17 जून 2009

मुझे ‘चोर’ कहने का शुक्रिया

दो-चार दिन पहले की ही बात है । अपने ब्लाग पर आयी टिप्पणियां देख रहा था । चिरकुटों के चंगुल में हिन्दी शीर्षक से लिखी गई लेखमाला की तीसरी और अंतिम कड़ी पर आई दो टिप्पणियां कुछ ‘अलग’ सी दिखीं । अलग सी इसलिए कह रहा हूं कि अच्छा-बुरा, सही-गलत कहना मेरे लिए ठीक नहीं होगा । ब्लाग में मैने अपने विचार रखे तो कमेंट करने वालों ने अपनी बात कहीं । अब इसपर सहमति-असहमति तो हो सकती है, पर अपनी बात को सही और दूसरे की बात को गलत कहना अनुचित ही नहीं अलोकतांत्रिक भी होगा और फिर ब्लाग खोल रखा है तो अनुकूल-प्रतिकूल सभी कुछ देखने-बर्दाश्त करने का माद्दा रखना चाहिए । इसी के मद्देनजर मैं चार-पांच दिन इन दोनों टिप्पणियों पर कुछ कहने से बचता रहा कि तात्कालिक प्रक्रिया या आवेग में कुछ बेजा न लिख बैठूं । मैंने खुद को हफ्ते भर का समय भी दे दिया कि सप्ताह भर बाद फिर इन टिप्पणियों को देखूंगा और फिर इस पर कुछ लिखने की जरूरत महसूस हुई तो ठंडे और सुलझे दिमाग से लिखा जाएगा ।
शायद अपने खड़े किए इस संयम के बांध का ही यह नतीजा है कि दो महाशयों द्वारा खुद मुझे ही कठघरे में खड़ा किये जाने पर भी मैं उनसे झगड़ने के बजाय उनका शुक्रिया अदा करना चाह रहा हूं । शुक्रिया, दबे-छिपे मुझे ‘चोर’ कहने का । जो हुआ, एक तरह से ठीक ही हुआ कि दोनों साथियों के मन का गुबार भी निकल गया और मेरी बात भी आगे बढ़ गई । दरअसल अपनी इस लेखमाला में मैंने हिन्दी की दुर्दशा के व्यावहारिक कारणों की पड़ताल और चर्चा करने का प्रयास किया था । हिन्दी अखबारों, पत्रिकाओं में होने वाले ओछेपन, बड़े लेखकों की तंगदिली, से होती हुई चर्चा पहंुची थी हिन्दी में नोबेल और बुकर जैसा बड़ी इनाम राशि वाला कोई पुरस्कार न होने पर पहुंची थी। इसके अलावा मौजूदा पुरस्कारों के लिए होने वाली तिकड़मों का जिक्र भी मैने किया था ।
मेरा कहना था कि हम हिन्दी वालों को भी मिलकर एक ऐसा पुरस्कार शुरू करना चाहिए । क्योंकि पुरस्कार से जुड़ा सम्मान अपनी जगह होता है, पर उसकी धनराशि का भी अपना महत्व होता है । मैंने उदाहरण दिया था कि अपना पहला और एकमात्र उपन्यास गाड आफ स्माल थिक्स लिखकर ही अरुंधती राय को बुकर पुरस्कार में इतने पैसे मिल गए कि उन्हें कम से कम आजीविका के लिए संघर्ष करने की जरूरत नहीं और वह चाहें तो रोटी की जद्दोजहद से बेफिक्र होकर पूरी तल्लीनता से रचना कर्म में खुद को डुबो सकती हैं । अब मेरा यह सुझाव एक महाशय को न जाने क्यों इतना नागवार गुजर गया मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं । अपनी टिप्पणी में उन्होंने लिखा है कि ‘ पुरस्कार होंगे तो तिकड़म तो होगी ही । पुरस्कारों की चर्चा करते-करते आप भी आखिरकार पुरस्कार के चक्कर में पड़ गए’ ।
अरे भइया ! कौन सा पुरस्कार मांग लिया मैंने आपसे या किसी से यह बात कह कर, जरा बताइये तो सही ! और अगर आप यह कहना चाह रहे हैं कि मैं यह सब कोई पुरस्कार पाने के लिए लिख रहा हूं तो भई जरा बताइये कि लेख की किस पंक्ति, किस शब्द से आप इस निष्कर्ष पर पहुंचे, कहां से मिला आपको यह ‘महाज्ञान’ । चलिए इसपर अपनी आपत्ति को दरकिनार करते हुए यह भी मान लिया जाए कि मैं पुरस्कार के लिए लिख रहा हूं तो इसमें कौन सा गुनाह है बड़े भाई ! आदमी अगर समाज में सम्मान चाहता है, अपने कृतित्व के जरिए तो उसे भी आप कुफ्र साबित करने पर क्यों तुले हैं । स्वाभिमान और सम्मान की यह प्यास ही तो आदमी को आदमी बनाती है । वर्ना दोपाये-चैपाये में फर्क ही क्या है हुजूर !
अब आते हैं दूसरे सज्जन की टिप्पणी पर । नाम इनका भी नहीं लूंगा क्योंकि इनसे भी कोई विरोध या वैमनस्य नहीं है मेरा, मात्र वैचारिक असहमति जताना चाहता हूं । डाक्टरेटधारी इन भाई साहब ने लिखा कि ‘बोल बाबा की जय, ये तिकड़म-तिकड़म क्या है ! जिसने पाया, उसने जाना’ । इनका कमेंट था पुरस्कारों के लिए की जाने वाली तिकड़मों पर कही गई मेरी बात पर ! पढ़कर गुस्सा बाद में आया, हंसी पहले, वह भी भरपूर । बोल बाबा की जय - - - क्या मदारीपना है यह ! जिसने पाया उसने जाना तो भई ठीक है कल को रिश्वत लेने वाला भी कह देगा कि बोल बाबा की जय जिसने पाया, उसने जाना, यह भ्रष्टाचार-वष्टाचार क्या है !
आखिरकार एकबार फिर वही बात कहना चाहूंगा कि यह पोस्ट मैं इन टिप्पणियों पर आपत्ति जताने के लिए नहीं लिख रहा हूं । यह सब तो ब्लागिंग का हिस्सा है, चलता रहता है । मेरा ऐतराज इस बात को मान्यता देने से है कि पुरस्कार होंगे तो तिकड़म तो होगी ही । अरे भाई पुरस्कारों को प्रतिभा से जोड़िये, सृजनात्मकता से जोड़िये, विचारों की नवीनता से जोड़िये । तिकड़म से क्यों उसका ‘नैसर्गिक संबंध’ स्थापित कर रहे हैं । इसके अलावा पुरस्कारों के लिए होने वाली तिकड़म को यह कह कर दरकिनार कर देना कि यह तिकड़म-विकड़म क्या है, जिसने पाया, उसने जाना, मेरी समझ से हास्यास्पद ही नहीं समस्या से मुंह चुराने जैसा । ठीक उसी तरह जैसे खतरा दिखने पर शुतुमुर्ग रेत में अपना सिर गाड़ लेता है, खुदको बचाने का उपाय करने के बजाए । तो ऐसा शुतुमुर्गी खेल मत खेलिए भाई लोग ।

5 टिप्‍पणियां:

  1. कौस्तुभ जी,
    आपको इस गरीब की टिप्पणी से जो व्यक्तिगत संत्रास पहुंचा है, उसके लिए मुआफ़ी की गुजारिश है हालांकि आप पहले ही मुआफ़ कर चुके हैं, पर फिर भी कसक है इसलिए पुनः मुआफ़ कर दीजिए।

    समय अपनी बात उस अभिव्यंजनात्मक टिप्पणी के जरिए आप तक नहीः पहुंचा पाया, वाकई में ग्लानि में हूं।

    दरअसल समय का मतलब वह बिल्कुल ही नहीं था, जो आप तक पहुंचा है। कहीं शब्द चयन में जल्दबाज़ी रह गयी।

    समय का उद्देश्य चिंतन की दिशाओं पर कुछ अलग इशारे करने का था, और आपकी बात को आगे बढा़ने की कोशिश। यह थोडा़ बहुत आपके लिए, और ज्यादा आपके पाठकों के लिए था जिसमें कि समय खुद भी शामिल है।

    समय ने कहा था,‘पुरस्कार होंगे तो तिकड़म तो होगी ही । पुरस्कारों की चर्चा करते-करते आप भी आखिरकार पुरस्कार के चक्कर में पड़ गए’।

    पहली बात शायद ज्यादा साफ़ है। जब पुरस्कार होंगे, उनके जरिए धन और प्रतिष्ठा प्राप्त होने के अवसर होंगे, और मानव-श्रेष्ठों के मन में धन और प्रतिष्ठा प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षाएं होंगी, तो फिर पुरस्कारों को पाने के लिए मानव-श्रेष्ठ हर संभव कोशिश भी करेंगे। तिकडमें भी होंगी, बहुत कुछ होगा और होता भी है, सभी जानते ही हैं। पहले वाक्य से समय का मतलब यही था।

    दूसरा वाक्य यदि इस तरह लिखा गया होता जैसा कि इसे होना चाहिए था, और जैसा कि समय का आशय था, "पुरस्कारों की चर्चा करते-करते आप भी आखिरकार एक और पुरस्कार की स्थापना की चर्चा के चक्कर में पड़ गए." तो शायद ज्यादा ठीक होता।

    समय यही कहना चाहता था कि जब आप पुरस्कारों के पीछे की तिकडमों को समझते हैं, तो फिर लेख के अंत में एक और पुरस्कार स्थापित करने की चर्चा क्यूं कर करने लगे। क्योंकि समय को लगता है, इसका भी वही हश्र होने की अधिक संभावनाएं है और इसके पीछे की सोच को समय ने पहले वाक्य में रख ही दिया था।

    आपने इसके बाद के वाक्य की चर्चा नहीं की, और वही समय की समझ के अनुसार ज्यादा महत्वपूर्ण था। समय आपके और पाठकों के चिंतन में इस दिशा को भी शामिल करवाना चाह रहा था, और इसीलिए इसका जिक्र पुनः कर रहा है।

    समय ने कहा था:
    "लेखन के उद्देश्यों पर ही दोबारा विचार करना होगा।"

    यहां समय अपना आशय स्पष्ट कर देना चाहता है।

    लेखकों को यह भी विचार दोबारा से करना होगा (जो अब तक नहीं कर पाएं है, या इस पर कुछ और विचार रखते हैं) कि आखिरकार लेखन का उद्देश्य क्या है, लेखन के वास्तविक सरोकार क्या हैं? बहुत से मानव-श्रेष्ठ लेखकों ने इस पर अपने विचारों को लिख छोडा है, उनसे गुजरना चाहिए।

    क्या लेखन का उद्देश्य स्वान्तसुखाय है? क्या यह केवल व्यक्तिगत मनोविलास का माध्यम है, और आत्मसंतुष्टि इसका लक्ष्य? क्या सिर्फ़ यह अहम की तुष्टी, व्यक्तिगत महत्तवाकांक्षाओं की पूर्ति, सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करने का जरिया भर है?

    या लेखन के उद्देश्यों को इनका अतिक्रमण नहीं करना चाहिए? क्या इसे सामाजिक सरोकारों से नहीं जुडना चाहिए? क्या सामाजिक चेतना की बेहतरी की चिंताएं इसमें शामिल नहीं होनी चाहिएं? क्या तार्किक और वैज्ञानिक सोच को आम करने की जिम्मेदारी इसमें शामिल नहीं होनी चाहिए? क्या अपनी बेहतरी के लिए चिंतित और संघर्षरत आमजन का पक्षपोषण इसमें नहीं झलकना चाहिए? क्या लेखन की दिशा को एक ऐसे आदर्श समाज की स्थापना, जिसमें समता और भाईचारा हो, जिसमें किसी भी मनुष्य का किसी भी तरह का शोषण संभव ना हो, जिसमें सभी की खुशहाली हो, हेतु प्रेरणास्रोत नहीं होना चाहिए?

    और क्या लेखन के मूल में यही वास्तविक चिंताएं नहीं होनी चाहिएं?

    और अगर ये चिंताए वाकई में लेखक के लेखन के मूल में हैं, तो जाहिर है, पुरस्कारों-सम्मानों का कोई विशेष मतलब नहीं रह जाता। फिर लेखक, अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए अपने इन्हीं आदर्शों और उनकी प्राप्ति को ही अपनी कसौटी बनाता है।

    बस, समय का उद्देश्य यही कहना था।

    व्यक्तिगत ठेस पहुंचाने की, या जैसा मतलब आपने निकाला है वैसा कुछ कहने की मंशा कतई नहीं थी। यह समय के सरोकारों में शामिल नहीं है। इसीलिए खेद है।

    हां, यदि विचारों को कहीं ठेस लगती है तो समय को इसका कोई खेद नहीं होता। क्योंकि समय के सरोकारों में यह शामिल है कि विचारों के टकराव के जरिए सही समझ तक पहुंचा जाए।

    आशा है आपकी व्यक्तिगत पीडा़ कुछ कम हुई होगी।
    एक बार पुनः क्षमा की प्रार्थना सहित,

    समय

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  2. ध्यान देने की ज़रूरत नही है।आप अपना काम करते रहिये।

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  3. कौस्तुभ जी महाराज, "आपने तो कुछ 'अलग' सी टिप्पणी" लिख कर मेरे कान खड़े कर दिये थे। मैं भी सोचूं कि ले भाई आज खाम-ख्वाह मैंने किसको क्या कह दिया जिसका मुझे ही पता नहीं। सही भी है ना 'कुछ अलग सा' दिखते पढते ही अपन तो अपने बिस्तर के नीचे ही लाठी घुमाने लगते हैं पहले।

    आईये कभी मिल-बैठ कर बतियाते हैं।

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