6 जून 2009

चिरकुटों के चंगुल में हिन्दी- 2

पहली कड़ी में हमने हिन्दी अखबारों और पत्रिकाओं में होने वाली चिरकुटई की बात की थी । आज चर्चा करते हैं इलेक्ट्रानिक मीडिया और लेखकों की दुनिया की । इलेक्ट्रानिक मीडिया में अखबारों की तरह बेगारी की समस्या तो अमूमन नहीं होती, पर यहां की अपनी अलग पेचीदगियां हैं । पहली बात तो यह कि इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता आज के दौर में पत्रकारिता कम, टेक्निकल टे्रड कहीं ज्यादा बन गई है । काम-काज में लिखने-पढ़ने का यहां बहुत स्कोप नहीं होता । ज्यादातर समय कैमरे या कम्प्यूटर के सामने सिर फोड़ते रहिए । जल्दबाजी का दबाव ऐसा कि दस में आठ आदमी हर वक्त टेंशन में ही रहते हैं । इसी मशीनीकरण से उबियाने के चलते ही बड़ी संख्या में चैनलों के साथी ब्लागिंग की दुनिया में उतरते हैं, केवल अपनी बौद्धिक संतुष्टि के लिए । इलेक्ट्रानिक माध्यमों में इसके अलावा एक बहुत बड़ी समस्या यह है कि यहां दाखिल होने के लिए लंबा जैक चाहिए । अगर आपका कोई परिचित किसी चैनल में अच्छी पोजीशन पर है तो किसी भी एक्स, वाई, जेड इंस्टीट्यूट से कोर्स कर लीजिए चाचा-मामा चैनल में फिट करवा देंगे आपको । वर्ना देते रहिए दस्तक पर दस्तक, कोई दरवाजा खोलने नहीं आता । चैनलों के दफ्तरों में बायोडाटा डालने के लिए अमूमन बाहर ही एक बाक्स रखा मिल जाएगा । उसमें बायोडाटा डालिए और भूल जाइये । बक्सा खोलकर देखने की जहमत भी नहीं उठाई जाती । कई जगह तो बताया जाता है कि हफ्ते-हफ्ते नौकरी, मान्सटर जैसी जाब साइट वाले ये बायोडाटा ले जाते हैं, महज अपना डाटाबेस बढ़ाकर अपना कारोबार फैलाने के लिए । कुल मिलाकर साहित्यिक रुचियों वाला या पढ़ने लिखने का शौक रखने वाला कोई आदमी इस क्षेत्र में उतरना चाहे तो उसे दाखिला मिलना ही बहुत मुश्किल है । करीब नब्बे फीसदी सीटें भाई-भतीजों और दिल्ली के इंस्टीट्यूटों के कंडीडेट्स से ही भर जाती हैं ।
उधर साहित्य की दुनिया में अपनी अलग ही किस्म की चिरकुटई है । किसी नए साहित्यकार को अपना वजूद साबित करने के लिए क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं यह तो वही बेचारा जानता है, जो भुगतता है । सेमिनारों, सभाओं में बड़े भाई लोग आंसू बहाते हैं कि नई प्रतिभाएं नहीं आ रहीं हैं, और हकीकत में नये तो क्या अच्छे-अच्छे पुरनियों को भी लंगड़ी लगाने में बिरादरी वाले पीछे नहीं रहते । सीधा सा सवाल है मेरा कि नई प्रतिभाओं को बढ़वा देने के लिए आज तक किसी ख्यातिनामा साहित्यकार ने व्यक्तिगत स्तर पर किया ही क्या है! क्या कोई ऐसी सहृदयता नहीं दिखा सकता कि अपने उपन्यास या संग्रह में अपने साथ एक नए लेखक की कहानी, कविताएं आदि भी छापे । मेरा अपना मानना है कि हिन्दी की दुर्दशा पर आंसू बहाने के बजाय अगर बड़े लेखक ऐसी कोई पहल करें तो हिन्दी का कुछ तो भला हो ही सकता है । वर्ना किताब छपवाने में प्रकाशकों के चक्कर लगाते-लगाते नए लेखकों की चप्पलें घिस जाती हैं । जिसको बहुत तमन्ना हुई वह जहां तहां से पैसा जुगाड़ कर खुद अपने खर्चे पर किताब की कुछ प्रतियां छपवा लेता है । यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि किसी नवोदित प्रतिभावान लेखक को लाख प्रयासों के बाद भी प्रकाशक नहीं मिलता, दूसरी ओर मल्लिका शेरावत और राखी सावंत आत्मकथा लिखने की घोषणा कर दें तो आज के आज उनके आगे प्रकाशकों की लाइन लग जाएगी । मोटी रायल्टी का पोस्ट डेटेड चेक लिए हुए । चर्चा के कुछ पहलू और भी हैं, शेष आगे - - -

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपने कितनी सही बात कितनी बेबाकी से कही् नहीं तो इस मुद्दे पर कम ही लेखक बोलते हैम वरिष्ठ लेखक तो कभी भी इस विश्य को उठाना नहीम चाहतेक्यों कि उन्हें रायल्टी मिल ही रही है मुझे लगता है इस ओर सरकार क ध्यान दिलवाना भी जरूरी है हिन्दी के उत्थान के लिये तभी कुछ किया जा सकता है अग्र इस लेखन के क्षेत्र् मै अधिक लोगों की भागी दारी हो और सरकार देश के इस चौथे स्तँभ की ओरे कुछ ध्यान देपुस्तकें ना छ्प पाने से कुछ अच्छी प्रतिभायेण गुमनामी के अंधेरे मे ही खो जाती हैं इस लेख के लिये धन्य्वाद्

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  2. चिरकुट को साहित्यकार बनने में समय लगता है और साहित्यकार तो महान मरणोपरांत ही होता है:)

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  3. हिन्दी के मठाधीशों ! सुन रहे हो !!

    "क्या कोई ऐसी सहृदयता नहीं दिखा सकता कि अपने उपन्यास या संग्रह में अपने साथ एक नए लेखक की कहानी, कविताएं आदि भी छापे । मेरा अपना मानना है कि हिन्दी की दुर्दशा पर आंसू बहाने के बजाय अगर बड़े लेखक ऐसी कोई पहल करें तो हिन्दी का कुछ तो भला हो ही सकता है । वर्ना किताब छपवाने में प्रकाशकों के चक्कर लगाते-लगाते नए लेखकों की चप्पलें घिस जाती हैं ।..."

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