9 जून 2009

चिरकुटों के चंगुल में हिन्दी - 3 ‘अंतिम ’

पत्र-पत्रिकाओं, संपादकों, लेखकों की करनी-धरनी के बाद बात करते हैं पुरस्कारों की । इस मामले में तो हिन्दी में चिरकुटई चरम पर नजर आती है । पुरस्कारों के लिए दिल्ली में कैसी-कैसी जोड़-तोड़, खींचतान, दांव-पेच और लाबींग की जाती है वह साहित्य की गलियों में भटकने वाले अच्छी तरह जानते हैं । पूरा का पूरा एक तंत्र काम करता है इसके पीछे । इन गिरोह के ‘सक्रिय सदस्य ’ लिखने-पढ,ने से ज्यादा इन्ही तिकड़मों में व्यस्त रहते हैं । अभी आजकल में ही मैत्रेयी पुष्पा का साक्षात्कार पढ़ रहा था । एक नारी को के बेहतर लेखन को पचा पाने में साहित्य जगत के मठाधीशों को होने वाली दिक्कत का जिक्र था । वाकया था मैत्रेयी की किताब अल्मा कबूतरी को पुरस्कार देने का इस पर कमलेश्वर का कहना था कि उसे ! उसके लिए तो राजेन्द्र यादव लिखते हैं । इसपर वहां मौजूद एक लेखिका ने बड़ी खरी टिप्पणी की कि राजेन्द्र एक अल्मा कबूतरी लिखकर दिखा दें तो जानूं ! उनके कहने का आशय महज यह था कि किताब में नारी की जो पीड़ा उभरी है वह एक नारी ही बयान कर सकती है । तो यह हाल है साहित्य के आसमां में चमकते चांद सितारों का । अब इससे नीचे के लेबिल पर किस-किस किस्म की चिरकुटई होती होगी सहज ही अंदाजा लगा लें । नया लेखक लाख क्रांतिकारी और उत्कृष्ट लिख कर मर जाए उसे सम्मान और पुरस्कार मिलने ही नहीं देते हैं उपर जमें बैठे मठाधीश । खैर यह तो हुई पुरस्कार को लेकर राजनीति की बात, अब पुरस्कारों पर भी जरा गौर करें । हिन्दी बोलने, जानने-समझने वालों की दुनिया इतनी बड़ी है । फिल्म, टीवी, मीडिया, पुस्तकें, संगीत से लेकर विज्ञापन तक अरबों-अरब का कारोबार चल रहा है हिन्दी के सहारे । पर हिन्दी के क्षेत्र में क्या है कोई ऐसा बड़ा ईनाम जो नोबेल और बुकर पुरस्कारों से टक्कर ले सके । यह बात अपनी जगह ठीक है कि पुरस्कार से जुड़ा सम्मान बड़ा होता है, पैसा नहीं, पर यह एक मेरी समझ में यह एक सैद्धांतिक बात है । व्यावहारिक नहीं । अंगरेजी में मात्र एक उपन्यास लिखने पर अरुंधती राय को बुकर के जरिए विश्वव्यापी सम्मान के साथ-साथ इतनी बड़ी राशि मिल जाती है कि जिंदगी भर कम से कम उन्हें आजीविका के बारे में सोचने की जरूरत नहीं । इन तनावों और संघर्ष से बेफिक्र होकर वह लिख-पढ़ सकती हैं । दूसरी ओर पहला गिरमिटिया जैसी उत्कृष्ट और शोधपरक किताब लिखने के लिए गिरिराज किशोर जैसे स्थापित साहित्यकार को पैसों के जुगाड़ में जगह-जगह भटकना पड़ जाता है और इसके चलते अर्सा लग जाता है उपन्यास पूरा करने में । तो यह है पुरस्कारों के अर्थ शास्त्र का व्यावहारिक पक्ष । मेरी समझ में हिन्दी के नाम पर करोड़ों कमाने वाले अगर मिल कर एक ऐसा पुरस्कार निर्धारित करें जो इन मायनों में बुकर और नोबेल को टक्कर दे सकेे तो बहुत बड़ी संख्या में नए लेखक हिन्दी के क्षे़त्र में उभर कर सामने आ सकते हैं, पुरानों को भी इससे लाभ ही होगा क्योंकि पुरस्कार तो किसी को भी मिल सकता है। एक व्यापक और सामूहिक पहल से मेरी समझ में ऐसा किया जा सकता है ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. पुरस्कारों की तिकडम का विश्लेषण करते करते आप भी अंततः पुरस्कार पर ही पहुंच गये।
    पुरस्कार होंगे तो तिकडम तो होंगी ही।

    लेखन के उद्देश्यों पर ही दोबारा विचार करना होगा।

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  2. आपकी पोस्ट यानि कलित कोलाहल कलह में हृदय की बात !

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