3 जून 2009

मीरा को पचा गए ओबामा-गान करने वाले
घर की मुर्गी दाल बराबर की कहावत एक बार पिफर हमारे देश की मीडिया पर सटीक बैठती दिखाई दे रही है/ ओबामा के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने पर जो चैनल एक के बाद एक विशेष कार्यक्रम पेश कर रहे थे, उनमें मीरा कुमार के लोकसभा अध्यक्ष बनने को लेकर कोई ‘उत्साह’ नजर नहीं आया/ मोटी-मोटी तनख्वाहें बटोरने वाले चैनलों के नीति नियंताओं को एक महिला, वह भी दलित वर्ग से आने वाली महिला के उंचे ओहदे पर पहुंचने में कुछ खास नजर नहीं आया/ अब जरा याद कीजिए चंद महीने पहले बराक ओबामा के राष्ट्रपति चुने जाने के दौर को/ सारे के सारे चैनल किस भक्ति भाव से जुट गए थे उनका यशोगान करने में/ खबरों की काॅपी लिखने वाले चन्द वरदाई तो समाचार वाचक आल्हा-उदल बन बैठै थे यकायक/ आ गए हैं ओबामा, बदल जाएगी दुनिया, नए युग की शुरुआत जैसी हेड लाइंस को हाई पिच में ऐसे चीख-चीख कर पढ़ा जा रहा था मानो ईसा मसीह ने दोबारा अवतार ले लिया हो और अब दुनिया के सारे दीन-दुखियों के दुर्दिन एक झटके में दूर हो जाएंगे/
ओबामा के रूप में एक ब्लैक को राष्ट्रपति चुनने पर ‘अमेरिका ने रचा इतिहास’ जैसी हेड लाइंस देकर वहां की जनता का भी कम महिमा मंडन नहीं किया गया/ भारतीय समाचार चैनलों की तकरीबन सारी की सारी स्टोरियां अमेरिकी अखबारों, चैनलों और वेबसाइटों से मैटेरियल जैसे का तैसा उठा कर बनाई जा रहीं थीं/ तेवर, कलेवर और एंगिल वही, अंतर था तो महज भाषा का/ इन खबरों को उठाने-परोसने में हमारे मीडिया मुग़लों ने यह भी ध्यान नहीं रखा कि अमेरिकी नेताओं, नागरिकों की तरह वहां का मीडिया भी बुरी तरह से आत्म मुग्धता का शिकार है/ उसके इस रवैये के चलते ही करीब डेढ़ दशक पहले ‘सूचना के साम्राज्यवाद’ का मुद्दा दुनिया भर में बड़ी जोर-शोर से उठा था/ सीएनएन, फाॅक्स टीवी, सीएनबीसी आदि अमेरिकी चैनलों और बीबीसी ने दुनिया के सामने खाड़ी युद्ध को एक धर्मयुद्ध के रूप में निरूपित किया/ कफी-कुछ उसी अंदाज में जैसे भारतीय परंपरा में राम-रावण युद्ध और कौरवों-पांडवों के बीच महाभारत को वर्णित किया गया है/ दशक भर बाद जूनियर बुश के समय हुई दूसरे दौर की लड़ाई और ‘नाइन-इलेवन’ के बाद अपफगानिस्तान में अमेरिका की अगुवाई में की गई सैनिक कार्रवाई के मामले में भी इन चैनलों का रवैया वही रहा/ नजारा कुछ ऐसा पेश किया गया कि सद्दाम और लादेन के खिलाफ जंग छेड़ कर बुशद्वय ने समूची मानवता को तबाही से बचा लिया/ इस बात को बड़ी आसानी के साथ भुला दिया गया कि इन दोनों ही आसुरी शक्तियों का उदय खुद अमेरिका की ही छत्र-छाया में हुआ/ डब्ल्यूटीसी और पेंटागन पर हमलों के मामले में वहां के मीडिया ने इस सबके पीछे सीआईए की कोरी नाकामी को पूरी तरह दरकिनार कर इस्लामी आतंकवाद और जेहाद के मुद्दों पर दुनिया के उलझाए रखा/ कुल मिलाकर दोनों ही बार अमेरिका ने दुनिया को यह दिखा दिया कि अपनी ताकत के दम पर वह कुछ भी कर सकता है और उसका पिट्ठू मीडिया दुनिया के सामने वही तस्वीर पेश करता है, जैसा कि उनकी सरकार चाहती है/ ओबामा की ताजपोशी की खबरों में भी उसके इसी चरिऋ का विस्तार दिखाई दिया/ इसके लिए ‘इतिहास’ और ‘नया युग’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए वहां का मीडिया यह भूल गया कि खुद को लोकतंऋ का सबसे बड़ा पैरोकार बाने वाले अमेरिका को एक ब्लैक को राष्ट्रपति बनाने में डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा लग गए/ इन खबरों को जैसे के तैसे अंदाज में पेश करने वाले हमारे देश के चैनलों ने भी यह देखने की जहमत नहीं उठाई कि जिस काम के लिए वह अमेरिका की भूरि-भूरि प्रशंसा करता फिर रहा है, वह काम तो भारत वर्षों पहले दलित वर्ग से आए के आर नारायणन को देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठा कर कर चुका है/ यही नहीं प्रतिभा पाटिल के रूप में एक महिला को राष्ट्रपति बनाकर भी भारत ने इस दिशा में अमेरिका को पिछाड़ दिया है क्योंकि भारत से कहीं पुराने अमेरिका के लोकतंत्र में अबतक कोई महिला वहां के सर्वोच्च पद पर नहीं पहुंच पाई है/ पी ए संगमा जैसे आदिवासी समाज से आए व्यक्ति का भी लोकसभा का स्पीकर बनना इस लिहाज से कम महत्वपूर्ण नहीं था/ क्या अमेरिका में आज तक वहां का कोई मूलवासी इतने उूंचे पद पर पहंुच सका है! मीरा कुमार का लोकसभा अध्यक्ष्ज्ञ बनना भी क्या इसी श्रृंखला की एक कड़ी नहीं है! पर किसी न्यूज चैनल ने खबर को इस नजरिए बहुत महत्व नहीं दिया/ चैनलों पर इस बारे में महज सूचनात्मक खबरें ही प्रसारित हुईं/ एकाध चैनल ने इससे हटकर कुछ दिखाया तो ‘एक तीर से दो शिकार’ के एंगिल से/ इन खबरों का लब्बो लुआब यह था कि मीरा को स्पीकर बना कांगे्रस ने दलित और महिला दोनों ही वोट बैंको को साधने की कवायाद की है/ यह सियासी समीकरण अपनी जगह सही हो सकता है, पर ओबामा के मामले में ऐसी बातें नहीं थी क्या!

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