18 जून 2009

इस ‘सिरफुटव्वल’ का भी अपना ही मजा है

कल की मेरी पोस्ट ‘मुझे ‘चोर’ कहने का शुक्रिया ’ पर एक टिप्पणी आई है । टिप्पणी उन्हीं मित्र ‘समय’ की थी जिनकी टिप्पणी का जिक्र मैंने नाम लिए बिना किया । भले मानुष हैं, सो पुनः टिप्पणी भेजकर उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि ठेस पहुंचाना उनका उद्देश्य नहीं था । समय जी को संबोधित मौजूदा पोस्ट भी मैं महज इसीलिए लिख रहा हूं कि टिप्पणी का अनुकूल-प्रतिकूल होना मुद्दा नहीं है । हमने तो केवल दो तरफा संवाद के जरिए मुद्दे पर बहस को आगे बढ़ाने के लिए लिखा था और फिर उसी कवायद के तहत लिख रहे हैं ।
भाई समय जी ! आपने सीधे-सीधे शब्दों में क्षमा याचना कर जहां अपने बड़प्पन का परिचय दिया है, वहीं कहीं न कहीं मुझ में भी एक शर्मिंदगी के अहसास को उभारा है क्योंकि मैंने इस उद्देश्य से यह पोस्ट कत्तई नहीं लिखा था कि कोई मुझसे खेद प्रकट करे। न ही कोई व्यक्तिगत पीड़ा की बात थी । इसीलिए चोर शब्द का इस्तेमाल भी मैंने इनवर्टेड क्वामाज़ में विशेष अर्थों में ही किया था । मैंने तो दोनों ही टिप्पणीकारों को न कोई दोष दिया, उनके नाम का जिक्र तक नहीं किया था किया । महज इसलिए कि न तो मैं बात को व्यक्तिगत स्तर पर ले रहा था, न अपनी ओर से ले जाना चाहता था । उल्टे मैंने शुक्रिया अदा किया कि आपकी टिप्पणी के बहाने मेरी शुरू की बहस कहीं न कहीं आगे बढ़ी है । आपका कहना है कि आप का भी यही उद्देश्य था टिप्पणी के पीछे तो फिर ऐसे में हममे-आपमें कहां कोई विभेद या विरोध रह जाता है । अंतर केवल दृष्टिकोणों और समझ का है और मेरी समझ में नजरियों में यह फर्क होना अच्छी बात है । यह तो होना ही चाहिए । वर्ना हर आदमी एक ही लाइन पर सोचने लगे, एक ही राग गाने लगेगा तो विविधता और विचारों की नवीनता भला कहां रह जाएगी ।
मुझे व्यक्तिगत ठेस की ग्लानि आप अपने मन से निकाल दें क्योंकि मैं भी जानता हूं ऐसा उद्देश्य आपका नहीं रहा होगा । मैंने केवल इस बात पर आपत्ति जताई थी कि ‘पुरस्कार होंगे तो तिकड़में तो होंगी ही’ क्योंकि इस वाक्य से कहीं न कहीं इन तिकड़मों को स्वीकृति मिलती सी लग रही थी कि यह होगा तो वह तो होगा ही । हालांकि आपने इसकी व्याख्या मनुष्य की महत्वाकांक्षा और स्वाभाविक प्रवृत्तियों से जोड़ते हुए कुछ अलग ढंग से की है । भाई इस प्रवृत्ति पर ही तो मैं चोट करना चाहता था, यही तो मेरा आशय था कि हिन्दी की दुनिया में पुरस्कारों की तिकड़में बहुत ज्यादा हैं इसलिए नोबेल और बुकर जैसा पुरस्कार बनाया जाए जिसकी चयन प्रक्रिया में इन सबकी इतनी गुंजाइश ही न रह जाए । हालांकि यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि इन दोनों पुरस्कारों की चयन प्रक्रिया भी विवादों से पूरी तरह बरी नहीं है, पर वहां जोड़-तोड़ वैचारिक आग्रह-दुराग्रहों को लेकर ही ज्यादा होती है व्यक्तिगत आधार पर नहीं । जबकि इधर हिन्दी के पुरस्कारों में व्यक्तिगत लाबींग का काफी बोलबाला दिखता है । इसलिए मैंने यह बात कही थी ।
लेखन के उद्देश्यों की आपने जो बात की है मैंने उसका जिक्र जानबूझ कर इसलिए नहीं किया था कि यह अपने आपमें एक व्यापक बहस का विषय है । आपने लेखन का उद्देश्य स्वांतःसुखाय और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की अभिलाषा से परे होने की बात कही है, इससे मैं भी सौ फीसदी सहमत हूं कि आदर्श स्थिति तो यही है, बस थोड़ा अलग मैं यह कहता हूं कि यदि आदमी सम्मान की अभिलाषा में भी कुछ अच्छा लिख रहा है तो वह कोई अपराध नहीं कर रहा क्योंकि सम्मान की प्यास और लोगों के ध्यानाकर्षण की प्रवृत्ति मनुष्य के मूल स्वभाव में है । खैर ! जैसाकि मैंने कहाकि यह अपने आप में एक अलहदा और लंबी बहस है, फिर कभी । अंत में बस इतना ही कि आपको माफी मांगने या आत्मग्लानि की कोई आवश्यकता नहीं, उल्टे बहस को आगे बढ़ाने के लिए साधुवाद । जारी रखें ऐसा ही सार्थक संवाद क्योंकि ऐसे सवालों पर हम-आप जैसे लोग सिर टकराएंगे तभी तो यह मुद्दे उठेंगे, आकार लेंगे । इसलिए आओ प्यारे सिर टकराएं !

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