10 जून 2009

यह चीन की बदमाशी तो नहीं !

सुबह अखबार के पहले पन्ने पर खबर पढ़ी कि ‘वायुसेना के दो विमान अरुणाचल के जंगलों में गायब’ । वायुसेना के अधिकारियों के हवाले से समाचार में किसी तकनीकी खामी के चलते विमान के दुर्घटनाग्रस्त होकर जंगल में गिर जाने की आशंका जताई गई है । साथ ही अधिकारियों का यह भी कहना था कि मौसम खराब होने के चलते विमान की तलाश का अभियान नहीं चलाया जा सका । खबर के जरिए कुल मिलाकर जो मामला सामने आता है वह कहीं न कहीं संदेहजनक लगता है । मन में पहली शंका यही उठती है कि कहीं यह चीन का काम तो नहीं !
शंका की वजह यह है कि चीन अकसर ऐसी हरकतें करता रहता है और हमारी सरकार जाने क्यों ऐसे मामलों केा दबाने में ही भलाई समझती है । चीन के खतरनाक इरादे केवल आए दिन होने वाली ऐसी घटनाओं तक ही सीमित नहीं हैं । सीमांत क्षेत्र में वह कई ऐसी योजनाएं भी चला रहा है जो आगे चल कर निश्चित रूप से कहीं न कहीं हमारे देश की संप्रभुता के लिए खतरा बन सकती हैं ।
पिछले साल ओलंपिक के आयोजन की आड़ में चीन ने हिमालय की सीमावर्ती चोटियों तक एक राजमार्ग तैयार कर लिया और ओलंपिक की मशाल को यहां से गुजारा । इसके अलावा वह ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाने की महत्वाकांक्षी परियोजना भी बना रहा है जिससे निश्चित तौर पर भारत के हित प्रभावित होंगे । फिरभी इन मामलों पर भारत सरकार कभी मुखर होने या मामला अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाने की जहमत नहीं उठाई । दूसरी ओर भारतीय सीमा सड़क संगठन जब कभी भी सीमावर्ती इलाके में अपनी वर्षों पुरानी सड़कों की मरम्मत करने पहुंचता है, चीनी फौज न सिर्फ गोलीबारी शुरू कर देती है, बल्कि चीन सरकार सारी दुनिया में हाय-तौबा मचाना शुरू कर देती है ।
चीन के इस प्रोपोगंडे की इंतेहा का आलम तो यह रहा कि एक-दो महीने पहले राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर गईं तो उसने बाकायदा पत्र लिखकर इसपर भारत सरकार से स्पष्टीकरण मांग लिया । यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं, बहुत बड़ी बात थी, पर हमारी सरकार ने इसका जो जवाब दिया वह न केलव ‘ठंडा’ बल्कि बचकाना सा भी लगा । भारत सरकार ने महज इतना कहा कि चीन की यह चिंता ‘गैर-जरूरी’ है । मेरी समझ में कहा यह जाना चाहिए था कि हमारे देश का राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या कोई भी नागरिक देश में कहीं भी आ-जा सकता है, आप पूछने वाले कौन होते है ! ऐसे ‘फरमान’ चीन आए दिन जारी कर भारत से स्पष्टीकरण मांगता रहता है और हर बार हमारी सरकार मामले को जैसे-तैसे के अंदाज में निपटा देती है । सरकार के इस ढुलमुल रवैये के चलते ही हवाई जहाज गायब होने के मामले में चीन का हाथ होने की आशंका हो रही है और यह अगर सच भी निकल जाए तो बहुत आश्चर्यजनक नहीं होगीा । भारत को इन मामलों को अभी से ही बहुत गंभीरता से लेना चाहिए, वर्ना आगे चलकर चीन एकबार फिर 1962 की तरह अचानक पीठ में छुरा घोंप सकता है और एक बार फिर हम अपनी जमीन और सम्मान गंवा कर हाथ मलने को मजबूर हो सकते हैं ।
उस समय भी युद्ध कोई यकायक नहीं हो गया था । 1959 से ही चीन सीमा पर गोलाबारी कर रहा था पर नेहरू जी की सरकार ने इसे नजरअंदाज करते हुए और चीन के खतरनाक इरादों से अनजान बने रहकर पंचशील समझौता कर लिया । इसका खमियाजा हमें लाखों वर्गमील की अपनी जमीन और कहीं न कहीं राष्ट्रीय स्वाभिमान गंवाकर भुगतना पड़ा था । सन 59 में ही पहली बार गोलाबारी करने पर भारत ने माकूल जवाब दिया होता तो शायद आज यह नौबत न आती । उस समय भी सरकार को चेताया गया था, पर वह नहीं चेती । ख्यातिलब्ध कवि और गीतकार गोपाल सिंह नेपाली ने इसपर तत्कालीन सरकार को धिक्कारते हुए ‘हिमालय की हुंकार’ का यह गीत भी लिखा था -

है भूल हमारी, वह छुरी क्यों न निकाले
तिब्बत को अगर चीन के करते न हवाले
पड़ते न हिमालय के शिखर चोर के पाले
समझा न सितारों ने घटनाओं का इशारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा !

इस गीत की अगली पंक्तियां मौजूदा हालात में भी बहुत माकूल और प्रासंगिक लगती हैं कि -

इतिहास पढ़ो-समझो तो यह मिलती है शिक्षा
होती न अहिंसा से कभी देश की रक्षा
क्या लाज रही जबकि मिली प्राण की भिक्षा
यह हिन्द शहीदों का अमर देश् है प्यारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा !

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