प्रवृत्ति मनुष्य के मूल स्वभाव में है । खैर ! जैसाकि मैंने कहाकि यह अपने आप में एक अलहदा और लंबी बहस है, फिर कभी । अंत में बस इतना ही कि आपको माफी मांगने या आत्मग्लानि की कोई आवश्यकता नहीं, उल्टे बहस को आगे बढ़ाने के लिए साधुवाद । जारी रखें ऐसा ही सार्थक संवाद क्योंकि ऐसे सवालों पर हम-आप जैसे लोग सिर टकराएंगे तभी तो यह मुद्दे उठेंगे, आकार लेंगे । इसलिए आओ प्यारे सिर टकराएं !

इस ‘सिरफुटव्वल’ का भी अपना ही मजा है

कल की मेरी पोस्ट ‘मुझे ‘चोर’ कहने का शुक्रिया ’ पर एक टिप्पणी आई है । टिप्पणी उन्हीं मित्र ‘समय’ की थी जिनकी टिप्पणी का जिक्र मैंने नाम लिए बिना किया । भले मानुष हैं, सो पुनः टिप्पणी भेजकर उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि ठेस पहुंचाना उनका उद्देश्य नहीं था । समय जी को संबोधित मौजूदा पोस्ट भी मैं महज इसीलिए लिख रहा हूं कि टिप्पणी का अनुकूल-प्रतिकूल होना मुद्दा नहीं है । हमने तो केवल दो तरफा संवाद के जरिए मुद्दे पर बहस को आगे बढ़ाने के लिए लिखा था और फिर उसी कवायद के तहत लिख रहे हैं ।
भाई समय जी ! आपने सीधे-सीधे शब्दों में क्षमा याचना कर जहां अपने बड़प्पन का परिचय दिया है, वहीं कहीं न कहीं मुझ में भी एक शर्मिंदगी के अहसास को उभारा है क्योंकि मैंने इस उद्देश्य से यह पोस्ट कत्तई नहीं लिखा था कि कोई मुझसे खेद प्रकट करे। न ही कोई व्यक्तिगत पीड़ा की बात थी । इसीलिए चोर शब्द का इस्तेमाल भी मैंने इनवर्टेड क्वामाज़ में विशेष अर्थों में ही किया था । मैंने तो दोनों ही टिप्पणीकारों को न कोई दोष दिया, उनके नाम का जिक्र तक नहीं किया था किया । महज इसलिए कि न तो मैं बात को व्यक्तिगत स्तर पर ले रहा था, न अपनी ओर से ले जाना चाहता था । उल्टे मैंने शुक्रिया अदा किया कि आपकी टिप्पणी के बहाने मेरी शुरू की बहस कहीं न कहीं आगे बढ़ी है । आपका कहना है कि आप का भी यही उद्देश्य था टिप्पणी के पीछे तो फिर ऐसे में हममे-आपमें कहां कोई विभेद या विरोध रह जाता है । अंतर केवल दृष्टिकोणों और समझ का है और मेरी समझ में नजरियों में यह फर्क होना अच्छी बात है । यह तो होना ही चाहिए । वर्ना हर आदमी एक ही लाइन पर सोचने लगे, एक ही राग गाने लगेगा तो विविधता और विचारों की नवीनता भला कहां रह जाएगी ।
मुझे व्यक्तिगत ठेस की ग्लानि आप अपने मन से निकाल दें क्योंकि मैं भी जानता हूं ऐसा उद्देश्य आपका नहीं रहा होगा । मैंने केवल इस बात पर आपत्ति जताई थी कि ‘पुरस्कार होंगे तो तिकड़में तो होंगी ही’ क्योंकि इस वाक्य से कहीं न कहीं इन तिकड़मों को स्वीकृति मिलती सी लग रही थी कि यह होगा तो वह तो होगा ही । हालांकि आपने इसकी व्याख्या मनुष्य की महत्वाकांक्षा और स्वाभाविक प्रवृत्तियों से जोड़ते हुए कुछ अलग ढंग से की है । भाई इस प्रवृत्ति पर ही तो मैं चोट करना चाहता था, यही तो मेरा आशय था कि हिन्दी की दुनिया में पुरस्कारों की तिकड़में बहुत ज्यादा हैं इसलिए नोबेल और बुकर जैसा पुरस्कार बनाया जाए जिसकी चयन प्रक्रिया में इन सबकी इतनी गुंजाइश ही न रह जाए । हालांकि यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि इन दोनों पुरस्कारों की चयन प्रक्रिया भी विवादों से पूरी तरह बरी नहीं है, पर वहां जोड़-तोड़ वैचारिक आग्रह-दुराग्रहों को लेकर ही ज्यादा होती है व्यक्तिगत आधार पर नहीं । जबकि इधर हिन्दी के पुरस्कारों में व्यक्तिगत लाबींग का काफी बोलबाला दिखता है । इसलिए मैंने यह बात कही थी ।
लेखन के उद्देश्यों की आपने जो बात की है मैंने उसका जिक्र जानबूझ कर इसलिए नहीं किया था कि यह अपने आपमें एक व्यापक बहस का विषय है । आपने लेखन का उद्देश्य स्वांतःसुखाय और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की अभिलाषा से परे होने की बात कही है, इससे मैं भी सौ फीसदी सहमत हूं कि आदर्श स्थिति तो यही है, बस थोड़ा अलग मैं यह कहता हूं कि यदि आदमी सम्मान की अभिलाषा में भी कुछ अच्छा लिख रहा है तो वह कोई अपराध नहीं कर रहा क्योंकि सम्मान की प्यास और लोगों के ध्यानाकर्षण की प्रवृत्ति मनुष्य के मूल स्वभाव में है । खैर ! जैसाकि मैंने कहाकि यह अपने आप में एक अलहदा और लंबी बहस है, फिर कभी । अंत में बस इतना ही कि आपको माफी मांगने या आत्मग्लानि की कोई आवश्यकता नहीं, उल्टे बहस को आगे बढ़ाने के लिए साधुवाद । जारी रखें ऐसा ही सार्थक संवाद क्योंकि ऐसे सवालों पर हम-आप जैसे लोग सिर टकराएंगे तभी तो यह मुद्दे उठेंगे, आकार लेंगे । इसलिए आओ प्यारे सिर टकराएं !

17 जून 2009

मुझे ‘चोर’ कहने का शुक्रिया

दो-चार दिन पहले की ही बात है । अपने ब्लाग पर आयी टिप्पणियां देख रहा था । चिरकुटों के चंगुल में हिन्दी शीर्षक से लिखी गई लेखमाला की तीसरी और अंतिम कड़ी पर आई दो टिप्पणियां कुछ ‘अलग’ सी दिखीं । अलग सी इसलिए कह रहा हूं कि अच्छा-बुरा, सही-गलत कहना मेरे लिए ठीक नहीं होगा । ब्लाग में मैने अपने विचार रखे तो कमेंट करने वालों ने अपनी बात कहीं । अब इसपर सहमति-असहमति तो हो सकती है, पर अपनी बात को सही और दूसरे की बात को गलत कहना अनुचित ही नहीं अलोकतांत्रिक भी होगा और फिर ब्लाग खोल रखा है तो अनुकूल-प्रतिकूल सभी कुछ देखने-बर्दाश्त करने का माद्दा रखना चाहिए । इसी के मद्देनजर मैं चार-पांच दिन इन दोनों टिप्पणियों पर कुछ कहने से बचता रहा कि तात्कालिक प्रक्रिया या आवेग में कुछ बेजा न लिख बैठूं । मैंने खुद को हफ्ते भर का समय भी दे दिया कि सप्ताह भर बाद फिर इन टिप्पणियों को देखूंगा और फिर इस पर कुछ लिखने की जरूरत महसूस हुई तो ठंडे और सुलझे दिमाग से लिखा जाएगा ।
शायद अपने खड़े किए इस संयम के बांध का ही यह नतीजा है कि दो महाशयों द्वारा खुद मुझे ही कठघरे में खड़ा किये जाने पर भी मैं उनसे झगड़ने के बजाय उनका शुक्रिया अदा करना चाह रहा हूं । शुक्रिया, दबे-छिपे मुझे ‘चोर’ कहने का । जो हुआ, एक तरह से ठीक ही हुआ कि दोनों साथियों के मन का गुबार भी निकल गया और मेरी बात भी आगे बढ़ गई । दरअसल अपनी इस लेखमाला में मैंने हिन्दी की दुर्दशा के व्यावहारिक कारणों की पड़ताल और चर्चा करने का प्रयास किया था । हिन्दी अखबारों, पत्रिकाओं में होने वाले ओछेपन, बड़े लेखकों की तंगदिली, से होती हुई चर्चा पहंुची थी हिन्दी में नोबेल और बुकर जैसा बड़ी इनाम राशि वाला कोई पुरस्कार न होने पर पहुंची थी। इसके अलावा मौजूदा पुरस्कारों के लिए होने वाली तिकड़मों का जिक्र भी मैने किया था ।
मेरा कहना था कि हम हिन्दी वालों को भी मिलकर एक ऐसा पुरस्कार शुरू करना चाहिए । क्योंकि पुरस्कार से जुड़ा सम्मान अपनी जगह होता है, पर उसकी धनराशि का भी अपना महत्व होता है । मैंने उदाहरण दिया था कि अपना पहला और एकमात्र उपन्यास गाड आफ स्माल थिक्स लिखकर ही अरुंधती राय को बुकर पुरस्कार में इतने पैसे मिल गए कि उन्हें कम से कम आजीविका के लिए संघर्ष करने की जरूरत नहीं और वह चाहें तो रोटी की जद्दोजहद से बेफिक्र होकर पूरी तल्लीनता से रचना कर्म में खुद को डुबो सकती हैं । अब मेरा यह सुझाव एक महाशय को न जाने क्यों इतना नागवार गुजर गया मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं । अपनी टिप्पणी में उन्होंने लिखा है कि ‘ पुरस्कार होंगे तो तिकड़म तो होगी ही । पुरस्कारों की चर्चा करते-करते आप भी आखिरकार पुरस्कार के चक्कर में पड़ गए’ ।
अरे भइया ! कौन सा पुरस्कार मांग लिया मैंने आपसे या किसी से यह बात कह कर, जरा बताइये तो सही ! और अगर आप यह कहना चाह रहे हैं कि मैं यह सब कोई पुरस्कार पाने के लिए लिख रहा हूं तो भई जरा बताइये कि लेख की किस पंक्ति, किस शब्द से आप इस निष्कर्ष पर पहुंचे, कहां से मिला आपको यह ‘महाज्ञान’ । चलिए इसपर अपनी आपत्ति को दरकिनार करते हुए यह भी मान लिया जाए कि मैं पुरस्कार के लिए लिख रहा हूं तो इसमें कौन सा गुनाह है बड़े भाई ! आदमी अगर समाज में सम्मान चाहता है, अपने कृतित्व के जरिए तो उसे भी आप कुफ्र साबित करने पर क्यों तुले हैं । स्वाभिमान और सम्मान की यह प्यास ही तो आदमी को आदमी बनाती है । वर्ना दोपाये-चैपाये में फर्क ही क्या है हुजूर !
अब आते हैं दूसरे सज्जन की टिप्पणी पर । नाम इनका भी नहीं लूंगा क्योंकि इनसे भी कोई विरोध या वैमनस्य नहीं है मेरा, मात्र वैचारिक असहमति जताना चाहता हूं । डाक्टरेटधारी इन भाई साहब ने लिखा कि ‘बोल बाबा की जय, ये तिकड़म-तिकड़म क्या है ! जिसने पाया, उसने जाना’ । इनका कमेंट था पुरस्कारों के लिए की जाने वाली तिकड़मों पर कही गई मेरी बात पर ! पढ़कर गुस्सा बाद में आया, हंसी पहले, वह भी भरपूर । बोल बाबा की जय - - - क्या मदारीपना है यह ! जिसने पाया उसने जाना तो भई ठीक है कल को रिश्वत लेने वाला भी कह देगा कि बोल बाबा की जय जिसने पाया, उसने जाना, यह भ्रष्टाचार-वष्टाचार क्या है !
आखिरकार एकबार फिर वही बात कहना चाहूंगा कि यह पोस्ट मैं इन टिप्पणियों पर आपत्ति जताने के लिए नहीं लिख रहा हूं । यह सब तो ब्लागिंग का हिस्सा है, चलता रहता है । मेरा ऐतराज इस बात को मान्यता देने से है कि पुरस्कार होंगे तो तिकड़म तो होगी ही । अरे भाई पुरस्कारों को प्रतिभा से जोड़िये, सृजनात्मकता से जोड़िये, विचारों की नवीनता से जोड़िये । तिकड़म से क्यों उसका ‘नैसर्गिक संबंध’ स्थापित कर रहे हैं । इसके अलावा पुरस्कारों के लिए होने वाली तिकड़म को यह कह कर दरकिनार कर देना कि यह तिकड़म-विकड़म क्या है, जिसने पाया, उसने जाना, मेरी समझ से हास्यास्पद ही नहीं समस्या से मुंह चुराने जैसा । ठीक उसी तरह जैसे खतरा दिखने पर शुतुमुर्ग रेत में अपना सिर गाड़ लेता है, खुदको बचाने का उपाय करने के बजाए । तो ऐसा शुतुमुर्गी खेल मत खेलिए भाई लोग ।

16 जून 2009

अविनाश का यह पाखंड !

परसों मोहल्ला से भेजा गया अविनाश का एक पोस्ट ब्लागवाणी पर देखा । ‘बेढंगे कपड़े पहनना, मुसीबत को बुलावा’ या ऐसे ही किसी शीर्षक से मोहल्ला पर पूर्व में प्रदर्शित एक पोस्ट के बारे में थी यह पोस्ट । अविनाश ने इस पोस्ट को फालतू करार देते हुए इसे मोहल्ला से बेदखल करने का निर्णय सुनाया था । कुछ इस अंदाज में कि मैं यहां का राजा हूं, तुम्हारी बातें मुझे पसंद नहीं आई, लो देश निकाला । उक्त पोस्ट को पूरा पढ़ा तो मैंने भी नहीं था, क्योंकि हेडिंग से ही इसमें एक वैचारिक सस्तापन नजर आया था । पर मेरे पढ़ने न पढ़ने की बात अलग है क्योंकि यह न तो मेरे ब्लाग पर आया था न ही मैने इसे हटाने की घोषणा की थी ।
बहरहाल! यहां मुद्दा है पोस्ट को ‘फालतू’ करार देकर किसी ब्लागर को अपमानजनक ढंग से बाहर कर देने की । हेडिंग से ही आभास होता हैे कि पोस्ट में लड़कियों को चुस्त और छोटे कपड़े न पहनने की नसीहत देते हुए लड़कियों के ‘बेढंगे’ पहनावे को ही छेड़खानी आदि की वजह बताया गया होगा । ठीक है कि वैचारिक स्तर पर यह बात सस्ती लगती है और इसे सामाजिक रूप से मान्यता नहीं दी जा सकती । पर यहां इसे मान्यता देने का तो कोई सवाल ही नहीं था । सीधी सी बात थी अविनाश ने मोहल्ला पर लोगों को खुद ही अपने विचार व्यक्त करने की दावत दे रखी है । इसी के तहत एक आदमी ने अपने विचार व्यक्त किए । अब जरूरी तो नहीं कि यह आपकी सोच के अनुरूप हो और अगर यही आपका एटीट्यूट है तो फिर काहे को लोगों को बुलाते हो भई विचार व्यक्त करने को । खुद लिखते रहो अगड़म-बगड़म और अपने को मानते रहो ‘बड़का बुद्धिजीवी’ । रही बात पोस्ट को बेहूदा करार देने की तो अविनाश खुद जो लिखते-पेश करते रहते हैं वह भी अकसर कम बेहूदा नहीं होता । कुछ दिन पहले अविनाश ने ज्ञानोदय में छपी एक कविता पेश की कि ‘हमारे देवताओं को जननेद्री नहीं होती’ । ज्ञानोदय में यह कविता मैने भी पढ़ी थी और मुझे भी पसंद आई थी । पर हमारे देश का जो मानस है उसमें बहुत से लोगों को यह आपत्तिजनक ही नहीं, भड़काउ भी लग सकती है, इसके बावजूद अविनाश ने इसे ब्लाग पर पेश किया । दूसरी ओर बेढंगे कपड़ों की बात को उन्होंने बेहूदा करार दे दिया, जबकि सामाजिकता और व्यावहारिकता के लिहाज से देखें तो इस बात को सिरे से दरकिनार नहीं किया जा सकता । हमारे देश में शिक्षा को जो स्तर है, लोगों की संकुचित सोच और संकीर्ण संस्कार है, इससे भी बढ़कर दोहरा चरित्र है, उसके मद्देनजर तो यह एक व्यावहारिक ठहरती हैं । कहीं न कहीं एक सामाजिक हकीकत तो है ही इसमें । लड़कियों के रात में घर से बाहर निकलने को लेकर भी ऐसी ही सोच है हमारे समाज में कि रात में बाहर मत निकलो, अकेले तो कतई नहीं । अब इस बात को ठीक भले न माना जा सकता हो पर इससे जुड़े खतरों को अनदेखा तो नहीं किया जा सकता । एक ओर दिल्ली, मुंबई, बंगलोर, चंडीगढ़ जैसे महानगरों में बड़ी सख्या में लड़कियां काॅल सेंटर जैसी लाइन में नाइट शिफ्ट में काम करती हैं । इससे इतर भी देश की एक अपनी हकीकत है और यह हकीकत इस खुशनुमा तस्वीर से कहीं बड़ी है कि देश में आमतौर पर पढ़े-लिखे लोगों के घरों में भी लोग आम तौर पर लड़कियों को रात में बाहर जाने देने से हिचकिचाते हैं । तो इसे आप एक ‘बेहूदा विचार’ कह कर लिखने वाले को अपमानित करो, यह तो निरी तानाशाही है, कोरा पाखंड है। भई पहले जरा अपने गिरेबान में झांको कि तुम क्या लिखते रहते हो उल्टा-सीधा, खुद को नारीवादी, उत्तर-आधुनिक साबित करने के लिए । खुद को राजेन्द्र यादव के टक्कर का साबित करने के लिए लोगों की धार्मिक आस्थाओं को आहत करने से भी नहीं चूकते और दूसरों की व्यावहारिक बात को भी इस बदतमीजी के साथ बेहूदा और फालतू करार देते हो । क्या फालतू है, क्या अच्छा, पढ़ने को खुद ही फैसला करने दो । आयोजक की भूमिका में रहो, न्यायाधीश क्यों बन रहे हो भई ! और यदि सोच का दायरा इतना ही संकरा है तो फिर ऐसा इंतजाम करो कि पोस्ट को देखने के बाद ही उसे ब्लाग पर प्रकाशित करो । प्रकाशित करने के बाद उसे बेहूदा करार देने की बात शोभा नहीं देती, खासकर उस आदमी पर जो आए दिन खुद ही बेहद फालतू की चीजे लिखता रहता है, उस आदमी पर जिसे माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय और दैनिक भास्कर से - - - । खैर ! जाने दीजिए व्यक्तिगत मामलों पर मैं उतरना नहीं चाहता । कहना बस इतना ही है कि दूसरों को आईना दिखाने से पहले अविनाश आईने में अपना चेहरा देखें ।

13 जून 2009

ठीक कहा था डार्विन तुमने

ठीक कहा था डार्विन तुमने,
सदियों पहले, ठीक कहा था ।
विज्ञान की आड़ में छुप कर,
समाज का गहरा-नंगा सच ।

दुरुस्त थीं सौ फीसदी,
अनुकूलन-प्राकृतिक चयन की
तुम्हारी दोनों ही अवधारणाएं
और सटीक था एकदम
योग्यतम की उत्तरजीविता का
वह विश्वव्यापी सिद्धांत ।

फलसफा कि जीने के लिए
चुना जाता है उन्हीं को बस
जो होते हैं समाज में ‘योग्यतम’ ।
कि ‘योग्यता’ ही तो बन गया है आज
मेमने की खाल ओढ़कर बैठ जाना,
आदमी होकर भी भेड़ सरीखा मिमियाना ।

हंसते-खेलते सीख ले जो
मिमियाने की यह कला ।
वही है सबसे क़ाबिल
वही है सबसे ‘अनुकूल’।
उसी को चुनेगी ‘व्यवस्था’
उसी को देगी फूल ।

उसी को चुनेगी ‘व्यवस्था’
कि खालिस आदमी चुनने में
छिपे पड़े हैं खतरे बेशुमार ।
खतरा आवाज उठाने जाने का,
खतरा अपना दिमाग चलाने का
और इस सबसे कहीं बढ़कर
खतरा खुद काबिज हो जाने का ।
इसीलिए आदमी से मेमना ही भला है।
वाकई ‘अनुकूलन’ ही आज
आदमी की सबसे बड़ी कला है ।

पूजा भी बनी प्रमोशनल इवेंट !

अखबार में छपी कुछ तस्वीरों ने बरबस ही आकर्षित किया । तस्वीरें थीं हालीवुड की सुपर माॅडल क्लाउडिया की । अरे गलत मत सोचिए भाई ! बिकिनी-स्वीमिंग कास्ट्यूम में देह उधाड़ू फोटो सेशन की नहीं थीं यह तस्वीरें । इस सबके उलट क्लाउडिया साड़ी में ढकी-मुंदी सी नजर आ रही थीं । यही नहीं हाथ में पूजा का थाल भी था । दिल्ली में अपनी फिल्म कर्मा की शूटिंग के लिए आई क्लाउडिया पहुंचीं थीं गणेश जी के मंदिर में । एक फोटो आरती उतारते हुए । एक घंटी बजाते हुए और एक बच्चों को प्रसाद बांटते हुए । पूरी तरह भारतीय संस्कृति के रंग में रंगी नजर आ रही थी यह सुपर माॅडल । क्या कहेंगे आप इस पर ! यही न, कि हमारी संस्कृति का प्रभाव है ही ऐसा कि जो भी जो भी आता है इसके रंग में रंग जाता है । बस यहीं मात खा गए जनाब ! कोई संस्कृति और अध्यात्म का रंग-वंग नहीं है यहां । मामला पूरी तरह प्रोफेशनल है । दरअसल यह फिल्म निर्माताओं द्वारा आयोजित एक प्रमोशनल इवेंट था । तो भई ! नाच-गाने, फैशन शो, फोटो सेशन और प्रेस कांफें्रस के बाद अब पूजा-अर्चना भी प्रमोशनल इवेंट बन गई ।
ये विज्ञापन और पीआर वाले जो करें सो कम जानिए । इन्हें अच्छी तरह पता है कि आदमी की भावनाओं को छुओ तो बात दिल तक असर करेगी । उन्हें पता है कि धर्म-अध्यात्म, मंदिर, पूजा, प्रसाद, घंटी, आरती यह सब चीजें हमारे देश की बहुसंख्यक आबादी के दिमाग ही नहीं दिल और आत्मा से जुड़ी चीजें हैं । सो, इसी निशाने पर ‘मार’ करने के लिए किया गया ‘प्रमोशनल पूजा’ का आयोजन । पुरानी कहावत है कि जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो दूसरे को क्या दोष दें । वही बात यहां भी लागू होती है । यह कम से कम बेचारी क्लाडिया का आइडिया तो नहीं रहा होगा । फिल्म के प्रचार प्रसार से जुड़े हमारे किसी भारतीय पब्लिसिटी गुरू के दिमाग में ही उपजा होगा यह ‘नेक ख्याल’ । इस पर तुर्रा यह कि आलोचना कीजिए तो कहेंगे कि हमतो भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं । विदेशियों तक को इसके रंग में सराबोर कर रहे हैं । इससे हालीवुड तक बिखर जाएगी हमारी संस्कृति की सुगंध । ज्यादा कहिएगा तो पूजा के बाद पांच हजार भूखे-नंगों को प्रसाद बंटवा देंगे, लंगर खिलवा देंगे । हो गया न आपका मुंह बंद ! बोलिए अब क्या बोलियेगा ! तो इस तरह काम करता है इनका तंत्र । पैसा, संस्कृति, रुतबा, सेटिंग सबकुछ है इनके पिटारे में । जहां जैसी जरूरत पड़ी मुंह पर फेक कर करा देंगे बोलती बंद । आजकल भगवान से भी बढ़कर है इनकी महिमा ।

12 जून 2009

ठीक कहा था डार्विन

ठीक कहा था डार्विन तुमने,
सदियों पहले, ठीक कहा था ।
विज्ञान की आड़ में छुप कर,
समाज का गहरा-नंगा सच ।

दुरुस्त थीं सौ फीसदी,
अनुकूलन-प्राकृतिक चयन की
तुम्हारी दोनों ही अवधारणाएं
और सटीक था एकदम
योग्यतम की उत्तरजीविता का
वह विश्वव्यापी सिद्धांत ।

फलसफा कि जीने के लिए
चुना जाता है उन्हीं को बस
जो होते हैं समाज में ‘योग्यतम’ ।
कि ‘योग्यता’ ही तो बन गया है आज
मेमने की खाल ओढ़कर बैठ जाना,
आदमी होकर भी भेड़ सरीखा मिमियाना ।

हंसते-खेलते सीख ले जो
मिमियाने की यह कला ।
वही है सबसे क़ाबिल
वही है सबसे ‘अनुकूल’ ।
उसी को चुनेगी ‘व्यवस्था’
उसी को देगी फूल ।

उसी को चुनेगी ‘व्यवस्था’
कि खालिस आदमी चुनने में
छिपे पड़े हैं खतरे बेशुमार ।
खतरा आवाज उठाने जाने का,
खतरा अपना दिमाग चलाने का
और इस सबसे कहीं बढ़कर
खतरा खुद काबिज हो जाने का ।
इसीलिए आदमी से मेमना ही भला है।
वाकई ‘अनुकूलन’ ही आज
आदमी की सबसे बड़ी कला है ।

11 जून 2009

बहस को गलत दिशा में मत मोड़िये हुजूर

भई मसिजीवी जी ! बातों को गलत आलोक में न लें । न तो महिलाओं के लिए विधायिका में आरक्षण का मैं विरोध कर रहा हूं न ही यह कह रहा हूं कि विनय कटियार जो कह रहे हैं वही शब्दशः सही है और वही होना चाहिए । मैंने महज यह सवाल उठाया है कि इसका असल लाभ महिलाओं के किस वर्ग को मिलेगा । बात को होलिस्टिक एप्रोच से देखा जाए तो कहने का तात्पर्य महज इतना है कि महिला सशक्तीकरण की सारी कवायदें इस तरह होनी चाहिए कि इसका लाभ महज ऐसे वर्ग तक सीमित न रह जाए जो पहले से ही सक्षम और संपन्न है, बल्कि ऐसी जरूरतमंद महिलाओं तक पहुंचे जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा दरकार है । बात को और सरलीकृत करू तो मान लीजिए कि मिठाई बंटनी है तो वितरण की प्रक्रिया शुरू करने से पहले ही ऐसे उपाय कर दिए जाएं कि पहले लड्डू उनको मिलें जिन्हें अबतक नहीं मिले हैं नकि उनको जो पहले से ही दर्जन भर हजम कर चुके हैं और फिर लाइन में खड़े हो गए है । व्यावहारिक रूप में ऐसा होने की संभावना ही ज्यादा रहती है क्योंकि पहले लड्डू पाने वाले उसे पाने की कला से परिचित और सिद्धहस्त होते हैं । ऐसे में वितरण के लाभ में उनके भी शुमार हो जाने से कहीं न कहीं जरूरतमंदों का हक मारा जाएगा । बस इतना ही आशय है हमारा भाई, वर्ना कौन सा हम चुनाव लड़ने जा रहे हैं कि महिलाओं के लिए कोई सीट आरक्षित हो जाएगी तो हमारा टिकट कट जाएगा । रही बात आपके सवाल की कि कब कौन सी सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हुई तो कहना महज इतना है कि हम कोई लिस्ट लेकर नहीं बैठै हैं भई । एससी-एसटी के लिए कुछ सीटें आरक्षित हैं वही भी बदलती रहती हैं, जहां तक हमें याद पड़ता है कि इसी आरक्षण के भीतर कुछ सीटें संभवतः महिलाओं के लिए भी थीं । या चलिए मेरी याददाश्त में खामी भी हो सकती है तो विधानसभा, लोकसभा की बात छोड़ दें, नगर निगम और पंचायत में तो महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित थीं । इससे समाज में क्या बदलाव आया । मेरे अपने वार्ड में सीट आरक्षित थी तो हुआ यह कि सभी पुराने उम्मीदवारों ने अपनी पत्नियों से पर्चे भरवा दिए । प्रचार से लेकर चुनावी संग्राम तक पतिदेव ही हावी रहे । चुनाव के पोस्टरों तक पर उम्मीरवार पत्नी का नाम बहुत छोटे अक्षरों में था फोटो में पतिदेव ही हाथ जोड़े-मुस्कराते नजर आ रहे थे । नाम भी उनका ही चमक रहा था । पुराने पार्षद की पत्नी के चुनाव जीतने के बाद भी यही जारी रहा । पत्नी महज कागजों पर पार्षद थी, कागजों पर दस्तखत करने भर को उसमें भी इंकार का विकल्प उस बेचारी के पास नहीं था । क्या यह किसी लोकतांत्रिक सुधार प्रक्रिया के साथ मजाक नहीं हुआ ! लालू-राबड़ी का उदाहरण भी इसी की इन्तेहा को दर्शाने के लिए मैने दिया, नकि इसके जरिए यह कहा कि महिलाओं को आरक्षण देना एक फालतू बात है, इससे कोई लाभ नहीं होगा । लाभ क्यों नहीं होगा भाई, जरूर होगा, जरूर मिलना चाहिए महिलाओं को आरक्षण और 33 प्रतिशत क्यों आधी आबादी को 50 फीसदी आरक्षण दीजिए । बस इतना सुनिश्चित कर लीजिए कि इसका फायदा समाज के निचले तबके तक पहुंच जाए क्योंकि तभी समानता आधारित समाज का हम निर्माण कर पाएंगे । इसलिए हे मसिजीवी ! तथ्यों और विवेचनाओं को लेकर बहस को गलत दिशा में मत मोड़ें क्योंकि सामाजिक सच्चाइयों को इस तरह नकारा नहीं जा सकता
‘किस वर्ग की महिलाएं आएंगी’ यह तर्क फूहड़ है और ‘जो पुरुष आ रहे हैं किस वर्ग से आ रहे हैं’ के जरिये क्या कहना चाह रहे हैं आप ! कि व्यवस्था में जो खामी वर्तमान में बनी हुई है वह आगे किए जाने वाले प्रावधानों और सुधारों में भी बनी रहे । जिस वर्ग के पुरुष आ रहे हैं ज्यादातर ठीक नहंी आ रहे हैं, यह बात तो सभी मानते हैं और इसमें सुधार की जरूरत भी शिद्दत से महसूस करते हैं । आश्चर्य है ! आप नए प्रावधानों में भी इसे जारी रखने की हिमायत कर रहे हैं यह कह कर कि अभी जो हो रहा है वह कौन सा सही है! तो आगे भी गलत होने दीजिए ! दूसरी बात तो अपने आप में विरोधाभासी है कि सांसद-विधायक अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने आएंगे लैंगिकता का नहीं । अरे भाई लैंगिकता के आधार पर आधारित सीट से अगर जीतकर आएंगे तो क्या यह लैंगिकता का प्रतिनिधित्व नहीं होगा तीसरी बात पासवान और यादव त्रयी की । इनको आप रोल माडल के रूप में पेश कर रहे हैं! कि खाने-अघाने के बाद भी यह दलितों के प्रतिनिधित्व का दावा कर रहे हैं तो आप
भी यही बेशर्मी करें । युक्तिसंगत तो यही है कि अबतक की व्यवस्थाओं में जो कमियां रह गई हैं वह आगे के सुधारों में जड़ न जमाने पाएं हमारा तो यही मानना है भाई । बाकी आपकी बौद्किता और आपकी व्याख्या आप ही जाने ।

महिला बिल पर बेवजह नहीं है तकरार

महिला आरक्षण बिल पर रार और तकरार दोनों ही बढ़ती जा रही हैं । महिलाओं को समाज में, सियासत में, सत्ता में आगे लाने की बात हर दृष्टि, हर लिहाज से सही है । इसका विरोध न किया जाना चाहिए न हो रहा है । पर बिल के स्वरूप और उसके प्रभाव-कुप्रभाव को लेकर गर्मागर्मी जारी है । भाजपा के फायरब्रांड महासचिव विनय कटियार ने भी बिल के विरोध में ताल ठोक दी है । आमतौर पर भड़काउू और बेमतलब की बात करने वाले कटियार की बात पहली बार मुझे दमदार लग रही है । कटियार ने दो बातें कही हैं । पहली यह कि महिला बिल पर पार्टियां व्हिप जारी न करें । दूसरी बात कि इस बिल से फायदा केवल सत्ता के गलियारों में दखल रखने वाली महिलाओं को ही फायदा मिलेगा । दिनभर पसीना बहाकर मछलियां पकड़ने वाली, चूल्हा जलाने को दुर्गम पहाड़ों पर लकड़िया चुनने वाली, रेगिस्तान में मीलों चल कर पानी भरने वाली महिलाओं को भला इससे क्या फायदा होगा !
पहले पहली बात । बिल पर वोटिंग के लिए व्हिप न जारी करने की बात इस लिहाज से दुरुस्त लगती है कि महज व्यवस्थागत और वैधानिक मुद्दे से बढ़कर यह एक सामाजिक मुद्दा है इसलिए इस पर पार्टी व्हिप के बंधन के बजाए हरेक की अपनी वैचारिक सहमति और अंतरात्मा की आवाज पर ही वोटिंग होनी चाहिए । वीमेन लिबरेशन के पैरोकार बेशक मुझे बेवकूफ करार देकर, इसपर मुझे लानतें भेज सकते हैं कि जिस सदन में पुरुषों का बहुमत है, वहां अंतरात्मा की आवाज पर महिला बिल भला कैसे पास हो सकेगा । पर मेरा कहना है कि जब आखिर महिला आरक्षण का विचार, बिल की रूपरेखा और उसे पेश करने की सारी कवायद तो इसी व्यवस्था के तहत हुई है तो फिर बिल पास क्यों नहीं हो सकता । इससे पहले भी स्थानीय निकायों से लेकर लोकसभा तक के चुनावों में चुनिंदा सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होती रही हैं । जिस व्यवस्था में इतना सबकुछ हो सकता है उसमें महिला बिल भी पास हो जाने में कोई दिक्कत नहीं नजर आती ।
दूसरी बात है कि इससे लाभ किसे मिलेगा । वास्तव में मुद्दे की बात यही है । विनय कटियार ने जिंदगी की जंग में रोज ब रोज जूझ रही सुदूर अंचलों की महिलाओं का उदाहरण दिया है । इसे छोड़ दें और हमारे अपने बीच की बात करें तो पाएंगे कि आरक्षण जब भी जिसे भी दिया गया उसका दुरोपयोग ही हुआ है और नकारात्मक नतीजे ही सामने आए हैं । जातिगत आरक्षण का फायदा आज भी महज उस वर्ग के पढ़े-लिखे और संपन्न लोग ही उठा रहे हैंे । एससी-एसटी आइएएस, पीसीएस, डाक्टर, इंजीनियर और कोटे के चलते नौकरी पाने वाले अन्य नौकरी पेशा लोगों की संताने ही इसके कारण शिक्षा और कैरियर दोनों क्षेत्रों में लाभान्वित हुई हैं । जूता गांठ रहे मोची, मछुआरे, मेहतर, सब्जीवाले, महरिन, कुम्हार जैसे काम करने वाले आज भी वहीं के वहीं बैठे जिंदगी की जद्दोजहद उसी तरह झेल रहे हैं जैसे वर्षों पहले झेल रहे हैं । सियासत में आरक्षण का भी यही हश्र हुआ । नगर निकायों और पंचायत के चुनावों में जो सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गईं उनका क्या हुआ । पिछली बार जो लोग मैदान में थे उन्होंने अपनी पत्नियों को खड़ कर दिया मुखौटा बनाकर । चुनाव पत्नी ने जीता पर असली प्रधान और सभासद पतिदेव ही हैं । पत्नी केवल कागजों पर दस्तखत करती है । लालू यादव के चारा घोटाले में आरोपित होने पर राबड़ी देवी के मुख्यमंत्री बनने सरीखा ही है यह सब । इसलिए महिला बिल पास हो जाने से समाज में जो बदलाव होने चाहिए ठीक वैसे ही परिवर्तन हो जाएंगे ऐसा मान लेना कहीं न कहीं हमारी नादानी होगी । मेरी समझ में आरक्षण से लाभ कम और नुकसान ज्यादा होते हैं इस मायने में कि सही लोगों तक इसका फायदा बिरले ही पहुंचता है और अवांक्षित लोगों के लाभान्वित होने से समाज में विषमता और दरार घटने के बजाय बढ़ती ही है ।

10 जून 2009

यह चीन की बदमाशी तो नहीं !

सुबह अखबार के पहले पन्ने पर खबर पढ़ी कि ‘वायुसेना के दो विमान अरुणाचल के जंगलों में गायब’ । वायुसेना के अधिकारियों के हवाले से समाचार में किसी तकनीकी खामी के चलते विमान के दुर्घटनाग्रस्त होकर जंगल में गिर जाने की आशंका जताई गई है । साथ ही अधिकारियों का यह भी कहना था कि मौसम खराब होने के चलते विमान की तलाश का अभियान नहीं चलाया जा सका । खबर के जरिए कुल मिलाकर जो मामला सामने आता है वह कहीं न कहीं संदेहजनक लगता है । मन में पहली शंका यही उठती है कि कहीं यह चीन का काम तो नहीं !
शंका की वजह यह है कि चीन अकसर ऐसी हरकतें करता रहता है और हमारी सरकार जाने क्यों ऐसे मामलों केा दबाने में ही भलाई समझती है । चीन के खतरनाक इरादे केवल आए दिन होने वाली ऐसी घटनाओं तक ही सीमित नहीं हैं । सीमांत क्षेत्र में वह कई ऐसी योजनाएं भी चला रहा है जो आगे चल कर निश्चित रूप से कहीं न कहीं हमारे देश की संप्रभुता के लिए खतरा बन सकती हैं ।
पिछले साल ओलंपिक के आयोजन की आड़ में चीन ने हिमालय की सीमावर्ती चोटियों तक एक राजमार्ग तैयार कर लिया और ओलंपिक की मशाल को यहां से गुजारा । इसके अलावा वह ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाने की महत्वाकांक्षी परियोजना भी बना रहा है जिससे निश्चित तौर पर भारत के हित प्रभावित होंगे । फिरभी इन मामलों पर भारत सरकार कभी मुखर होने या मामला अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाने की जहमत नहीं उठाई । दूसरी ओर भारतीय सीमा सड़क संगठन जब कभी भी सीमावर्ती इलाके में अपनी वर्षों पुरानी सड़कों की मरम्मत करने पहुंचता है, चीनी फौज न सिर्फ गोलीबारी शुरू कर देती है, बल्कि चीन सरकार सारी दुनिया में हाय-तौबा मचाना शुरू कर देती है ।
चीन के इस प्रोपोगंडे की इंतेहा का आलम तो यह रहा कि एक-दो महीने पहले राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर गईं तो उसने बाकायदा पत्र लिखकर इसपर भारत सरकार से स्पष्टीकरण मांग लिया । यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं, बहुत बड़ी बात थी, पर हमारी सरकार ने इसका जो जवाब दिया वह न केलव ‘ठंडा’ बल्कि बचकाना सा भी लगा । भारत सरकार ने महज इतना कहा कि चीन की यह चिंता ‘गैर-जरूरी’ है । मेरी समझ में कहा यह जाना चाहिए था कि हमारे देश का राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या कोई भी नागरिक देश में कहीं भी आ-जा सकता है, आप पूछने वाले कौन होते है ! ऐसे ‘फरमान’ चीन आए दिन जारी कर भारत से स्पष्टीकरण मांगता रहता है और हर बार हमारी सरकार मामले को जैसे-तैसे के अंदाज में निपटा देती है । सरकार के इस ढुलमुल रवैये के चलते ही हवाई जहाज गायब होने के मामले में चीन का हाथ होने की आशंका हो रही है और यह अगर सच भी निकल जाए तो बहुत आश्चर्यजनक नहीं होगीा । भारत को इन मामलों को अभी से ही बहुत गंभीरता से लेना चाहिए, वर्ना आगे चलकर चीन एकबार फिर 1962 की तरह अचानक पीठ में छुरा घोंप सकता है और एक बार फिर हम अपनी जमीन और सम्मान गंवा कर हाथ मलने को मजबूर हो सकते हैं ।
उस समय भी युद्ध कोई यकायक नहीं हो गया था । 1959 से ही चीन सीमा पर गोलाबारी कर रहा था पर नेहरू जी की सरकार ने इसे नजरअंदाज करते हुए और चीन के खतरनाक इरादों से अनजान बने रहकर पंचशील समझौता कर लिया । इसका खमियाजा हमें लाखों वर्गमील की अपनी जमीन और कहीं न कहीं राष्ट्रीय स्वाभिमान गंवाकर भुगतना पड़ा था । सन 59 में ही पहली बार गोलाबारी करने पर भारत ने माकूल जवाब दिया होता तो शायद आज यह नौबत न आती । उस समय भी सरकार को चेताया गया था, पर वह नहीं चेती । ख्यातिलब्ध कवि और गीतकार गोपाल सिंह नेपाली ने इसपर तत्कालीन सरकार को धिक्कारते हुए ‘हिमालय की हुंकार’ का यह गीत भी लिखा था -

है भूल हमारी, वह छुरी क्यों न निकाले
तिब्बत को अगर चीन के करते न हवाले
पड़ते न हिमालय के शिखर चोर के पाले
समझा न सितारों ने घटनाओं का इशारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा !

इस गीत की अगली पंक्तियां मौजूदा हालात में भी बहुत माकूल और प्रासंगिक लगती हैं कि -

इतिहास पढ़ो-समझो तो यह मिलती है शिक्षा
होती न अहिंसा से कभी देश की रक्षा
क्या लाज रही जबकि मिली प्राण की भिक्षा
यह हिन्द शहीदों का अमर देश् है प्यारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा !

चैराहे नहीं रहे अब वैसे

चैराहे नहीं रहे अब वैसे
पहले से अल्हड, ठहरे-ठहरे से
हर ओर मची है भागमभाग
आदमी भाग रहा है,
सडकें भाग रही हैं
पीछे-पीछे भाग रहा है चैराहा ।

नेता जी को जरूरत नहीं पड़ती,
आने की अब चैराहे पर
कि जनता से जुड़ने की
जरूरत ही नहीं रही
सियासत के रंग-ढंग
दोनों ही बदल चुकें हैं अब
नहीं करते वोट की राजनीति वह अब
बन गए हैं सत्ता के ‘फें्रचाइजी’
लड़ते नहीं चुनाव अब
करते हैं महज दलाली
लोकसभा-विधानसभा में,
विश्वास-अविश्वास मत पर
वोटिंग कराने, न कराने
सरकार बचाने की
सरकार गिराने की
करके जनता के विश्वास की हत्या
बन गए विश्वास-अविश्वास के दलाल
गलियां, सडकें, राजपथ
सब इनसे थर्राते है
पीछे-पीछे अब इनके भाग रहा है चैराहा
चैराहे नहीं रहे अब वैसे
पहले से अल्हड, ठहरे-ठहरे से ।